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शनिवार, 14 जनवरी 2023

नेऊरा भ‌इया!

मै नोयडा में हूं। नोयडा, विकास के पैमाने पर विकसित है, यह पैमाना पश्चिम का है। मैं इस विकास को महसूसने का प्रयास कर रहा हूं। यहाँ सड़कें चमचमाती और गुलजार रहती हैं, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे इस विकासवादी ढांचे में एक अजीब सी उदासी भरी रुग्णता पसरी हुई है। मेरी निगाह अकसर सोसायटियों की ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों की ओर उठ जाती है। इन सड़कों से गाड़ियां इन्हीं सोसायटियों की ओर मुड़ती दिखाई पड़ती है और इनसे उतरते तमाम चेहरों से वह चमक गायब दिखाई देती है जिनसे वे सड़कें गुलजार दिखाई देती हैं। इन चेहरों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे जिजिविषा और उत्साह की जगह ये जीवन से उदास और इस जीवन को ढो रहे हों। न जाने क्यों मैं स्वयं को विकास के इस चौखाने में अनफिट पाता हूँ! रोज-रोज वही चीजें और वही बातें! वही विकास..विकास और विकास..! यह विकास मुझे जैसे मेरी आत्मा पर हमलावर प्रतीत होता है और मुझे बरबस गाँव की याद आती है! उसे याद करता हूँ याद करना चाहता हूँ और इन यादों को बाँटने का भी मन करता है। 


       गाँव में तालाब के किनारे का वह जामुन का पेड़ आज भी वहाँ खड़ा है! बचपन के दिन थे इस तालाब की जब गहराई बढ़ती तो न जाने क्यों मैं आनंद से भर उठता! इसकी गहराई में कूदता उछलता और फिर इसमें से निकलता! गहराई में जाना मेरे लिए किसी रहस्यबोध सा लगता! हाँ गाँव के कच्चे घर इसी तालाब की मिट्टी से सँवरते थे! उन दिनों इसी जामुन के पेड़ के तने से सटा हुआ इमली का एक विशाल वृक्ष भी हुआ करता था। बचपन में इसी इमली के पेड़ से झ‌ऊआ (सन‌ई के ढंठल से बनी एक बड़ी सी टोकरी) भर-भरकर पकी इमली उससे तोड़ी जाती थी‌। मैंने देखा था जामुन और इमली का वह वृक्ष आपस में मिलकर हवाओं के सहारे इस तरह झूमते थे, दोनों वृक्ष जुड़वां भाई हों। और हो भी क्यों न, इनकी जड़े और डालियाँ भी तो आपस में उलझी हुई थीं। ये दोनों वृक्ष आपस में उलझे हुए कितने प्रसन्न रहते थे, यह हरियर पत्तियों के बीच खोए इनकी डालियों की सघनता से पता चलता था! यही नहीं अपनी इस प्रसन्नता का इजहार ये मौसम में इमली और जामुन के फलों से लदकर करते थे!

       

        ये दोनों वृक्ष तालाब के एकदम किनारे पर थे। इनके जड़ो की मिट्टी तालाब के पानी से छीजते-छीजते बह सी गई थी। मिट्टी के छीजने से इन दोनों दोनों वृक्षों की कुछ मोटी जड़ें छत्ते की तरह उभर आई थीं। इन्हीं जड़ों पर मैं तालाब की गीली मिट्टी से घरौंदे और मंदिर बनाता और देवताओं की मूर्तियां बनाकर उसे चमकीली पन्नियों से सजाता था। स्कूल में छुट्टी रहने पर अकसर मैं इन पेड़ों के नीचे पहुंचकर अपने इस खेल में मगन हो जाता था। जैसे यह स्थान मेरा कोई रहस्यलोक होता!


         बचपन में इस स्थान से लगाव का एक दूसरा कारण भी था। वह यह कि, तालाब के किनारे के जामुन के इस पेड़ की जड़ों पर बैठे हुए मै उन दिनों पिता जी द्वारा सुनाई हुई बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती वाली कहानी को साकार होने की कल्पना करता। कहानी का वह बंदर जैसे इसी जामुन के पेड़ पर रहता हो और मगरमच्छ इस तालाब में। फिर एक लोक कथा, जिसे मेरी दादी बुआ ने सुनाया था, उस कहानी को भी मैं इसी जामुन के पेड़ से जोड लेता था। आज जामुन के इस पेड़ की क‌ई डालें गिर चुकी हैं, जैसे केवल तना ही शेष रह गया है। लेकिन उन दिनों इसकी लटकती डालियों को लग्गी से झुकाकर जामुन तोड़ लेते थे और जब नीचे की शाखाओं में ये न बचते तो ऊपर की डालियों पर पके जामुन देख मन ललचाता। फिर तो दादी बुआ से सुनी वही कहानी याद आती, जिसमें ऐसे ही पेड़़ पर पके जामुन देखकर एक लड़का ललचा उठता है और अपने नेवले भाई को याद कर बोलता है, "नेऊरा भ‌इया होत‌इ त‌अ जमुनिय‌इ खियउत‌इ।" वह नेवला भी, जो लड़के के पीछे चुपचाप चल रहा होता, तुरंत बोलता "भाइ-भाइ पिछव‌ई ह‌ई"।  फिर पेड़ पर चढ़कर नेवला पके जामुन तोड़ कर नीचे गिराने लगता। उस कहानी में नेवले और लड़के में भाई जैसा प्रेम है, क्योंकि लड़के के माता-पिता ने उस नेवले को पाला हुआ है। ये माता-पिता जब घर से बाहर जाते हैं तो दोनों से घर की रखवाली करने के लिए कहकर जाते हैं। इधर माता-पिता के जाते ही नेवले को घर की रखवालई सौंपकर लड़का भी घूमने निकल जाता है। लेकिन नेवला भी कहाँ मानने वाला था वह भी चुपके से लड़के के पीछे हो लेता है।

         

           अभी कुछ दिन पहले मैं गांव गया था। इमली का वह विशाल वृक्ष अब वहाँ नहीं है। और जामुन का पेड़ क‌ई वर्ष से वहाँ अकेला खड़ा है। इसी अकेले खड़े इस जामुन के पेड़ पर मेरी निगाह पड़ी थी। इस बार न जाने क्यों इसे देखते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह वृक्ष एक गहरी उदासी में डूबकर किसी बात पर शोक मना रहा है! इस शोक से मुझे इसकी चेतना के छीजने का भान हुआ! आखिर ये पेड़-पौधे इस चेतन संसार के ही तो अंग हैं, और चेतना जब छीजती है तो उदासी घेरती ही है! पार्क चाहे जितने भी खूबसूरत पेड़-पौधों से सजाए ग‌ए हों लेकिन किसी बच्चे में शायद ही वह नैसर्गिक अनुभूति जगा पाने में सक्षम हों जिसे मैंने बचपन में इन पेड़ों से पाया था।   

         यहाँ इस चमकते-दमकते शहर में रहते हुए मुझे यह एहसास सा हो रहा है कि आज जामुन के उस पेड़ के उदासी का एक कारण यह भी हो सकता है कि अब कोई बच्चा उसकी जड़ों पर बैठकर नहीं खेलता!  


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