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बुधवार, 9 अप्रैल 2014

क्या ऐसा ही नहीं हो सकता...?

           
            उस दिन आफिस में मुझे काम करते हुए काफी देर हो चुका था...मित्र महोदय के घर भी उनसे मिलने जाना था... वे कई बार अपने घर न आने का उलाहना दे चुके थे...लेकिन आफिस का यह काम भी महत्वपूर्ण था क्योंकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष बाल-श्रम के संबंध में की गयी एक शिकायत का उत्तर जो तैयार कराना था..।   
           खैर...किसी तरह काम समाप्त कर मित्र महोदय के घर गया था... मैंने दरवाजे की घंटी बजाई और दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगा... यह क्या..! दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करते लगभग चार-पांच मिनट हो चुके हैं लेकिन अभी तक मित्र द्वारा दरवाजा नहीं खोला गया था... ऐसा क्यों…! ऐसा पहले कभी नहीं होता था…! मित्र महोदय किसी के जाने पर बिना समय गवाए स्वयं दरवाजा खोलते थे और आगंतुक को स-स्वागत बैठक-कक्ष में स्वयं ले जाकर बैठाते थे...लेकिन आज अभी तक दरवाजा नहीं खुला...! मैं यही सोचने में तल्लीन था तब तक दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई दी... मैंने अचकचा कर देखा कि साधारण कपड़ों में एक बालक दरवाजा खोल रहा था..., ऐं...ये क्या..! क्या मित्र महोदय ने कोई नौकर रख लिया है..? क्योंकि उनके लड़के को तो मैं पहचानता हूँ...और हाँ..लड़कों की उपस्थिति में भी तो वे स्वयं ही दरवाजा खोलते हैं..। एक बार बातों ही बातों में कहा भी था,
           "यार जब कोई मिलने हमारे घर आए तो वह हमें एक प्रकार से ऋणी बना जाता है…।"  
           मेरा ध्यान भंग हुआ…फिर मैंने उस लड़के से पूँछा,
           “तुम्हारे साहब नहीं हैं क्या..?”
           लड़के ने मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और मुझे यह कहते हुए अन्दर आने का इशारा किया "मैं उन्हें बता देता हूँ..." मैं बैठक-कक्ष में सोफे पर बैठकर मित्र का इंतजार करने लगा... तो…मित्र महोदय ने ये ठाट बना लिए हैं...! इस नाबालिग बच्चे को नौकर रख लिया हैं..! इसके यह पढ़ने का उम्र...! इसके नन्हें हाथों से काम लेते होंगे..! यह कैसा अहंकार उनमें आ गया…! 
         
           बैठे-बैठे मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आ गयी... मैं इसी बच्चे के उम्र का लगभग सात-आठ साल का रहा होऊँगा...मैं अपने दूर के रिश्तेदार के घर गया था...चार-पांच दिन तक रूका था... वहाँ मुझे दूर स्थित जलनिगम के नल से सुबह-शाम उनके घर तक पानी पहुँचाना होता था...कारण जलनिगम के उस नल में पानी सुबह-शाम ही छोड़ा जाता था... हाँ..उस समय मेरे दोनों नन्हें-नन्हें हाथों में पानी से भरी बाल्टी पकड़ा कर उसे घर तक पहुँचाने के लिए कहा जाता था..और किसी तरह मैं दोनों भरी बाल्टियों को घर तक ले जाता था...उस समय ऐसा लगता था जैसे मेरे हाथ कट जायेंगे.. इस बात का पता किसी तरह मेरे दादा जी को चल गया था... उस दिन वह सोंटा लेकर आये और उन लोगों को काफी खरी-खोटी सुनाते हुए मुझे घर ले आये थे...लगा था जैसे मुझे मुक्ति मिली हो.....। 
          इस घटना का जिक्र अभी कल ही तो मैंने अपनी पत्नी से उस समय किया था जब वे किसी मिलने वाले के घर से कुछ सामाजिक दायित्व निभा कर आयी थी। 
         आते ही उन्होंने मुझसे कहा,
         “बड़े अजीब हैं वे लोग...एक छोटे से बच्चे को नौकर रखे हुए हैं..!”
         “तो क्या हुआ..?” आकस्मात मेरे मुँह से निकल गया था..। 
        “अरे हुआ क्या..! एक नन्हीं जान से क्या-क्या कराओगे..? जैसे मेरे ऊपर झल्लाते हुए से उन्होंने कहा। 
         “नहीं यार मेरा मतलब यह नहीं हैं...क्या-क्या कराते हैं वे लोग उस बच्चे से...?” मैंने शांत भाव से पूँछा। 
         “सभी कुछ तो...ये करो-वो करो..बर्तन यहाँ रखो-वहां रखो...ठीक से क्यों नहीं धुला...इसके बाद डाट...इसे तो कपड़े भी ठीक से साफ़ करना नहीं आता...बड़ा कामचोर है... क्या-क्या बताऊँ क्या-क्या कराते हैं उस नन्हें बच्चे से...” पत्नी ने जैसे एक साँस में सारी बात कह डाली थी। 
         “क्या करोगी.. उस बच्चे के माँ-बाप गरीब होंगे दो जून की रोटी के लिए आखिर कुछ तो करना ही पड़ेगा...!” मैंने पत्नी के आक्रोश के भाव पर ठंडा पानी डालने के प्रयास में कहा। 
         “अरे ऐसे भी क्या दो जून की रोटी...! जो किसी मासूम की ज़िंदगी बरबाद कर दे...!” उन्होंने आक्रोशित भाव से ही कहा। 
         “और हाँ...मैंने देखा वह बेचारा बीमार भी था...फिर भी वे लोग उससे काम लिए जा रहे थे.…। ” पत्नी ने अपने स्वर में थोड़ा तल्खी लाते हुए कहा। 
         “कहाँ तक चिंता करोगी...? सबकी अपनी-अपनी मानसिकता होती है..।” जैसे मैंने उन्हें समझाया हो..। 
         “हाँ सही कहा..मुझे तो लगा उन लोगों ने नौकर अपनी आवश्यकता के लिए नहीं बल्कि अपने अहंकार की तुष्टि के लिए रखा हो...जैसे उन्हें अपने बड़बोलेपन को दिखाना हो...एक अहंकार का प्रदर्शन...! हाँ…बात तो मानसिकता की ही है।” यह कह श्रीमती जी चुप हो गयी...फिर मैंने अपने बचपन की वही घटना उन्हें सुनाई थी..। 
         आचानक खटका हुआ...मैं वर्तमान में आ गया...देखा मित्र महोदय सामने की कुर्सी पर बैठ रहे थे...मुझे देखते हुए बोले,
         “क्षमा करना भाई मुझे देर हो गयी...आपको इंतजार करना पड़ा..।”
        “हाँ भाई...इंतजार तो करना ही पड़ा...।” मैंने कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में कहा..। 
         पता नहीं उन्होंने मेरे इस लहजे पर ध्यान दिया या नहीं लेकिन छूटते हुए फिर बोले,
         “अरे यार... अभी तो पानी भी नहीं पिए मैं पहले आपको ठंडा पानी पिलाऊँ..।” कहते हुए वह उठने को हुए। 
         “अरे भाई बैठो... नौकर से बोल दो…पानी लेकर आ जाएगा..” कहते हुए मैंने उनको टटोला। 
         “नौकर..! कौन नौकर...!” उन्होंने जैसे आश्चर्य से मुझसे पूँछा हो..। 
         “अरे वही लड़का जिसने दरवाजा खोला था...।” किंचित अविश्वास भाव से मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा। 
         “क्या यार...! तुम भी क्या से क्या समझ लेते हो...वह मेरा नौकर नहीं है...अभी बेचारा अपना होम-वर्क कर रहा है।” यह कह वह उठ कर चले गए..। 
         लौटे तो उनके हाथों में ठन्डे पानी का गिलास था...पीछे-पीछे उनकी पत्नी भी आयीं और एक प्लेट को टेबल पर रखा..हमारे बीच अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ..पानी पीते हुए मैंने अधूरी वार्ता को पूरा करने के उद्देश्य से कहा,
         “तो वह बच्चा....”
         “अरे हाँ...वह बच्चा गाँव में ही मेरे पड़ोस का है...पढ़ने में इसकी बहुत रूचि है...लेकिन इसके पिता अभी से इसे अपने साथ खेतों में काम के लिए ले जाने लगे हैं...स्कूल का काम बेचारा रात में घर के सामने खम्भे में लगे बल्व की रोशनी में पूरा करता था..।” मित्र महोदय की यह बात समाप्त ही हुई थी कि बीच में उनकी पत्नी बोल उठी,
        “इनका दिल पसीज आया और जूनियर तक पढ़ाने की बात कह इसे यहाँ ले आये हैं...बच्चों के साथ यह भी हँसता-खेलता रहता है..इस समय वह अपने स्कूल का काम कर रहा है”
        मैं उन दोनों को बड़े ध्यान से देखने लगा...सोचा.. क्या ऐसा ही नही हो सकता..? तभी मित्र की आवाज कानों में गूँजी,
         “आज आपको काफी झेलना पड़ गया...”
       “इतने देर से भाई साहब बैठे थे और आप बाथरूम से निकलने में इतना देर कर रहे थे.. अच्छा चाय बना कर लाती हूँ!” कहते हुए वह उठ कर चली गयी..और मित्र महोदय मेरी ओर देखते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे...मैं झेंपते हुए सा सोचने लगा… राष्ट्रीय मानवाधिकार का उत्तर बनाने से लेकर मित्र के घर तक झेल ही तो रहा हूँ लेकिन अब सुकून के साथ..। 
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                                                   ----विनय कुमार तिवारी