मैं बस में सीट ले चुका था...खिड़की से देखा…ठेले पर मूंगफली वाला मूँगफली को कड़ाही में कहुल रहा था...। बस के चलने में अभी थोड़ा समय अवशेष था...मन में आया चलो जब-तक बस नहीं चलती है तब-तक मूँगफली को ही तोड़ा जाए...! ठेले वाले से ठोंगे में मूँगफली खरीदा और वापस आकर बस में पुनः अपनी सीट पर बैठ गया...। एक बात है...मैं अकसर बस में मूंगफली ठोंगे में ही लेना पसंद करता हूँ...। इसके पीछे विशेष कारण यह होता है कि मूंगफली तोड़ते समय मैं उसी ठोंगे में उसके छिलकों को भी रखता जाता हूँ...और मूंगफली समाप्त होने के बाद चलती बस की खिड़की से छिलकों सहित उस ठोंगे को मैं किसी सूनसान स्थान पर फेंक देता हूँ...। आज-कल यह काम और महत्वपूर्ण हो गया है.…! स्वच्छता अभियान जो चलाया जा रहा है.…! हालांकि...अभी तक मैंने कोई झाड़ू नहीं लगाया है और न ही मुझसे किसी ने झाड़ू लगवाया हैं.… इतना महत्वपूर्ण भी नहीं हूँ और न ही किसी के लिए प्रेरणाश्रोत बनने की क्षमता है.…कि...कहीं फोटो छप जाए और झाडू लगाने की क्रान्ति आ जाए.…! एक बात और है...गंदगी फैलाने वालों का बहुमत इस तरह का है कि यदि झाडू लगाते कोई देखे तो या तो सिरफिरा मानेगा या फिर पागल…! और इस झाडू लगाने के चक्कर में दो-चार गाली भी मिल जाएगी.…लोग मान लेंगे कि बड़ा चालाक है गंदगी कर फिर झाडू लगाने का नाटक करता है...और...इस चक्कर में लेने के देने पड़ जायेंगे सो अलग…!
हाँ तो.… झाडू तो नहीं लगाता लेकिन इस बात का ध्यान रखने की कोशिश करता हूँ कि किसी को मेरे चक्कर में झाड़ू न लगाना पड़े.…! और इसी सोच के प्रभाव में मैं ठोंगे से मूंगफली ले उसी ठोंगे में उसके छिलकों को रखता जाता हूँ.…इस काम में मुझे छुपा-छुपाई खेल जैसा मजा भी आता-जाता है.…यह कि...जैसे-जैसे ठोंगे में मूंगफली कम होती जाती है वैसे-वैसे बेचारी मूंगफलियाँ ठोंगे में छिलकों के ढेर में छिपने का प्रयास करती जाती हैं ...लेकिन...एक-एक कर आखिर तक मैं उन्हें खोजता जाता हूँ.…!
बस अभी तक चली नहीं थी.…बस में बैठे-बैठे हाथ में ठोंगे लिए छिलकों के ढेर में से मैं मूंगफली ढूढ़ रहा था.! तभी किसी ने बस के बाहर से मेरी खिड़की पर ठक-ठक की आवाज की...मैंने उस पर एक उड़ती हुई निगाह डाली....हाँ वह कोई भिखमंगा ही था.…! उसकी आवाज भी सुनाई पड़ी.… "बाबूजी…" मैंने ध्यान नहीं दिया...।..सोचा.. "होगा भिखमंगा.…इनकों भींख देकर भींख माँगने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना उचित नहीं होगा…भगवान ने हाथ पैर दिए हैं यह मेहनत कर क्या काम नहीं कर सकता? जो बेचारे काम कर पैसा कमाते है.…इसे भींख देना...उन बेचारों का क्या अपमान अपमान नहीं होगा...?" "बाबूजी… ई… ई…" भिखमंगे की आवाज मुझे फिर सुनाई दी... "तो अभी यह गया नहीं...मैं ठोंगे में मूंगफली खोज रहा हूँ और यह सोच रहा होगा कि इसे देने को मैं सिक्के खोज रहा हूँ...शायद इसी लिए यह अभी तक खड़ा है...! ..हो सकता है यह वाकई में भिखमंगा ही हो..कोई काम करने लायक न हो...!" यही सोचते-सोचते मैंने पुनः उस पर एक गहरी दृष्टि डाली... "अरे...यह तो वास्तव में भिखमंगा ही है..." फिर मैं अपने बटुवे में से कुछ सिक्कों के बीच में से एक रुपये का सिक्का खोजने लगा...एक सिक्का बहुत सावधानी बरतते हुए यह सोचते हुए बटुवे में से निकाला कहीं यह दो का सिक्का न हो...और खिड़की से बाहर हाथ निकाल रस्म अदायगी करते उसके बर्तन में डाल दिया...खन्न...! एक सिक्का न देना पड़े इसके लिए मैंने सारे तर्क खोज लिए थे...!
भिखमंगा चला गया...मैंने देखा एक हट्टा-कट्टा तीस-पैंतीस साल का व्यक्ति मेरी बस में चढ़ रहा था चेहरे से वह किसी उग्रवादी से कम नहीं लग रहा था..! तभी बस भी चल पड़ी..इधर ठोंगे में मूंगफली भी ख़तम हो चुकी थी... केवल छिलके ही बचे थे..अब मैं छिलके सहित इस ठोंगे को बस से बहार फेंकने की फिराक में पड़ गया...तभी बस ड्राइवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी... "चलो-चलो तुरंत उतरो..." और वह जीर्ण-शीर्ण काया में अधेड़ भिखमंगिन सी महिला...! ड्राइवर से कुछ कहते हुए गिड़गिड़ाए जा रही थी...! ड्राइवर की आवाज कानों में फिर गूँजी... "जाओ कंडक्टर से पूँछो..." इधर कंडक्टर यात्रियों के टिकट बना रहा था...वह महिला कंडक्टर के पास आ गयी....कंडक्टर ने उसे देखते ही पूँछा, "क्या बात है..कहाँ जाना है...?" उस भिखारिन सी महिला ने किसी स्थान का नाम बताया..इस पर कंडक्टर ने उससे टिकट बनवाने के लिए कहा। वह फिर कंडक्टर से फिर गिड़गिड़ाने लगी...और अपनी धोती...हाँ साड़ी नहीं...के एक किनारे की छोटी सी गाँठ खोलने लगी...शायद वह बताना चाह रही थी कि उसके पास पैसा ही नहीं है...तब तक उसकी गाँठ खुली शायद दस के एक-दो नोट ही थे...और उसे दूर जाना था...उसके इस गाँठ में टिकट के पर्याप्त पैसे नहीं थे...!
कंडक्टर उस औरत से चिल्लाया, "उतरो....तुरंत उतरो..." और यह कहते हुए उसने ड्राइवर से बस रोकने के लिए भी कह दिया...ड्राइवर ने बस को धीमी करना शुरू कर दिया...अब वह महिला जोर-जोर से गिड़गिड़ाने के अंदाज में चिल्लाने लगी...! सभी यात्रियों का ध्यान उस पर चला गया...हाँ..वह गिड़गिड़ाए जा रही थी...लेकिन उतरने के लिए तैयार नहीं थी...! अब वह बस यात्रियों से शायद यह कहना चाह रही थी कि कोई उसका टिकट बनवा दे...लेकिन सभी यात्री मौन थे..! इधर उसकी दशा देख मन ने सोचना शुरू किया... "यह औरत कहीं पागल तो नहीं...देखने से तो पागल नहीं लगाती...क्या वाकई गरीब है..? इतनी ही गरीब है तो कम से कम बिना पैसों के उसे इस सरकारी बस में नहीं चढ़ना चाहिए...अरे...! ये लोग बहुत चालाक होते हैं...क्या इसके पास पैसा नहीं होगा...? नाटक कर पैसा बचाती होगी इसी तरह...भाड़े बचाने की चाल है इसकी...! फिर यह तो ऐसी लगती है..कि...इसे इतनी दूर यात्रा करने की क्या जरुरत...?" आदि-आदि ऐसे ही तर्क मैं मन ही मन गढ़ता जा रहा था..और उस गरीब महिला के प्रति मन में उमड़ने वाली सदाशयता को इन तर्कों के ढेर से दबाता जा रहा था...इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में गढ़े इन तर्कों की ही विजय हुई...और मन ही मन मैंने निश्चय कर लिया कि ऐसे लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए...!
कंडक्टर की आवाज फिर सुनाई पड़ी, “यह सरकारी बस है...बिना किराए दिए हम नहीं ले जायेंगे...क्या हमें नौकरी गँवानी है..? पता नहीं कहाँ-कहाँ से कैसे लोग चढ़ आते हैं..,?” और उसने ड्राइवर से बस रोकने की लिए फिर कहा..! वह भिखमंगिन सी महिला रुवांसी हो जोर-जोर से चिल्लाने लगी...! तभी पीछे से एक आवाज आई... "अरे..कंडक्टर इसे मत उतारो...मैं टिकट के पैसे दे दूंगा...कितना हुआ...?" फिर उस व्यक्ति ने अपने और उस महिला के टिकट बनवाये...! कंडक्टर बोला, “अरे भाई दया तो मुझमें भी है..लेकिन नियम कायदे से बंधा हूँ...दस-पांच की बात होती तो किसी तरह लिए चलता...सौ की बात है...नौकरी खतरे में पड़ सकती थी...” कहते हुए वह फिर टिकट काटने में व्यस्त हो गया...। तब-तक बस शहर से बाहर आ चुकी थी...मैंने चलती बस से एक सूनसान स्थान देखकर मूंगफली के छिलकों सहित उस ठोंगे को बस की खिड़की से बाहर यह सोचते हुए फेंक दी...कि...चलों इसी तरह सफाई अभियान में मेरा यह तुच्छ प्रयास भी समर्पित हो...!
हाँ तो.… झाडू तो नहीं लगाता लेकिन इस बात का ध्यान रखने की कोशिश करता हूँ कि किसी को मेरे चक्कर में झाड़ू न लगाना पड़े.…! और इसी सोच के प्रभाव में मैं ठोंगे से मूंगफली ले उसी ठोंगे में उसके छिलकों को रखता जाता हूँ.…इस काम में मुझे छुपा-छुपाई खेल जैसा मजा भी आता-जाता है.…यह कि...जैसे-जैसे ठोंगे में मूंगफली कम होती जाती है वैसे-वैसे बेचारी मूंगफलियाँ ठोंगे में छिलकों के ढेर में छिपने का प्रयास करती जाती हैं ...लेकिन...एक-एक कर आखिर तक मैं उन्हें खोजता जाता हूँ.…!
बस अभी तक चली नहीं थी.…बस में बैठे-बैठे हाथ में ठोंगे लिए छिलकों के ढेर में से मैं मूंगफली ढूढ़ रहा था.! तभी किसी ने बस के बाहर से मेरी खिड़की पर ठक-ठक की आवाज की...मैंने उस पर एक उड़ती हुई निगाह डाली....हाँ वह कोई भिखमंगा ही था.…! उसकी आवाज भी सुनाई पड़ी.… "बाबूजी…" मैंने ध्यान नहीं दिया...।..सोचा.. "होगा भिखमंगा.…इनकों भींख देकर भींख माँगने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना उचित नहीं होगा…भगवान ने हाथ पैर दिए हैं यह मेहनत कर क्या काम नहीं कर सकता? जो बेचारे काम कर पैसा कमाते है.…इसे भींख देना...उन बेचारों का क्या अपमान अपमान नहीं होगा...?" "बाबूजी… ई… ई…" भिखमंगे की आवाज मुझे फिर सुनाई दी... "तो अभी यह गया नहीं...मैं ठोंगे में मूंगफली खोज रहा हूँ और यह सोच रहा होगा कि इसे देने को मैं सिक्के खोज रहा हूँ...शायद इसी लिए यह अभी तक खड़ा है...! ..हो सकता है यह वाकई में भिखमंगा ही हो..कोई काम करने लायक न हो...!" यही सोचते-सोचते मैंने पुनः उस पर एक गहरी दृष्टि डाली... "अरे...यह तो वास्तव में भिखमंगा ही है..." फिर मैं अपने बटुवे में से कुछ सिक्कों के बीच में से एक रुपये का सिक्का खोजने लगा...एक सिक्का बहुत सावधानी बरतते हुए यह सोचते हुए बटुवे में से निकाला कहीं यह दो का सिक्का न हो...और खिड़की से बाहर हाथ निकाल रस्म अदायगी करते उसके बर्तन में डाल दिया...खन्न...! एक सिक्का न देना पड़े इसके लिए मैंने सारे तर्क खोज लिए थे...!
भिखमंगा चला गया...मैंने देखा एक हट्टा-कट्टा तीस-पैंतीस साल का व्यक्ति मेरी बस में चढ़ रहा था चेहरे से वह किसी उग्रवादी से कम नहीं लग रहा था..! तभी बस भी चल पड़ी..इधर ठोंगे में मूंगफली भी ख़तम हो चुकी थी... केवल छिलके ही बचे थे..अब मैं छिलके सहित इस ठोंगे को बस से बहार फेंकने की फिराक में पड़ गया...तभी बस ड्राइवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी... "चलो-चलो तुरंत उतरो..." और वह जीर्ण-शीर्ण काया में अधेड़ भिखमंगिन सी महिला...! ड्राइवर से कुछ कहते हुए गिड़गिड़ाए जा रही थी...! ड्राइवर की आवाज कानों में फिर गूँजी... "जाओ कंडक्टर से पूँछो..." इधर कंडक्टर यात्रियों के टिकट बना रहा था...वह महिला कंडक्टर के पास आ गयी....कंडक्टर ने उसे देखते ही पूँछा, "क्या बात है..कहाँ जाना है...?" उस भिखारिन सी महिला ने किसी स्थान का नाम बताया..इस पर कंडक्टर ने उससे टिकट बनवाने के लिए कहा। वह फिर कंडक्टर से फिर गिड़गिड़ाने लगी...और अपनी धोती...हाँ साड़ी नहीं...के एक किनारे की छोटी सी गाँठ खोलने लगी...शायद वह बताना चाह रही थी कि उसके पास पैसा ही नहीं है...तब तक उसकी गाँठ खुली शायद दस के एक-दो नोट ही थे...और उसे दूर जाना था...उसके इस गाँठ में टिकट के पर्याप्त पैसे नहीं थे...!
कंडक्टर उस औरत से चिल्लाया, "उतरो....तुरंत उतरो..." और यह कहते हुए उसने ड्राइवर से बस रोकने के लिए भी कह दिया...ड्राइवर ने बस को धीमी करना शुरू कर दिया...अब वह महिला जोर-जोर से गिड़गिड़ाने के अंदाज में चिल्लाने लगी...! सभी यात्रियों का ध्यान उस पर चला गया...हाँ..वह गिड़गिड़ाए जा रही थी...लेकिन उतरने के लिए तैयार नहीं थी...! अब वह बस यात्रियों से शायद यह कहना चाह रही थी कि कोई उसका टिकट बनवा दे...लेकिन सभी यात्री मौन थे..! इधर उसकी दशा देख मन ने सोचना शुरू किया... "यह औरत कहीं पागल तो नहीं...देखने से तो पागल नहीं लगाती...क्या वाकई गरीब है..? इतनी ही गरीब है तो कम से कम बिना पैसों के उसे इस सरकारी बस में नहीं चढ़ना चाहिए...अरे...! ये लोग बहुत चालाक होते हैं...क्या इसके पास पैसा नहीं होगा...? नाटक कर पैसा बचाती होगी इसी तरह...भाड़े बचाने की चाल है इसकी...! फिर यह तो ऐसी लगती है..कि...इसे इतनी दूर यात्रा करने की क्या जरुरत...?" आदि-आदि ऐसे ही तर्क मैं मन ही मन गढ़ता जा रहा था..और उस गरीब महिला के प्रति मन में उमड़ने वाली सदाशयता को इन तर्कों के ढेर से दबाता जा रहा था...इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में गढ़े इन तर्कों की ही विजय हुई...और मन ही मन मैंने निश्चय कर लिया कि ऐसे लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए...!
कंडक्टर की आवाज फिर सुनाई पड़ी, “यह सरकारी बस है...बिना किराए दिए हम नहीं ले जायेंगे...क्या हमें नौकरी गँवानी है..? पता नहीं कहाँ-कहाँ से कैसे लोग चढ़ आते हैं..,?” और उसने ड्राइवर से बस रोकने की लिए फिर कहा..! वह भिखमंगिन सी महिला रुवांसी हो जोर-जोर से चिल्लाने लगी...! तभी पीछे से एक आवाज आई... "अरे..कंडक्टर इसे मत उतारो...मैं टिकट के पैसे दे दूंगा...कितना हुआ...?" फिर उस व्यक्ति ने अपने और उस महिला के टिकट बनवाये...! कंडक्टर बोला, “अरे भाई दया तो मुझमें भी है..लेकिन नियम कायदे से बंधा हूँ...दस-पांच की बात होती तो किसी तरह लिए चलता...सौ की बात है...नौकरी खतरे में पड़ सकती थी...” कहते हुए वह फिर टिकट काटने में व्यस्त हो गया...। तब-तक बस शहर से बाहर आ चुकी थी...मैंने चलती बस से एक सूनसान स्थान देखकर मूंगफली के छिलकों सहित उस ठोंगे को बस की खिड़की से बाहर यह सोचते हुए फेंक दी...कि...चलों इसी तरह सफाई अभियान में मेरा यह तुच्छ प्रयास भी समर्पित हो...!
लेकिन...पता
नहीं क्यों मन थोड़ा सा बेचैन था...! ऐसा लग रहा था...जैसे तमाम कूड़ों के मन में ढेर लग चुके हैं...उनका मैं क्या करूँ...? मन के कूड़े के...! पता नहीं किस ढेर में मेरी वह
सदाशयता दब सी गयी है...जो पढाई के दिनों में अपने कस्बे से इलाहबाद बस से जाते
समय प्रगट हो गयी थी...! हाँ...वह भी तो एकदम ऐसी ही घटना थी..! आज यहाँ एक औरत है
तब वह एक गरीब युवक था...! वह ऐसे ही बस कंडक्टर से पैसे न होने की बात कहते हुए
गिड़गिड़ा रहा था कि उसके पास किराए के पैसे नहीं है लेकिन उसे जाना जरुरी है...ऐसे
ही आज की तरह...वह कंडक्टर भी उसको बस से उतार रहा था...बस का कोई भी यात्री उस युवक का
साथ नहीं दे रहा था...तब मैंने बिना कुछ सोचे अपनी पढ़ाई के लिए मिले पैसों से
कंडक्टर से उसका भी टिकट बनाने के लिए कह दिया था...!
लेकिन आज पता नहीं क्या हो गया था मुझे..! यहाँ
तक आते-आते क्या कुछ और क्यों बदल गया...! उस महिला के आर्त्र-स्वरों का भी मुझ पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ा...! ...और...मन के किसी कोने में ही सही उपज रही सदाशयता को
दबाने के लिए मैं तर्क पर तर्क गढ़े जा रहा था...! ऐसे तर्क..! जो किसी के काम न आ
सकें...! ये तर्क कूड़े ही तो हैं..! और...तर्क-कूडों के इस ढेर में दब कर उस सदाशयता
ने दम तोड़ दिया..! तर्कों के इन कूड़ों का मैं क्या करूँ...इन्हें तो मैं बाहर ही
नहीं फेंक पाया....!
तभी एक
आवाज सुनाई पड़ी... “अरे कंडक्टर साहब मुझे उतार दीजिए...और इस महिला को आगे आने
वाले बस स्टेशन पर उतार दीजियेगा...” मैने देखा...अरे...! यह तो वही व्यक्ति है
जिसे मैंने उग्रवादी जैसा समझ लिया था...! तो...इसी ने इस गरीब महिला का टिकट लिया था...! और...मैं सोचता ही रह गया...!
------------------------------------विनय