आज मेरे मित्र महोदय
बहुत दिन बाद मुझसे मिलने आये थे... लेकिन मैं उनसे बेपरवाह टेलीविजन देखने में ही
व्यस्त था... वह आकर मेरे सिरहाने पड़ी कुर्सी पर बैठ चुके थे...मेरी इच्छा इस समय
उनसे बात करने की नहीं थी... कारण साफ़ था...बातचीत के दौरान अकसर अपने दुख
और चिंताओं का पिटारा मेरे सामने खोल दिया करते हैं...और अंत में उपदेशात्मक शैली
में मुझसे बात करने लगते हैं... थकान के कारण इस समय मुझे ऐसी बातों में उनसे
उलझना रुचिकर नहीं लग रहा था...लेकिन उनकी सजग उपस्थिति में मैं मौन भी नही रह
सकता था...।
“भारत को अब बदलना चाहिए..” यह वाक्य मित्र से जब मैंने टी.वी. पर नजरे गड़ाए
हुए ही अचानक कही तो वह अचकचाते हुए पूँछ बैठे,
“क्यों, क्या कोई
ख़ास बात है..?”
जैसे ही उनकी यह
आवाज मेरे कानों में पड़ी मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ...तब-तक उनकी आवाज पुनः
कानों में गूंजी,
“अब क्यों बदलना
चाहिए..! पहले क्यों नहीं..?” इतना कहते हुए उन्होंनें टी.वी. में चल रहे विज्ञापन
की ओर देखा। शायद मेरी चोरी वह पकड़ चुके थे...और विद्रूप भाव लेकर बोले,
“यार तुम भी अजीब
आदमी हो....विज्ञापनों से इतना प्रभावित हो जाते हो...!” टी.वी. पर समाप्त होते भारतीय
युवा-शक्ति संबंधी विज्ञापन को देखते हुए उन्होंने कहा और स्वभावानुसार अपने वाक्य
को पूरा किया,
“देखो ज्यादा
टी.वी.-टा-वा के चक्कर में मत पड़ा करो..इससे तुम मतिभ्रम के भी शिकार हो सकते
हो...क्या पहले भारत में युवा-शक्ति नहीं थी या केवल वृद्ध-शक्ति ही थी कि अब भारत
को बदलना चाहिए...?” मेरे कहे का जैसे उन्होंने प्रतिवाद किया हो।
मुझे लगा उनके
सामने यह कह कर कि “भारत को अब बदलना चाहिए..” जैसे मैंने बर्र के छत्ते को छू
दिया हो क्योंकि अब उनसे बहस में उलझना ही था।
फिर मैंने भी छेड़ते
हुए उन्हें बहस में घसीटने का प्रयास किया,
“नहीं बात ‘अब’ की इसलिए है कि भारत
अपने इतिहास के उस दौर में गुजर रहा है जब उसके पास युवाओं की संख्या सर्वाधिक
है..और इसे भारत की शक्ति के रूप में देखना उचित ही है..!”
मित्र महोदय ने
मेरी बात को जैसे अनसुना कर दिया और अपने स्वाभाव के विपरीत इसे सुन कर भी इस पर
उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी... जैसे किसी शून्य में खो से गए हों।
मैंने
अपना वार खाली जाते देख उन्हें वर्तमान का अहसास कराया,
“क्या सोचने लगे
भाई..किस बात में खो गए हो... अच्छा छोड़िए इन बातों को बताइए इतने दिन तक कहाँ रहे।”
“नहीं कहीं खोया
नहीं हूँ...।” एक गहरी सांस लेते हुए उन्होंने कहा..।
“थोड़ा चला गया था
घर..।” जैसे उन्होंने अपना वाक्य पूरा किया।
“हाँ यार उस दिन जब
मैं बस से घर जा रहा था न..” जैसे उन्हें कुछ याद आया हो.. फिर चुप हो गए..लेकिन
मेरा ध्यान अपनी ओर केन्द्रित कर चुके थे...।
मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा
रहा था...बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने पूँछा,
“हाँ..क्या कहा...बस
से घर जा रहे थे...?”
“हाँ मेरे भाई..! बस
से ही उस दिन घर जा रहे था...रात में चला था..।” मेरी ओर देखते हुए कहा।
फिर आगे जैसे कहानी
कहना शुरू कर दिया...
“ये बस वाले भी बसों का रख-रखाव ठीक से नहीं करते...रास्ते
में बस की टंकी फट गयी सारा तेल बह गया..गनीमत रही आग नहीं लगी..नहीं तो ...”
इतना
बोल वह चुप हो गए...
मैं ताड़ गया था कि मित्र महोदय की बात अभी पूरी
नहीं हुई है..और बात मात्र बस की टंकी फटने तक ही सीमित नहीं है। बात बढ़ाने के
अंदाज में मैंने कहा,
“यह सब तो होता रहता
है...क्या करेंगे...?”
“हाँ...नहीं
भाई...बात यह नहीं है...उस दिन बस में हम ठीक से सो भी नहीं पाए...हमें दूसरी बस में
बैठाया गया था..यह थोड़ी दूर आगे बढ़ी थी कि कुछ अन्य लोग भी उसमें सवार हुए
थे..यही कोई. चार-पाच युवा-शक्ति रही होगी...।” कहते हुए मेरी ओर जैसे व्यंगात्मक दृष्टि से
देख रहे थे...मेरा अनुमान सही था..बात कुछ और ही थी....
फिर
आचानक तल्ख़ स्वर में बोले,
“सब साले नौजवान
थे....तीन लोग आगे जाकर ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठ गए और दो..शायद दो ही थे...जाकर
पीछे बैठ गए..”
फिर जैसे कुछ याद
करते हुए उन्होंने कहना शुरू किया,
“आगे बैठने वाले
युवा अन्त्याकक्षरी लड़ा रहे थे तो पीछे बैठने वाला साला शराब के नशे में झूमता
अनाप-शनाप गाली बके जा रहा था... बस में बैठी महिलायें बेचारी बड़ी असहज महसूस कर
रही थीं.. एक युवा उसे गाली देकर चुप करने का प्रयास कर रहा था..जैसे बस में
हुडदंग मचा हो..! सोने का प्रयास करता तो नींद खुल जाती...।”
अपनी आपबीती सुनाना
उन्होंने जारी रखा..
“तब-तक दूर सड़क पर
बस की हेडलाईट में एक-दो ट्रक और दो-एक छोटी गाड़ियां आड़ी-तिरछी खड़ी हुई दिखाई
दी...मैंने सोचा अब कौन सी बला आ गई..? कहीं सड़क पर जाम तो नहीं लगा है...? और पास
पहुँचने पर स्पष्ट हुआ कि कोई छोटी-मोटी दुर्घटना घटित हुई थी...शायद इसी कारण कुछ
लोग आपस में बहस में उलझे दिखाई दिए...हमारे बस का ड्राइवर बस को सड़क किनारे के
खाली स्थान से निकलने का प्रयास करने लगा...”
यह कह वह चुप हो गए..और मेरी ओर देखने लगे..शायद
यह सोचकर कि मैं उन्हें सुनने के लिए गंभीर हूँ या नहीं..., लेकिन मेरी गंभीरता
भांपते ही फिर बोले,
“जानते हो.., जब ड्राइवर बस को उस सड़क की पटरी
के संकरे भाग से निकालने का प्रयास कर रहा था तो उसके पास बैठे तीनों युवा आचानक
अपनी सीट से ड्राइवर से बस रोकने की बात कहते हुए उठ खड़े हुए...और बस के दरवाजे की
ओर बढे।” हम दोनों के बीच क्षणिक चुप्पी छा गयी।
छाई चुप्पी तोड़ने
के उद्देश्य से मैंने पूँछा, “क्या ड्राइवर ने बस रोकी..?”
कहानी के प्रति
मेरी जिज्ञासा सिद्ध होने पर कहानी को उन्होंने आगे बढाया,
“नहीं.. बस-कंडक्टर
अपनी सीट से खड़ा हो बस के बंद-दरवाजे पर दरवाजा न खोलने के अंदाज में हाथ रखते हुए
उन तीनों युवाओं से पूँछा कि भाई आप लोग क्यों उतरना चाहते हो..? तो जानते हो.. उन
लोगों ने कंडक्टर से क्या कहा...?”
मेरी ओर देखते हुए
मित्र महोदय फिर बोले..
“उनमें से एक
बोला..., देख नहीं रहे हो बाहर मार हो रही है..., इस पर कंडक्टर ने कहा कि मार हो
रही है तो आप लोगों से क्या मतलब.., आप क्यों उतरना चाहते हैं..? तो उनमें से दूसरी
युवा-शक्ति ने कंडक्टर की ओर मुखातिब होते हुए कहा कि अबे...----के...सा....ले.. हमें
भी नीचे जाकर मार करनी है... और इसी तरह उस कंडक्टर को भद्दी गालियाँ देते हुए कहा
कि रूकवाते हो कि नहीं बस.. या फिर पहले तुम्हीं पर शुरू हो जाएँ...कंडक्टर बेचारा
हक्का-बक्का.. ड्राइवर से तत्काल बस रोकने के लिए कह दिया...सभी
बस-यात्री सहमे हुए से थे।”
हाँ...मित्र की एक
बात का मैंने नोटिस लिया कि ‘युवा-शक्ति’ शब्द का उच्चारण बड़े व्यंग्यात्मक अंदाज
में वे कर रहे थे..अब मैं आगे की घटना जानने की उत्सुकता ले दोस्त से एक बच्चे की
तरह पूंछ बैठा,
“फिर आगे क्या
हुआ..”
“हुआ क्या..बस
रुकी..वे उतर गए फिर तीन-चार मिनट बाद वापस आए..और अपनी सीट पर बैठते हुए ड्राइवर
से चलने के लिए कहा...और बस चल पड़ी..और उधर पीछे बैठा वह शराबी ‘युवा-शक्ति’
अनाप-शनाप बोलते जा रहा था। हाँ.… इस बीच कंडक्टर बेचारे का चेहरा उतरा हुआ था और वह
चुप था।”
मेरी ओर देखते हुए
अपनी कहानी उन्होंने फिर आगे बढाई,
“पंद्रह-बीस मिनट
बाद वे सभी युवा-शक्ति ड्राइवर से बस रोकने की बात कह अचानक उठ खड़े हुए शायद
उनका गंतव्य आ गया था... वे ‘युवा-शक्ति’ कंडक्टर से यह कहते हुए बस से उतरे कि
ज्यादा मत बोला करो नहीं तो गिरा देंगे।” “बेचारा कंडक्टर अनायास ही अपने को
अपमानित महसूस करते हुए ‘युवा-शक्ति’ के जोश को शांत भाव से सहन कर रहा था...जैसे
किसी क्रांति का सामना बुर्जुवा-वर्ग करता है!”
हमारे प्रिय मित्र जी हमारी प्रतिक्रिया
जानने के लिए मेरी ओर देखने लगे..और..मुझे लगा जैसे उनकी कहानी का यहाँ अंत हुआ है,
मैंने पूछा,
“इस घटना से कंडक्टर
बेचारा तो बहुत अपमानित हुआ होगा..?”
“अरे भाई..! यदि आप
अपना कोई काम कर रहे हों और आप को कोई अनायास ही लोगों के सामने गाली देने लगे तो
आपको कैसा लगेगा...?”
और फिर मेरी ओर देखते हुए बोले,
“उन युवा-शक्तियों
के जाने के बाद बस में अब शान्ति छा गयी थी...कंडक्टर बेचारा भी यात्रियों को
गिनने लगा था। लेकिन वह कुछ परेशान और खोया-खोया सा था.. एक यात्री ने कंडक्टर की
इस स्थिति को भांप कर ही जब कहा कि कंडक्टर साहब आप कुछ परेशान से हैं...वो सब बड़े
बद्तमीज थे..! तब कंडक्टर ने बस इतना कहा कि पता नहीं क्यों...” जैसे कंडक्टर यह
कहना चाह रहा हो कि आप लोग भी तो बैठे सुन रहे थे।
मित्र ने आगे जोड़ा,
“सच में यार उन
युवा-शक्तियों का व्यवहार हमें भी परेशान कर गया, कंडक्टर बेचारे की आत्मा पर क्या
गुजारी होगी... और हाँ.. तुम इन्हीं युवा-शक्तियों पर देश को बदलने का भरोसा करते
हो...?”
मैं दोस्त की बातें
सुन कर मौन रहा... फिर कुछ सोचते हुए उन्हें समझाने का प्रयास किया,
“देखिए भाई साहब वे
सब युवा थे...मस्ती के मूड में रहे होंगे...कभी-कभी हो जाता है... इस विषय पर इतना
चिंतन करने की आवश्यकता नहीं...!”
यह सुनकर मेरे मित्र ने बस इतना कहा,
“ऐसी भी क्या
मस्ती...?”
अब मैंने वातावरण
के भारीपन को अनुभव करने लगा और इसे हलका करने के प्रयास में मित्र की ओर मुखातिब
हुआ,
“बचपन में हम लोग
भी तो मस्ती किया करते थे.., हाँ...कभी-कभी दादा जी का सोटा बीच में ऐसे आ जाता कि
सारी मस्ती भूल जाया करती थी..!”
अब मैं मित्र का
चेहरा देख रहा था..मेरी बात को जैसे उन्होंने निर्विकार भाव से सुना।
अचानक मित्र महोदय
यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि कल सुबह ही उन्हें कहीं जाना है...हाँ.. इन युवा
शक्तियों पर भरोसा मत करना यह शक्ति भी विश्वसनीय नहीं है। यह सुनते ही मैंने
विनोदपूर्ण अंदाज में उनका हाथ खीचते हुए उन्हें बैठने का इशारा करते हुए कहा,
“क्यों नहीं इन
शक्तियों के बीच दादा जी का सोटा भी रखते...! और हाँ हरदम बस से ही जाते हो अब की
बार ट्रेन से भी जाकर देखो...आराम से पहुँच जाओगे...बिना किसी समस्या के..!”
यह सुनते हुए मेरी
ओर उन्होंने बड़ी गंभीरता से देखा... फिर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तिर आई...वह मुस्कुराते
हुए बोले,
“हाँ....तेरी
ट्रेन की बात पर मुझे एक घटना याद आ गयी...यार..! मैंने इससे भी जाने का प्रयास
किया है...”
आगे उन्होंने उस घटना का वर्णन करना शुरू कर दिया...
“उस दिन मैं ट्रेन
से ही तो जा रहा था, ट्रेन में बहुत भीड़ थी और गर्मी के दिन भी थे...मैंने सोचा आज
ए.सी. में चलेंगे लेकिन मेरे पास साधारण क्लास का ही टिकट था।”
“अरे इसमें कौन
बड़ी बात थी..टी.टी. से बात कर लेते...कोई न कोई खाली सीट दे देता।” उनकी बात काटते
हुए बीच में मैंने उन्हें टोका।
“टी.टी. से ही तो
मैं बात करना चाहता था..उसका मैं काफी देर तक इन्तजार भी किया..लेकिन इस बीच ट्रेन
छूटने का समय भी हो रहा था..मैंने एक लड़का..शायद वह कोच अटेंडेंट रहा होगा..हाँ..उसी
से मैं उस ए.सी. कोच में सीट की जानकारी मागी तो उसने मुझे यह कहते हुए कोच में चढ़ने का इशारा किया कि टी.टी. से 'बात' कर सीट दिला देगा। तब तक यार...ट्रेन भी चल दी थी।”
मित्र महोदय एक सांस में इतनी बाते बता डाली..उनके इस विराम स्थल पर मैंने बिना
समय गवाये प्रश्न दागा,
“तो सीट
मिली...?”
“अरे सुनिए
तो...! उस लड़के के कहने से मैं तत्काल चलती ट्रेन में चढ़ गया... उससे सीट के बारे
में पूँछा तो उसने कुछ देर रुकने के लिए कहा.. तब तक वह ट्रेन के आलमारीनुमा बॉक्स
से कम्बल हटा रहा था...उसे मैंने फिर सीट के लिए टोका..अब वह सारे कम्बल को हटा
चुका था..मुझे लगा जैसे उसने मुझे धोका दिया हो और वह मेरे लिए ही उस बड़ी सी आलमारी को ही खाली कर रहा हो... तब
तक वहाँ टी.टी. आ चुका था..उ से देखते ही मैंने अपनी समस्या बतायी.. टी.टी. ने पहले
तो मुझे घूरा फिर पूँछा कैसे इस कोच में चढ़ आए..?”
मित्र ने अर्द्ध-विराम सा लिया
तब-तक मैं पुनः पूंछ बैठा,
“हाँ...कुछ ले दे
कर सीट मिल ही गयी होगी...?”
मित्र महोदय ने
मुझे फिर घूरा..और बोले,
“हाँ..हाँ...तुम सब को अपने जैसे ही समझते हो..? बात तो पूरी सुने नहीं...”
मैं आवाक...!
लेकिन जैसे उन्होंने मेरे चेहरे का भाव पढ़ लिया हो..और बोले,
“यार बुरा मत
मानना...मेरे कहने का मतलब सब एक जैसे नहीं होते..”
मैं थोड़ा संयत
होते हुए मनोभाव को चेहरे से गायब करते हुए हम दोनों के बीच औपचारिक होते वातावरण
को अनौपचारिक मोड़ देने के प्रयास में मैंने कहा,
“अरे..तो फिर बीच
में दादा जी का सोटा आ गया होगा...!”
मेरी इस बात पर
मित्र ने कहा,
“हाँ यार..एकदम याद दिलाया..दादा जी का
सोटा नही आ गया...टी.टी. साहब तो स्वयं दादा जी के सोटा ही थे...!”
“क्या मतलब...?”
मेरे मुँह से आचानक निकला|
“मतलब यह कि जब
मैंने कहा कि इस लड़के ने ही मुझे कोच में चढ़ने के लिए कहा है... तो टी.टी. महोदय ने, जो
शायद अपनी सेवा काल के अंतिम पड़ाव पर रहे होंगे, उन्होंने उस कोच अटेंडेंट लड़के को
यह कहते हुए डपटा कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इन्हें कोच में चढ़ाने की...और
टी.टी.होंगे जिनके साथ तुम यह करते होगे..लेकिन जब मैं रहूँ तो ऐसी जुर्रत मत करना...समझे..!
फिर उन्होंने मेरी ओर देखा..”
“तो आपसे भी उस
टी.टी. ने कुछ कहा..?” मैंने मित्र की बात काटते हुए पूँछा।
“हाँ भाई....उसने
मुझसे कोई सीट खाली न होने की बात कहते हुए तुरंत इस कोच से निकल जाने के लिए
कहा...और मैं भी समझ गया कि आपके इस दादा जी के सोंटे के सामने मेरी एक नहीं चलेगी...और...वयःसंधि
वाला मैं... अपने को आपके आज के इस युवा-शक्ति और वृद्ध-शक्ति के बीच फंसा जान
धीरे से वहाँ से खिसक लेना ही उचित समझा...!”
यह कहते हुए मित्र ने मेरी ओर
मुस्कराते हुए से देखा जैसे उन्होंने अपनी कहानी समाप्त की हो।
और उधर मैं उन
यादों में खो गया था.. जब दादा जी के सोंटे से बचने के लिए उसे मडैया में खोंस कर छिपा
दिया था..! लगा जैसे उस सोंटे को पुनः खोज लाऊं और दादा जी के हाथो में पकड़ा दूं.. लेकिन अब दादा जी नहीं हैं... लगा...जैसे दादा जी टी.टी वाले ड्रेस में
गड्ड-मड्ड हो रहे हैं... ध्यान भंग हुआ तो देखा...मित्र महोदय जा चुके थे|