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शुक्रवार, 21 मार्च 2014

दादा जी का सोंटा....!


          आज मेरे मित्र महोदय बहुत दिन बाद मुझसे मिलने आये थे... लेकिन मैं उनसे बेपरवाह टेलीविजन देखने में ही व्यस्त था... वह आकर मेरे सिरहाने पड़ी कुर्सी पर बैठ चुके थे...मेरी इच्छा इस समय उनसे बात करने की नहीं थी... कारण साफ़ था...बातचीत के दौरान अकसर अपने दुख और चिंताओं का पिटारा मेरे सामने खोल दिया करते हैं...और अंत में उपदेशात्मक शैली में मुझसे बात करने लगते हैं... थकान के कारण इस समय मुझे ऐसी बातों में उनसे उलझना रुचिकर नहीं लग रहा था...लेकिन उनकी सजग उपस्थिति में मैं मौन भी नही रह सकता था...। 

            भारत को अब बदलना चाहिए.. यह वाक्य मित्र से जब मैंने टी.वी. पर नजरे गड़ाए हुए ही अचानक कही तो वह अचकचाते हुए पूँछ बैठे,

           “क्यों, क्या कोई ख़ास बात है..?”

           जैसे ही उनकी यह आवाज मेरे कानों में पड़ी मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ...तब-तक उनकी आवाज पुनः कानों में गूंजी,

           “अब क्यों बदलना चाहिए..! पहले क्यों नहीं..?” इतना कहते हुए उन्होंनें टी.वी. में चल रहे विज्ञापन की ओर देखा। शायद मेरी चोरी वह पकड़ चुके थे...और विद्रूप भाव लेकर बोले,

            “यार तुम भी अजीब आदमी हो....विज्ञापनों से इतना प्रभावित हो जाते हो...!” टी.वी. पर समाप्त होते भारतीय युवा-शक्ति संबंधी विज्ञापन को देखते हुए उन्होंने कहा और स्वभावानुसार अपने वाक्य को पूरा किया,

            “देखो ज्यादा टी.वी.-टा-वा के चक्कर में मत पड़ा करो..इससे तुम मतिभ्रम के भी शिकार हो सकते हो...क्या पहले भारत में युवा-शक्ति नहीं थी या केवल वृद्ध-शक्ति ही थी कि अब भारत को बदलना चाहिए...?” मेरे कहे का जैसे उन्होंने प्रतिवाद किया हो।  

            मुझे लगा उनके सामने यह कह कर कि “भारत को अब बदलना चाहिए..” जैसे मैंने बर्र के छत्ते को छू दिया हो क्योंकि अब उनसे बहस में उलझना ही था। 
            फिर मैंने भी छेड़ते हुए उन्हें बहस में घसीटने का प्रयास किया,

           “नहीं बात ‘अब’ की इसलिए है कि भारत अपने इतिहास के उस दौर में गुजर रहा है जब उसके पास युवाओं की संख्या सर्वाधिक है..और इसे भारत की शक्ति के रूप में देखना उचित ही है..!”

            मित्र महोदय ने मेरी बात को जैसे अनसुना कर दिया और अपने स्वाभाव के विपरीत इसे सुन कर भी इस पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी... जैसे किसी शून्य में खो से गए हों।
            मैंने अपना वार खाली जाते देख उन्हें वर्तमान का अहसास कराया,

            “क्या सोचने लगे भाई..किस बात में खो गए हो... अच्छा छोड़िए इन बातों को बताइए इतने दिन तक कहाँ रहे।”

          “नहीं कहीं खोया नहीं हूँ...।” एक गहरी सांस लेते हुए उन्होंने कहा..। 

          “थोड़ा चला गया था घर..।” जैसे उन्होंने अपना वाक्य पूरा किया।

          “हाँ यार उस दिन जब मैं बस से घर जा रहा था न..” जैसे उन्हें कुछ याद आया हो.. फिर चुप हो गए..लेकिन मेरा ध्यान अपनी ओर केन्द्रित कर चुके थे...।
         मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रहा था...बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने पूँछा,

         “हाँ..क्या कहा...बस से घर जा रहे थे...?”

         “हाँ मेरे भाई..! बस से ही उस दिन घर जा रहे था...रात में चला था..।” मेरी ओर देखते हुए कहा। 

         फिर आगे जैसे कहानी कहना शुरू कर दिया...
         “ये बस वाले भी बसों का रख-रखाव ठीक से नहीं करते...रास्ते में बस की टंकी फट गयी सारा तेल बह गया..गनीमत रही आग नहीं लगी..नहीं तो ...”
इतना बोल वह चुप हो गए...

         मैं ताड़ गया था कि मित्र महोदय की बात अभी पूरी नहीं हुई है..और बात मात्र बस की टंकी फटने तक ही सीमित नहीं है। बात बढ़ाने के अंदाज में मैंने कहा,

         “यह सब तो होता रहता है...क्या करेंगे...?”

         “हाँ...नहीं भाई...बात यह नहीं है...उस दिन बस में हम ठीक से सो भी नहीं पाए...हमें दूसरी बस में बैठाया गया था..यह थोड़ी दूर आगे बढ़ी थी कि कुछ अन्य लोग भी उसमें सवार हुए थे..यही कोई. चार-पाच युवा-शक्ति रही होगी...।” कहते हुए मेरी ओर जैसे व्यंगात्मक दृष्टि से देख रहे थे...मेरा अनुमान सही था..बात कुछ और ही थी....

          फिर आचानक तल्ख़ स्वर में बोले,

          “सब साले नौजवान थे....तीन लोग आगे जाकर ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठ गए और दो..शायद दो ही थे...जाकर पीछे बैठ गए..”

          फिर जैसे कुछ याद करते हुए उन्होंने कहना शुरू किया,

          “आगे बैठने वाले युवा अन्त्याकक्षरी लड़ा रहे थे तो पीछे बैठने वाला साला शराब के नशे में झूमता अनाप-शनाप गाली बके जा रहा था... बस में बैठी महिलायें बेचारी बड़ी असहज महसूस कर रही थीं.. एक युवा उसे गाली देकर चुप करने का प्रयास कर रहा था..जैसे बस में हुडदंग मचा हो..! सोने का प्रयास करता तो नींद खुल जाती...।”

          अपनी आपबीती सुनाना उन्होंने जारी रखा..

          “तब-तक दूर सड़क पर बस की हेडलाईट में एक-दो ट्रक और दो-एक छोटी गाड़ियां आड़ी-तिरछी खड़ी हुई दिखाई दी...मैंने सोचा अब कौन सी बला आ गई..? कहीं सड़क पर जाम तो नहीं लगा है...? और पास पहुँचने पर स्पष्ट हुआ कि कोई छोटी-मोटी दुर्घटना घटित हुई थी...शायद इसी कारण कुछ लोग आपस में बहस में उलझे दिखाई दिए...हमारे बस का ड्राइवर बस को सड़क किनारे के खाली स्थान से निकलने का प्रयास करने लगा...”

            यह कह वह चुप हो गए..और मेरी ओर देखने लगे..शायद यह सोचकर कि मैं उन्हें सुनने के लिए गंभीर हूँ या नहीं..., लेकिन मेरी गंभीरता भांपते ही फिर बोले,

           “जानते हो.., जब ड्राइवर बस को उस सड़क की पटरी के संकरे भाग से निकालने का प्रयास कर रहा था तो उसके पास बैठे तीनों युवा आचानक अपनी सीट से ड्राइवर से बस रोकने की बात कहते हुए उठ खड़े हुए...और बस के दरवाजे की ओर बढे।” हम दोनों के बीच क्षणिक चुप्पी छा गयी। 

          छाई चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से मैंने पूँछा, “क्या ड्राइवर ने बस रोकी..?”

          कहानी के प्रति मेरी जिज्ञासा सिद्ध होने पर कहानी को उन्होंने आगे बढाया,

          “नहीं.. बस-कंडक्टर अपनी सीट से खड़ा हो बस के बंद-दरवाजे पर दरवाजा न खोलने के अंदाज में हाथ रखते हुए उन तीनों युवाओं से पूँछा कि भाई आप लोग क्यों उतरना चाहते हो..? तो जानते हो.. उन लोगों ने कंडक्टर से क्या कहा...?”

           मेरी ओर देखते हुए मित्र महोदय फिर बोले..

           “उनमें से एक बोला..., देख नहीं रहे हो बाहर मार हो रही है..., इस पर कंडक्टर ने कहा कि मार हो रही है तो आप लोगों से क्या मतलब.., आप क्यों उतरना चाहते हैं..? तो उनमें से दूसरी युवा-शक्ति ने कंडक्टर की ओर मुखातिब होते हुए कहा कि अबे...----के...सा....ले.. हमें भी नीचे जाकर मार करनी है... और इसी तरह उस कंडक्टर को भद्दी गालियाँ देते हुए कहा कि रूकवाते हो कि नहीं बस.. या फिर पहले तुम्हीं पर शुरू हो जाएँ...कंडक्टर बेचारा हक्का-बक्का.. ड्राइवर से तत्काल बस रोकने के लिए कह दिया...सभी बस-यात्री सहमे हुए से थे।”

          हाँ...मित्र की एक बात का मैंने नोटिस लिया कि ‘युवा-शक्ति’ शब्द का उच्चारण बड़े व्यंग्यात्मक अंदाज में वे कर रहे थे..अब मैं आगे की घटना जानने की उत्सुकता ले दोस्त से एक बच्चे की तरह पूंछ बैठा,

          “फिर आगे क्या हुआ..”

          “हुआ क्या..बस रुकी..वे उतर गए फिर तीन-चार मिनट बाद वापस आए..और अपनी सीट पर बैठते हुए ड्राइवर से चलने के लिए कहा...और बस चल पड़ी..और उधर पीछे बैठा वह शराबी ‘युवा-शक्ति’ अनाप-शनाप बोलते जा रहा था। हाँ.… इस बीच कंडक्टर बेचारे का चेहरा उतरा हुआ था और वह चुप था।”

          मेरी ओर देखते हुए अपनी कहानी उन्होंने फिर आगे बढाई,

          “पंद्रह-बीस मिनट बाद वे सभी युवा-शक्ति ड्राइवर से बस रोकने की बात कह अचानक उठ खड़े हुए शायद उनका गंतव्य आ गया था... वे ‘युवा-शक्ति’ कंडक्टर से यह कहते हुए बस से उतरे कि ज्यादा मत बोला करो नहीं तो गिरा देंगे।” “बेचारा कंडक्टर अनायास ही अपने को अपमानित महसूस करते हुए ‘युवा-शक्ति’ के जोश को शांत भाव से सहन कर रहा था...जैसे किसी क्रांति का सामना बुर्जुवा-वर्ग करता है!”

         हमारे प्रिय मित्र जी हमारी प्रतिक्रिया जानने के लिए मेरी ओर देखने लगे..और..मुझे लगा जैसे उनकी कहानी का यहाँ अंत हुआ है, मैंने पूछा,

         “इस घटना से कंडक्टर बेचारा तो बहुत अपमानित हुआ होगा..?”

         “अरे भाई..! यदि आप अपना कोई काम कर रहे हों और आप को कोई अनायास ही लोगों के सामने गाली देने लगे तो आपको कैसा लगेगा...?”
और फिर मेरी ओर देखते हुए बोले,

         “उन युवा-शक्तियों के जाने के बाद बस में अब शान्ति छा गयी थी...कंडक्टर बेचारा भी यात्रियों को गिनने लगा था। लेकिन वह कुछ परेशान और खोया-खोया सा था.. एक यात्री ने कंडक्टर की इस स्थिति को भांप कर ही जब कहा कि कंडक्टर साहब आप कुछ परेशान से हैं...वो सब बड़े बद्तमीज थे..! तब कंडक्टर ने बस इतना कहा कि पता नहीं क्यों...” जैसे कंडक्टर यह कहना चाह रहा हो कि आप लोग भी तो बैठे सुन रहे थे।  

         मित्र ने आगे जोड़ा,

         “सच में यार उन युवा-शक्तियों का व्यवहार हमें भी परेशान कर गया, कंडक्टर बेचारे की आत्मा पर क्या गुजारी होगी... और हाँ.. तुम इन्हीं युवा-शक्तियों पर देश को बदलने का भरोसा करते हो...?”

          मैं दोस्त की बातें सुन कर मौन रहा... फिर कुछ सोचते हुए उन्हें समझाने का प्रयास किया,

          “देखिए भाई साहब वे सब युवा थे...मस्ती के मूड में रहे होंगे...कभी-कभी हो जाता है... इस विषय पर इतना चिंतन करने की आवश्यकता नहीं...!”

यह सुनकर मेरे मित्र ने बस इतना कहा,

          “ऐसी भी क्या मस्ती...?”

          अब मैंने वातावरण के भारीपन को अनुभव करने लगा और इसे हलका करने के प्रयास में मित्र की ओर मुखातिब हुआ,

          “बचपन में हम लोग भी तो मस्ती किया करते थे.., हाँ...कभी-कभी दादा जी का सोटा बीच में ऐसे आ जाता कि सारी मस्ती भूल जाया करती थी..!”

           अब मैं मित्र का चेहरा देख रहा था..मेरी बात को जैसे उन्होंने निर्विकार भाव से सुना। 

           अचानक मित्र महोदय यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि कल सुबह ही उन्हें कहीं जाना है...हाँ.. इन युवा शक्तियों पर भरोसा मत करना यह शक्ति भी विश्वसनीय नहीं है। यह सुनते ही मैंने विनोदपूर्ण अंदाज में उनका हाथ खीचते हुए उन्हें बैठने का इशारा करते हुए कहा,

           “क्यों नहीं इन शक्तियों के बीच दादा जी का सोटा भी रखते...! और हाँ हरदम बस से ही जाते हो अब की बार ट्रेन से भी जाकर देखो...आराम से पहुँच जाओगे...बिना किसी समस्या के..!”

           यह सुनते हुए मेरी ओर उन्होंने बड़ी गंभीरता से देखा... फिर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तिर आई...वह मुस्कुराते हुए बोले,

           “हाँ....तेरी ट्रेन की बात पर मुझे एक घटना याद आ गयी...यार..! मैंने इससे भी जाने का प्रयास किया है...”
          आगे उन्होंने उस घटना का वर्णन करना शुरू कर दिया... 

           “उस दिन मैं ट्रेन से ही तो जा रहा था, ट्रेन में बहुत भीड़ थी और गर्मी के दिन भी थे...मैंने सोचा आज ए.सी. में चलेंगे लेकिन मेरे पास साधारण क्लास का ही टिकट था।”

           “अरे इसमें कौन बड़ी बात थी..टी.टी. से बात कर लेते...कोई न कोई खाली सीट दे देता।” उनकी बात काटते हुए बीच में मैंने उन्हें टोका। 

            “टी.टी. से ही तो मैं बात करना चाहता था..उसका मैं काफी देर तक इन्तजार भी किया..लेकिन इस बीच ट्रेन छूटने का समय भी हो रहा था..मैंने एक लड़का..शायद वह कोच अटेंडेंट रहा होगा..हाँ..उसी से मैं उस ए.सी. कोच में सीट की जानकारी मागी तो उसने मुझे यह कहते हुए कोच में चढ़ने का इशारा किया कि टी.टी. से 'बात' कर सीट दिला देगा। तब तक यार...ट्रेन भी चल दी थी।” मित्र महोदय एक सांस में इतनी बाते बता डाली..उनके इस विराम स्थल पर मैंने बिना समय गवाये प्रश्न दागा,

            “तो सीट मिली...?”

            “अरे सुनिए तो...! उस लड़के के कहने से मैं तत्काल चलती ट्रेन में चढ़ गया... उससे सीट के बारे में पूँछा तो उसने कुछ देर रुकने के लिए कहा.. तब तक वह ट्रेन के आलमारीनुमा बॉक्स से कम्बल हटा रहा था...उसे मैंने फिर सीट के लिए टोका..अब वह सारे कम्बल को हटा चुका था..मुझे लगा जैसे उसने मुझे धोका दिया हो और वह मेरे लिए ही उस बड़ी सी आलमारी को ही खाली कर रहा हो... तब तक वहाँ टी.टी. आ चुका था..उ से देखते ही मैंने अपनी समस्या बतायी.. टी.टी. ने पहले तो मुझे घूरा फिर पूँछा कैसे इस कोच में चढ़ आए..?”
मित्र ने अर्द्ध-विराम सा लिया तब-तक मैं पुनः पूंछ बैठा,

           “हाँ...कुछ ले दे कर सीट मिल ही गयी होगी...?”

           मित्र महोदय ने मुझे फिर घूरा..और बोले,

           “हाँ..हाँ...तुम सब को अपने जैसे ही समझते हो..? बात तो पूरी सुने नहीं...”

           मैं आवाक...! लेकिन जैसे उन्होंने मेरे चेहरे का भाव पढ़ लिया हो..और बोले,

           “यार बुरा मत मानना...मेरे कहने का मतलब सब एक जैसे नहीं होते..”

           मैं थोड़ा संयत होते हुए मनोभाव को चेहरे से गायब करते हुए हम दोनों के बीच औपचारिक होते वातावरण को अनौपचारिक मोड़ देने के प्रयास में मैंने कहा,

           “अरे..तो फिर बीच में दादा जी का सोटा आ गया होगा...!”

           मेरी इस बात पर मित्र ने कहा,

           “हाँ यार..एकदम याद दिलाया..दादा जी का सोटा नही आ गया...टी.टी. साहब तो स्वयं दादा जी के सोटा ही थे...!”

           “क्या मतलब...?” मेरे मुँह से आचानक निकला|

           “मतलब यह कि जब मैंने कहा कि इस लड़के ने ही मुझे कोच में चढ़ने के लिए कहा है... तो टी.टी. महोदय ने, जो शायद अपनी सेवा काल के अंतिम पड़ाव पर रहे होंगे, उन्होंने उस कोच अटेंडेंट लड़के को यह कहते हुए डपटा कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इन्हें कोच में चढ़ाने की...और टी.टी.होंगे जिनके साथ तुम यह करते होगे..लेकिन जब मैं रहूँ तो ऐसी जुर्रत मत करना...समझे..! फिर उन्होंने मेरी ओर देखा..”

         “तो आपसे भी उस टी.टी. ने कुछ कहा..?” मैंने मित्र की बात काटते हुए पूँछा। 

         “हाँ भाई....उसने मुझसे कोई सीट खाली न होने की बात कहते हुए तुरंत इस कोच से निकल जाने के लिए कहा...और मैं भी समझ गया कि आपके इस दादा जी के सोंटे के सामने मेरी एक नहीं चलेगी...और...वयःसंधि वाला मैं... अपने को आपके आज के इस युवा-शक्ति और वृद्ध-शक्ति के बीच फंसा जान धीरे से वहाँ से खिसक लेना ही उचित समझा...!”
         यह कहते हुए मित्र ने मेरी ओर मुस्कराते हुए से देखा जैसे उन्होंने अपनी कहानी समाप्त की हो। 

           और उधर मैं उन यादों में खो गया था.. जब दादा जी के सोंटे से बचने के लिए उसे मडैया में खोंस कर छिपा दिया था..! लगा जैसे उस सोंटे को पुनः खोज लाऊं और दादा जी के हाथो में पकड़ा दूं.. लेकिन अब दादा जी नहीं हैं... लगा...जैसे दादा जी टी.टी वाले ड्रेस में गड्ड-मड्ड हो रहे हैं... ध्यान भंग हुआ तो देखा...मित्र महोदय जा चुके थे|

मंगलवार, 18 मार्च 2014

आप किस कैटेगरी में हैं....!

                आज वह टी वी पर नए-नए बने  मंत्रिमंडल का शपथ-ग्रहण समारोह देख रहा था। साथ में ही उसके एक पुराने मित्र...जो उसके बालसखा थे.. बैठे थे। अभी-अभी जो मंत्री शपथ लेकर गया है; उसने 'ईश्वर' की शपथ लेकर कर्तव्य निर्वहन की बात कही। वहीँ दूसरे ने 'सतयनिष्ठा' की शपथ ली।
              इसी बीच साथ बैठे  मित्र ने पूँछा ,
             "अरे तुम क्या देख रहे हो"
             "मंत्रियों का शपथ-ग्रहण समारोह " उसने कहा। 
             "अरे ; वह तो मैं भी देख रहा हूँ" मित्र ने उसकी ओर देखते हुए कहा। 
             "लेकिन इसमें तुमने कोई खास बात देखी ?" उसने मित्र की ओर जैसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। 
             "यार ऐसे बोल रहे हो जैसे इस शपथ-ग्रहण में भी कोई रहस्य हो... अरे जिसको मन्त्री बनाना था बना दिया गया आगे जो असंतुष्ट होंगे सरकार फिर विस्तार करेगी।" मित्र महोदय ने कहते हुए रहस्य भरी निगाहों से उसकी ओर देखा।
           "अच्छा ये बताओ क्या तुमने इस पर ध्यान दिया ! कुछ मंत्री 'ईश्वर' का तो कुछ ने 'सत्यनिष्ठा' की शपथ ली है।" यह कहते हुए उसने मित्र की  ओर  मुस्कुराते हुए देखा।
            "हाँ यार सुना तो मैंने भी इसे....लेकिन इसमें कौन सी खास बात...?" अब मित्र ने जिज्ञासा पूर्वक उसकी ओर निहारा।
            "क्या तुम 'ईश्वर' और ' सत्यनिष्ठा' जैसे शब्दों के प्रयोग के अंतर को समझ रहे हो।" जैसे वह मित्र को कुछ समझाना चाहता हो।
             "अरे भाई आप हमे इतना नासमझ मानते हो.... ?"  मित्र ने थोड़ी झल्लाहट में कहा। आगे फिर जोड़ा,
             "ईश्वर' की शपथ लेने वाला आस्तिक या कहें ईश्वरवादी है और 'सत्यनिष्ठा' कि शपथ लेने वाला एक तरह से कहें तो नास्तिक या फिर मूर्तिपूजा में विश्वास न रखता हो...!" कहते हुए मित्र महोदय ने उसकी ओर देखा ..और आचानक जैसे उन्हें कुछ सूझा लगभग उछलते हुए से फिर बोले,
              "अच्छा... इसमें नेताओं की भी राजनीति हो सकती है...! कुछ अपने को सेकुलर दिखाना चाह रहे हों इसीलिए 'ईश्वर' के स्थान पर 'सत्यनिष्ठ' की शपथ ले रहे हैं..!" मित्र महोदय ने संतोष भरी निगाहों से उसे देखा।
              लेकिन अब भी वह शांत था जैसे मित्र के उत्तर का उस पर कोई प्रभाव न पड़ा हो... मित्र ने अपने उत्तर का कोई प्रभाव उस पर न पड़ता देख पूँछ ही बैठे,
               "अच्छा तुम्हीं कोई अपनी थीसिस बताओ..."
              "देखो भाई जो मै बताना चाहता हूँ यह मेरी अपनी मान्यता है...तुम्हें इसे मानने या न मानने की स्वतंत्रता है..." उसने कहा।
               "हाँ-हाँ...अपनी ही मान्यता बताओ तुम...." मित्र ने छूटते ही कहा।
               "मेरे हिसाब से, लगता है कि जो 'सत्यनिष्ठ' की शपथ ले रहा है वह अपने कर्तव्य-निर्वहन के प्रति अधिक उत्तरदायी और संवेदनशील है...और जो 'ईश्वर' कि शपथ ले रहा है उसके बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता कि वह सौंपे गए दायितों का निर्वहन किस तरह से करेगा...हाँ प्रतीत होता है कि वह अपने लिए सभी विकल्पों को खुला रखना चाहता है..." मुस्कुराते हुए उसने एक साँस में कहा।
                "क्या मतलब...? ईश्वर से भी बढ़ कर भी कोई चीज हो सकती है..? और फिर ईश्वर और सत्य में भेद क्या..?" मित्र ने कहा।
               "भई देखो मेरा दृष्टिकोण तो यही है कि इसमें अंतर है..." उसने मित्र से दृढ़तापूर्वक कहा।
                "वह कैसे.." मित्र ने जिज्ञासु बच्चे कि तरह पूंछा।
                "देखो तुम कहते हो न कि इश्वर सर्वत्र है और सब कुछ ईश्वर में है...या समस्त ब्रह्मांड ईश्वर का ही स्वरुप है... "  उसने कहा।
                "हाँ..हाँ.. ईश्वर मानने की अवधारणा में ही यह निहित है कि भगवान् अनंत और व्यापक है अर्थात सब कुछ ईश्वर में है और ईश्वर सब कुछ है..."  जैसे मित्र ने ईश्वर नामक जीव कि व्याख्या की हो|
                 "हाँ यही तो मैं भी कहना चाहता था.." वह धीरे से मुस्कुराया।
                 "तो फिर इसमें कौन सी बात हुई..." मित्र ने पूंछा।
                 "बात है....जानते हो..! 'सत्य' केवल सत्य होता है..असत्य कभी नहीं....या तो कोई चीज सत्य होगी या फिर असत्य...दोनों एक साथ नहीं हो सकती....जबकि ईश्वर में सत्य और असत्य दोनों विद्यमान है...!"
                    फिर उसने कहा...,
                 "अर्थात...'सत्य' में सत्य के सिवा और  कोई विकल्प नहीं होता जबकि ईश्वर तो अनंत विकल्पों का मार्ग है..."
                 "ओह...! तो तुम्हारी सोच यहाँ पहुँच गयी..." मित्र ने आश्चर्यमिश्रित अंदाज में कहा|
                 "यही कारण है भइये..! शपथ लेने वाले मंत्रियों के मनोविज्ञान को समझ रहा हूँ..! सत्यनिष्ठा कि शपथ लेने वाले अपने लिए अन्य विकल्पों का रास्ता बंद कर दे रहे हैं; जबकि ईश्वर कि शपथ लेने वाले अपने लिए अनंत विकल्पों का मार्ग खुला रखना चाहते हैं..." इतना कहते हुए उसकी मुस्कुराहट हंसी में बदलने लगी।
                  "अच्छा..! मेरी समझ में अब आया कि क्यों तुमने उनके कर्तव्य निर्वहन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखे.." आगे मित्र ने फिर जोड़ा, "ईश्वर तो अनंत विकल्पों का मार्ग है.. वाह क्या परिभाषा गढ़ी है तुमने...!" अब मैं चुप था।
                   मित्र महोदय ने आगे फिर जोड़ा,
               "हाँ भाई इस आधार पर ईश्वर की शपथ लेने वाले की गलतियों को तो मैं माफ़ कर सकता हूँ क्योंकि वह तो अनंत विकल्पों का मार्ग लेकर मन्त्री पद ग्रहण कर रहा है... लेकिन सत्यनिष्ठा की शपथ लेने वालों को मैं माफ़ नहीं कर सकता क्योंकि फिर वे निरे ढोंगी होंगे..." अब मित्र महोदय के हँसने की बारी थी...
                     उसने डरते-डरते मित्र महोदय से धीरे से पूँछा...,
                "फिर... आप...किस कैटेगरी में हैं...." और दोनों एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़े।
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सोमवार, 17 मार्च 2014

"सदा आनंद रहई यह द्वारे मोहना..., मोहन खेलई फागलाल मन मोहना..."

                                                                                  ...स्मृति शेष 
              आज होली है...! पर..., पता नहीं क्यों.. मन होली से बहुत दूर है... बचपन से लेकर कई सालों पूर्व तक गाँव में मनाई गयी होली पर ध्यान अटक जाता है....हाँ..,वह कैसी निश्चिन्तता भरी होली होती थी...! महीनों से चलने वाले "फगुआ गीत" का आज के दिन जैसे उत्साह भरे हुडदंग के साथ दरवाजे-दरवाजे
घूम-घूम कर यह गाते हुए..."सदा आनंद रहई यंह द्वारे मोहना..मोहन खेलई...," उसका समापन होता था...! ढोलक कि तेज होती थापों के बीच पड़ती रंगों कि बौछारें..! हाँ..इसी बीच पता चलता कि मामा (हाँ हम बच्चे उन्हें मामा ही कहते थे) को कुछ लोगों ने हाथ और पैर से पकड़ लगभग झुलाते हुए कीचड़ में फेंक दिया है...! बड़े-छोटे का भेद मिट जाता...बिना राग-द्वेष का यह जीवनोत्सव मन को एक नए उमंग से भर देता...जो आगामी वर्ष तक जीने की उर्जा देता रहता...
          लेकिन पता चल रहा है गाँव में भी वह उत्साह नहीं रह गया है...होलिका-दहन के लिए गाँव सभा की सुरक्षित सी वह जमीन भी कब्ज़ा कर के बेंच दी गयी है..आज वहां बड़ी सी बाउंड्रीवाल खड़ी कर दी गयी है...! समूह में खड़े होने की जगह तक नहीं बची है... और तो और...प्रधानी के चुनाव ने भी तो गाँववासियों के बीच बड़ा वैमनस्य फैला दिया है...! कैसे उनके साथ खड़े हो...! कहीं हमें उस पार्टी का और कहीं इस पार्टी का न समझ लिया जाए...अरे..! ...उसने तो हमारी ही जमीन को तहसील में तीन-पांच कर अपने नाम करा के कब्ज़ा कर लिया है...और... वह इतना बड़ा आदमी कैसे बन गया है...! ..मैं उसके साथ क्यों खड़ा होऊँ.....! बड़े-छोटे के बीच कि खांई का गहरा होता अहसास....! आदि-आदि जैसे प्रश्न शायद लोगों को मथ रहे हैं...! तभी तो गाँव कि होली अब सूनी सी हो गयी है...! शायद हमारे गावों कि अब यही कहानी हो चुकी है.....
          हाँ...अब हम अकेले ही अपने हिस्से की होली मना रहे हैं...अपने-अपने हिस्से की इस होली के लिए सभी को यह कहते हुए हार्दिक बधाई..."सदा अनंद रहई यंह द्वारे मोहना..., मोहन खेलई फाग लाल मन मोहना...."