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सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

पचड़ेबाज


                      सुबह हो गई थी...मैं अहाते में टहल रहा था, मेरी निगाह गुलमोहर के ऊँचे पेड़ पर गई...उसकी डालियाँ बहुत खूबसूरत ढंग से फैली हुई थी...उसके नीचे मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था...मानों वह गुलमोहर का पेड़, एक माँ की तरह अपने बच्चे को धूप या बारिश से बचाने के लिए अपने आँचल की छाया कर रखी हो...उसकी डालियों पर, पत्तियों के बीच, तोते के ही समान लेकिन उससे छोटे आकार के पक्षी उछल कूद कर रहे थे...पंखों का रंग तो हरा था लेकिन सिर पूरा लाल...देखने में सुंदर...! अपलक निहारता रहा...! तन्द्रा टूटी... जब एक गिलहरी बड़ी तेजी के साथ तने से होते हुए उन डालियों तक पहुँच गई जहाँ वे सुंदर पक्षी आपस में कलरव करते हुए इस डाल से उस डाल पर उछल-कूद कर रहे थे...तभी मिश्रा की आवाज कानों में पड़ी, “सर, चाय तैयार हो गई है.” मैंने कहा, “अच्छा पिया जाए.” तब तक मेहीलाल चाय का कप लेकर मेरे सामने हाजिर था. मैंने पूँछा, “ मेहीलाल, अख़बार आया...” “अभी नहीं” उसने उत्तर दिया. मैंने कहा, “ये तो बड़ा देर कर देता है अख़बारवाला, सात से ऊपर हो गया लेकिन अभी तक अख़बार नहीं दिया.” मेहीलाल बोला, “कल से दूसरेवाले को कह देते हैं जो थोड़ा जल्दी आता है.” तभी मिश्रा ने कहा, “सर अखबार आ गया.”
     चाय पीने के साथ मैं अखबार पढ़ने में मशगूल हो गया. सहसा मेरी नजर खबर के एक शीर्षक पर ठहर गई...कार दुर्घटना में तीन लोग मारे गए....आगे लिखा था...समय रहते यदि दुर्घटना में घायल एक व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाया जाता तो उसकी जान बचाई जा सकती थी...खबर मुझे अंदर तक झकझोर गई...फिर..एक दिन पहले की वह घटना याद आई, शायद उसी के सम्बंध में यह खबर थी...
     शाम का धुंधलका था...मैं अपने एक मित्र के साथ, जो स्वयं कार चला रहे थे...समय से अपने गंतव्य पर पहुँच जाएँ...हाईवे पर कार भगाए जा रहे थे...सामने से आ रहे वाहनों की हेडलाईट से आँखे चौंधिया रहीं थी...तभी एक हल्की सी ब्रेक लगाते हुए सामने दिख रहे ट्रक के बारे में मित्र ने कहा, “देखा...! इसने पीछे इंडिकेटर भी नहीं जला रखा है.., सम्बंधित अधिकारी भी न जाने कैसे ऐसे वाहन को चलने के लिए परमिट करते हैं...कोई देखता भी नहीं..” मैंने सहमति जताते हुए कहा. “हाँ...सभी अपने चक्कर में रहते हैं...कौन पचड़े में पड़े.”  हम लोग फिर चुप हो गए...कार भागी जा रही थी...अचानक..! दूर सड़क के किनारे कुछ हलचल सी दिखाई दी...पास जाने पर देखा...एक कार दुर्घटनाग्रस्त हो सड़क के किनारे पड़ी थी...तीन व्यक्ति उसमें फंसे हुए थे...इसे देख हमलोग अपनी कार रोक दिए...वहाँ तब तक चार पांच व्यक्ति और पहुँच चुके थे...हम लोग अपनी कार के शीशे नीचे करते हुए पास ही खड़े व्यक्ति से दुर्घटनाग्रस्त कार में फंसे व्यक्तियों के बारे में जानकारी चाही तो पता चला कि तीनों की मौत हो चुकी है, हम लोगों को समय से पहुंचना था...फिर तुरंत चल दिए...
     अख़बार की खबर से लगा...जब हम लोग उस अभागी कार के पास पहुंचे थे तो कोई उसमें से जीवित था, बेहोश होने से लोगों ने उसे मृत समझ लिया था. उसी को यदि समय पर चिकित्सीय मदद मिलती तो वह बच सकता था...कौन पचड़ेबाजी में पड़े...यही सोचकर तो हम लोग वहाँ से निकल लिए थे...खबर पढ़ने के बाद स्वयं को अपराधी महसूस करने लगा...फिर बचपन में हुए एक हादसे की स्मृतियों में खो गया...
       उस समय आठ-दस वर्ष के बीच मेरी उम्र रही होगी...मेरे घर के पास एक तालाब था...वह तालाब तो अब भी है लेकिन बचपन में देखे गए से भिन्न...क्योंकि न तो अब उसमे कुमुदिनी खिलती हैं और न तो उसमे कोई नहाने जाता है...उस तालाब में जलकुम्भी का साम्राज्य ऐसा फ़ैल चुका है कि पानी कहीं दिखता ही नहीं, कोई कह रहा था कि किसी ने उस तालाब में जलकुम्भी इसलिए डाल दिया कि धीरे-धीरे तालाब पट जाए और उसकी भूमि पर कब्जा कर लिया जाए...यही नहीं अब तो उसका आकार भी बदल गया है….गाँव के कुछ लोगों द्वारा भू अभिलेखों में परिवर्तन कराते हुए उसे पाटना प्रारंभ कर चुके हैं. नरेगा में उस तालाब की खुदाई की ऐसी योजना बनाई गई कि उस बड़े से तालाब के बीच में ही एक छोटा सा तालाब और खोद दिया गया...खैर...बचपन की स्मृतियों का वह तालाब उसके लिए बहुत ही आकर्षक और सुंदर दृश्यों की याद दिलाता है...कुमुदिनी के खिले सफेद फूलों से सजा वह तालाब बहुत ही सुंदर दिखाई देता था...खास कर हम बच्चों के लिए...! उसमे...नहाना...तैरना...घंटों उस तालाब के किनारे समय बिताना हमारी आदत बन चुकी थी...अकसर मैं बाबू की निगाहों से अपने को बचाता हुआ वहाँ पहुँच जाता था...हाँ बाबू यानि मेरे दादा...चूँकि मुझे उस समय तैरना नहीं आता था इसलिए वह मुझे उसमें नहाने और वहाँ जाने से भी मना करते थे...काफी मिन्नतों के बाद मुझे इतनी अनुमति बाबू की ओर से मिली थी कि मै तालाब के किनारे तक जा सकता था लेकिन उसमें नहा नहीं सकता था...यही मेरे लिए बहुत था...क्योंकि बच्चों को उस तालाब में तैरते...पानी में डुबकी लगाते हुए दूर तक निकलते जाना...आदि...इन अठखेलियों को देखकर मैं बहुत आनंदित होता था...गाँव के ढेर सारे बच्चे वहाँ इकट्ठे होते थे...
     ऐसे ही एक दिन कुछ बच्चे उस तालाब में नहाने जा रहे थे, उन लोगों ने मुझे भी साथ चलने को कहा...लेकिन बाबू ने मना कर दिया...सारे बच्चे चले गए...मैं मनमसोसकर गुमसुम हो बैठ गया...कुछ देर यूँ ही बीतने पर अचानक बाबू की निगाह मुझ पर पड़ी...उन्होंने पूँछा, “कहो का बात अहई...” मैंने कहा, “कुछ नाहीं बाबू.” बाबू ने फिर पूँछा, “त...काहे मुह फुलाए बइठा अहा...|” उन्होंने कुछ समझते हुए फिर कहा, “जा तालाब पर...लेकिन हिलअ मत...जल्दी आयअ...|” बाबू कि तरफ से इतना अनुमति मिलते ही मैं दौड़ कर तालाब के किनारे पहुँच गया. वहाँ गाँव घर के बहुत सारे बच्चे जमा थे...कोई नहा रहा था...कोई तैर रहा था...कुछ बच्चे तालाब के किनारे के पेड़ों पर चढ़ उसकी डालियों से तालाब में कूद रहे थे, तो कोई एक तालाब में ही एक टापू जैसे स्थान पर पहुँच वहां कुमुदनियों की माला बना उसे गले में पहन और उसकी फलियों को दूसरे बच्चों की ओर उछल रहा था...यह सब देखकर मुझे बड़ा मजा आ रहा था...जब तब ख़ुशी के मारे मैं ताली भी बजा देता था...मै इधर अपने में ही मस्त था कि तभी मेरे ही हमउम्र एक लड़के की आवाज कानों में पड़ी, जो तालाब में उछल-कूद कर रहा था,विने...उंहा का बइठा हया...” तब तक दूसरा बोल उठा, “अरे अपने बाबू से पहिले पूंछि लेहीं...तब..” इतना कहते ही दोनों हँसने लगे| पहला बच्चा फिर बोला, “आवा आर...तोहरे बाबू के न बतावा जाए..” मुझे प्रतीत हुआ जैसे वे मेरा मजाक उड़ा रहे हों. इधर मेरे मन में भी तालाब में सब के साथ नहाने और खेलने की तीव्र इच्छा जाग चुकी थी, अचानक बेपरवाह सा तालाब में मैं कूद पड़ा...
            तालाब के पानी में, मैं किनारे पर ही उछल-कूद रहा था, क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था...तभी एक लड़का मेरे पास आया और तालाब में टापू वाले स्थान की ओर इशारा करते हुए वहाँ चलने के लिए कहा. चूँकि मुझे तैरना नहीं आता था...मैंने मना कर दिया...मैंने देखा वह तालाब के बीच उस छोटे से टीले पर तब तक पहुँच चुका था...वहाँ से मुझे वह फिर बुलाने लगा...मेरा भी मन अब वहाँ जाने के लिए तैयार हो चुका था...और मेरे बालमन ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि मेरी लम्बाई उस लड़के से कम थी और वह थोड़ा बहुत तैर भी लेता था...मैंने धीरे-धीरे अपना पांव उस ओर बढ़ाने लगा...तालाब का पानी अब मेरे गर्दन के ऊपर तक पहुँच चुका था...और वह लड़का लगातार मेरा उत्साह बढ़ाते हुए मुझे पानी के बीच उस टीले तक आने के लिए प्रेरित करता जा रहा था...अरे...! यह क्या...अचानक मेरा पैर फिसल सा गया और मैं किसी गहरे गढ्ढे की  ओर जाने लगा...वहाँ से निकलना भी मेरे लिए कठिन हो गया...मैं अब डूबने लगा था...अचानक मेरा सिर पानी से बाहर आया लेकिन अगले ही पल फिर पूरी तरह मेरे सिर के ऊपर पानी हो गया...शायद मैं अब पानी में डूब रहा था...मुझे आज भी याद है जब मैंने उस एक क्षण में सोचा था... “काश..! कोई मुझे बचा ले...” जब मैंने अपनी आँखे खोली तो देखा यह छोटकऊ चाचा थे जो अपने दोनों बाँहों में मुझे उठाए हुए धीरे-धीरे सूखी जमीन पर पेट के बल लिटा रहे थे तथा मेरे पेट से पानी निकालने का प्रयास कर रहे थे...हाँ, यह छोटकऊ चाचा ही थे...उन्होंने मुझे डूबने से बचा लिया था..! वह भी अपनी परवाह न करते हुए, क्योंकि किसी डूबते हुए को बचाने में स्वयं डूबने का खतरा होता है...इस घटना के बारे में बाबू को उस समय तो कुछ पता नहीं चला, लेकिन एक दिन जब एक बड़ी सी बाल्टी को उल्टा कर मैं उस तालाब में तैरने का अभ्यास कर रहा था तो उन्होंने मेरी काफी पिटाई की थी..., हाँ...छोटकऊ चाचा... वह मुझसे चार या पांच साल बड़े थे...बचपन में हम लोग उन्हें कुछ-कुछ जिद्दी जैसा मानते थे और जब किसी बात को मनवाने में उनकी तर्कशक्ति जबाव दे देती तो लड़-भिड़ कर अपनी बात मनवाने की उनमें आदत थी...वह किसी पचड़े में भी पड़ने से नहीं डरते थे...इतना सब होते हुए भी उनमें भावुकता भी थी...
      मुझे याद है उक्त घटना के कई साल बाद...तब वह इलाहबाद में रहकर पढाई कर रहे थे...एक दिन सुबह ही मैंने देखा...छोटकऊ चाचा घर के बड़े लोगों का बारी बारी से पैर छू रहे थे...कहते जा रहे थे...ऊपर वाले ने मुझे बचा लिया...फिर अपने साथ हुई घटना के बारे में बताना शुरू किया, “हम रोज सुबह गंगा नहाई जाथ रहे...काल्हि जब हम गंगाजी में नहात रहे, अऊर गंगाजी के किनारे रहई वाले कुछ लरिकऊ नहात रहे...ओन्हन धारा के बीच में तैरि के दुसरे तरफ जाई के नहात रहइ...हमरेऊ मन भा कि हमहूँ ऊहीं जाई के नहाई..|” उनकी बात हम सब बड़े ध्यान से सुन रहे थे, उन्होंने आगे कहना शुरू किया, “हाँ त हमहूँ सोचे तैर के गंगा के बीच धारा वाले उथले रेता पर जाई...अऊर जब हम कुछ दूर नदी क धारा में पहुँचे त हम खड़ा होई क कोशिश केहे...लेकिन...इ...का.., हमरे पैर के नीचे से बलुअइ खिसकि गई...!” आगे इस प्रकार बताया...चूँकि नदी की धारा में थे इसलिए पैर टिक नहीं रहा था...फिर तैर कर किनारे आने का प्रयास किया, लेकिन नदी में तैरने का अभ्यास न होने के कारण तैरने में मुश्किल आ रही थी...उन्हें लगा कि वह डूब जाएँगे...क्योंकि तब तक वह थक चुके थे...तभी उनके दिमाग ने काम किया और नदी में पीठ के बल हो उसी की धारा के सापेक्ष तैरने की स्थिति में अपने को छोड़ दिया...उधर नदी के किनारे से लोग उनकी हिम्मत बंधा रहे थे...करीब इसी स्थिति में लगभग पांच सौ मीटर बहने के बाद वह किनारे पर नदी की धारा के बहाव के सहारे पहुँचे, वहाँ भी नदी का करार काफी ऊँचा था, उस गिरते करार में दबने का खतरा था...अंत में जैसे तैसे कर लोगों ने वहाँ से सहारा देकर निकाला...इसके बाद निढाल हो गए...! छोटकऊ चाचा किसी बड़े शहर में रहते हैं और पचड़े में पड़ कर निकलने की अपनी आदत आज भी नहीं छोड़ पाए हैं...
     न जाने क्यों उक्त छोटी सी घटनाओं को लिखने के लिए प्रेरित हुआ...हाँ...उस दिन पचड़ेबाजी में पड़ते तो किसी की जान बच सकती थी... सोचा..! यह लिखना भी तो एक पचड़ेबाजी ही है...! शायद...! किसी पचड़ेबाज को समझने का मौका मिले...!
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