आज रविवार है। इधर सुबह का टहलना उतने प्राॅपर तरीके से नहीं हो पाता। इसमें कुछ आलस का भी योगदान है। फिर भी दिनचर्या में इस कमी को पूरा करने की कोशिश कर लेता हूँ। मेरे अंदर का यह आलस केवल सुबह की टहलाई पर ही असर नहीं डाल रहा, इसका प्रभाव मेरे लिखने पर भी पड़ रहा है। लिखने की कोशिश करता हूँ तो लिख नहीं पाता। दरअसल लिखने में मेरी एक कमजोरी है इसमें मैं बुद्धि और कल्पना का इस्तेमाल कर कृत्रिम लेखन से बचता हूँ। लेखन कार्य के लिए भावभूमि चाहिए और भावभूमि तभी मिलता है जब हृदयतल आलोड़ित होता है इस हलचल से भाव जागते हैं। इधर आज बहुत लिखा जा रहा है मैं छिटपुट पढ़ता रहता हूँ लेकिन आज के लेखन में लेखक की आत्मा दिखाई नहीं पड़ती, इससे लिखे में पठनीयता का तत्व जैसे गायब सा रहता है। परिणामस्वरूप पाठन से मन उचट जाता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि इन बातों को लेकर स्वयं मेरा ही नज़रिया गलत हो। मुझे ही कुछ समझ में न आता हो। लेकिन इतना तो मैं कह ही सकता हूँ जो भी महाकाव्य रचे गए और जिन लेखकों को हम बार-बार पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ना चाहते हैं उनका लेखन अनायास या कृत्रिम नहीं है। उनके अंदर की भावभूमि ने उन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया होगा। खैर अब इस बात को विस्तार नहीं देना चाहता।
मैं कहना यह चाहता हूँ कि आज मैं सुबह छह बजे टहलने निकल गया था। मेरा सुबह बाहर निकलना कई दिन बाद हुआ था। बाहर की चीजें कुछ भी नहीं बदली थीं। सब वैसे ही था। जैसे शहर, सड़कें और इसपर चलती मोटरें। यहाँ तक कि सोसायटी के पास चाय की दुकान सजाने के लिए वह टपरा भी। वहाँ वह तिरंगा भी वैसे ही साल भर से आज भी वैसे ही लहरा रहा है, हाँ इतना जरूर हुआ है कि तिरंगे का रंग कुछ धुंधला सा गया है। बस यूँ ही मैं चला जा रहा था अचानक मन में कुछ दिन पहले पढ़ी एक खबर की हेडलाइन कौंध गई! यह लाइन कुछ ऐसी थी कि कोई अधिकार सम्पन्न शख्स किसी को धमका रहा था कि कुछ गलत करने पर "हम तुमको जेल भेज देंगे/देंगी।" उस दिन जब इसे पढ़ा था तो मेरे हृदय में थोड़ी हलचल सी हुई। थी। उस दिन इसे पढ़कर मैंने यही सोचा था कि इस देश में किसी को जेल कोई 'आदमी' भेजता है या 'कानून'? यहाँ 'आदमी' का आशय किसी पद को सुशोभित करने वाला। माना कि इस 'आदमी' 'में अथारिटी' है, लेकिन किसी को जेल तो 'कानून' ही भेज सकता है। यहाँ मेरा आशय बस यही है कि उस जेल भेजने वाले कथन में 'कानून' जैसे किसी के हाथ का खिलौना बना दिखाई दिया। कि यह उस आदमी की मर्जी पर निर्भर है कि वह चाहे तो किसी को जेल भेजे या चाहे तो न भेजे। कुल मिलाकर मेरे कहने का लब्बोलुआब यही है कि यहां कानून का पालन होना या न होना किसी 'व्यक्ति' पर और उसकी मर्जी पर निर्भर करता है। यदि ऐसा ही है तो व्यवस्थाएं व्यक्ति भरोसे ही चलती हैं, फिर तो देश का मालिक ऊपरवाला ही है। कानून में वह कुव्वत नहीं कि किसी को जेल भेज पाए इसीलिए आज कानून की बजाय "व्यक्ति" पर भरोसा करने का चलन बढ़ा है! और यह 'व्यक्ति' अपनी मर्जी का मालिक होता है।
टहलने वाले अंतिम प्वाइंट पर पहुँच कर जब वापस मुड़ा तो अथारिटी के तीन कर्मचारी घास कटिंग वाली मशीन से घास काटते दिखाई पड़े। वे अपना काम कर रहे थे। दरअसल यह काम ही महत्वपूर्ण है। यदि इसी तरह प्रत्येक अथारिटी वाले अपना काम करने लगें तो कानून भी अपना काम करने लगेगा। और यदि कानून अपना काम करने लगे तो यह आदमी यह कहकर कि 'वह कानून का सम्मान करता है' अपनी डींग नहीं हांकेगा बल्कि कानून से डरेगा।
#चलते_चलते
'कानून' जब 'आदमी' के चंगुल में फंसा होता है तो अपना काम नहीं कर पाता। आदमी का चंगुल भयावह होता है।
#सुबहचर्या
(23.07.2023)