उस दिन इलाहाबाद से महोबा स्वयं ड्राइव करते हुए कार से
जाने का मन कर गया...साथ में श्रीमती जी और छोटे पुत्र श्रेयांश भी थे...एक बात है
ड्राइविंग भी एक प्रकार का नशा है...ध्यानावस्था है..जब आप ड्राइविंग करते हैं तब
आपको अपनी सारी समस्याओं को भूलना होता है..और केवल ड्राइविंग पर ही अपनी चेतना को
केन्द्रित करना होता है...यह स्थिति भी एक प्रकार से आनंदानुभूति की होती है..योग
की ध्यानाक्रिया से कुछ मिलती-जुलती...! इस स्थिति में आप तमाम तरह के मनोविकार
उत्पन्न करने वाले चिंतन से मुक्त होते हैं...यही आनंदानुभूति की अवस्था होती
है...इस आनंदानुभूति के साथ ड्राइविंग का रोमांच भी अलग से जुड़ जाता है....
हाँ तो
अलसुबह ही हम इलाहाबाद से निकल पड़े थे..यमुना पर नया बना झूले सा ब्रिज आकर्षित कर
रहा था...श्रेयांश चलती कार से ही इसकी वीडियो रिकार्डिंग करने लगे थे...पुल पार
कर हम टोल टैक्स दे आगे बढ़ चले...एक पेट्रोलपम्प पर मैंने तेल लेने के लिए अपनी
कार रोकी..मुझे अनुभव हुआ कि पेट्रोलपंप-कर्मी अलसाए हुए से थे...एक कर्मी
धीरे-धीरे कर मेरे कार के पास तक आया..शायद यह सोचते हुए ‘इतने सबेरे-सबेरे यह तेल
लेने कहा से टपक पड़ा..’ मुझसे पूँछा, ‘कितने का..’ मैंने एक हजार का इशारा किया...उसने
मशीन में फीड किया और मुझे इसे दिखाते हुए तेल की पाइप कार की टंकी में लगा कर
आराम से चलते हुए वहीँ टंकी के चबूतरे पर बैठा गया..मैंने पेट्रोलपंप के प्वाइंट को
देखना शुरू किया..अरे इतना स्लो प्वाइंट चल रहा है...! ऐसे में एक हजार का तेल
पूरा होते-होते मिनटों लग जायेंगे..मैंने देखा वह पम्प-कर्मी चबूतरे पर आराम से बैठा
ऊँघ सा रहा था..श्रेयांश मेरी ओर देखते हुए इस स्थिति को समझ मुस्कुरा
दिए...खैर..जैसे-तैसे कर तेल पूरा हुआ अब हम आगे बढ़ चले...
इस समय
हम इलाहबाद से बाँदा मार्ग पर चल रहे थे..धीरे-धीरे पथरीला और पहाड़ी क्षेत्र आरम्भ
हो चुका था...इस क्षेत्र को श्रीमती जी और उनके सुपुत्र महोदय बड़ी उत्सुकता से
देखे जा रहे थे...बारा में एक बिजली घर बनता हुआ दिखाई दिया..श्रीमती जी ने इसे
देखते हुए कहा, ‘इस तरह के उद्योग या प्लांट ऐसे ही स्थानों पर स्थापित किए जाने
चाहिए..’ उनका कहने का आशय यही था कि उद्योगों कारखानों आदि के प्लांट इसी तरह के
अनुपजाऊ और बेकार पड़ी हुई भूमि पर ही स्थापित किये जाने चाहिए जिससे कृषि योग्य
भूमि के सुरक्षित रहने के साथ ही इस तरह के पिछड़े क्षेत्रों का भी विकास हो
सके...इधर मैं कार ड्राइव किये जा रहा था एक ऊँचे पहाड़ को देखते हुए श्रेयांश जी
इसके बनावट और उत्पत्ति के सम्बन्ध में मुझसे तर्क करने लगे थे..खैर एक पहाड़ और
जंगल को देखते हुए माँ-बेटे ने कहा धरती बहुत खुबसूरत है...आगे एक पहाड़ की ऊँचाई
नापते हुए उस पर चढ़ने की इच्छा जताने लगे लेकिन मैं समय की दुहाई देते हुए कार आगे
बढ़ाता जा रहा था...अचानक दूर से सड़क के किनारे हमें कुछ बन्दर दिखाई पड़े और हम
लोगों की निगाह बन्दर के एक बच्चे पर पड़ी जो सड़क पर ही उछल-कूद कर रहा था...तभी
हमने देखा एक बन्दर जो उसकी माँ रही होगी शायद उसने हमारी कार को सड़क पर खेलते
अपने बच्चे की ओर आते हुए देखा..वह काफी तेजी से सड़क पर आई और अपने उस बच्चे को
लगभग इन्सानों की तरह गोंदी में उठाकर तेजी से सड़क के किनारे पटरी पर चली गयी और
गुजरती हमारी कार को सड़क की पटरी से देखने लगी थी...इस दृश्य को देखकर हम आपस में
हँस पड़े थे और हँसते हुए ही मैंने श्रेयांश से कहा इतनी तत्परता तो तुम्हारी मम्मी
भी नहीं दिखा पाएंगी जितनी इस बंदरिया ने अपने बच्चे के प्रति मेरी कार से उसे
बचाने के लिए दिखाई है...मेरी इस बात को सुन श्रीमती जी कुछ नाराज सी हो गयीं और
सुपुत्र महोदय मुस्कुराने लगे थे...वास्तव में प्रेम या अपने बच्चों की चिंता करना
तथा उनके प्रति केयरफुल होना केवल इंसानों की ही बपौती नहीं है...प्रकृति का यह एक
सहज गुण है जो सभी जीवों के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर समानधर्मा है..और..इस
खूबसूरत धरती का राज भी यही है...!!
मैं आराम
से ड्राइविंग किए जा रहा था..अब हम एक ऐसे क्षेत्र से गुजर रहे थे जहाँ दूर-दूर तक
मैदान ही दिखाई पड़ रहा था...वहाँ किसानों के खेत भी थे...लेकिन लगभग असिंचित सा क्षेत्र
था वह..! किसान वहाँ एक या मुश्किल से दो ही फसल ले पाते होंगे...बीच-बीच में बबूल
के पेड़ दिखाई दे जाते थे...सड़क के किनारे एक ऐसे ही पेड़ को देख मैंने उसकी छाया
में कार रोक दी हमने वहाँ पर साथ लाए पानी को पिया तथा मुँह पर उसके कुछ छींटे भी
मारे...वहाँ मैंने देखा पाइप के ढेर पड़े हुए थे...और मशीन से पाइप बिछाने का कार्य
भी चल रहा था, मुझे एक व्यक्ति दिखाई दिया शायद वह ठेकेदार रहा होगा...मैं यूँ ही
उसके पास चला गया...पूँछने पर उसने बताया कि रिलायंस कंपनी टू-जी, थ्री-जी केबल हेतु
पाईप बिछाने का कार्य कर रही है जो अभी कुछ ही महीनों पहले शुरू हुआ है...मैं
दूर-दूर तक फैले असिंचित खेतों और उन गरीब किसानों जो बिना सिंचाई साधनों के मात्र
वर्षा जल की आस लगाये खेती पर निर्भर होते हैं तथा गरीबी का दंश झेलते रहते है, को
देखते हुए चल रही इस परियोजना का विरोध करने का मन कर गया लेकिन मन-मसोस कर रह गया
और इस बात का जिक्र कार चलाते हुए पत्नी से किया, उन्होंने कहा, ‘अरे, अब तो गरीब
से गरीब मजदूरों के हाथ में भी तो मोबाइल होता है...! उनके भी तो काम आएगा यह
सब..’ फिर उन्होंने कहा, ‘हाँ यह जरुर होना चाहिए कि सरकारों को पहले इन सूखे
खेतों तक पानी पहुँचाने का कार्य करना चाहिए उसके बाद टू-जी, थ्री-जी...!’
हाँ,
होना तो यही चाहिए कि सरकारों को सबसे पहले कृषि प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए
सिंचाई साधनों का विकास करते हुए कम से कम पानी खर्च कर अधिक से अधिक फसलों के
उत्पादन के लिए योजनाएँ बनानी चाहिए कि सूखे के दिनों में किसानों को आसमान की ओर
टकटकी न लगाना पड़े...आखिर नदियों का पानी भी तो समुद्र में बह जाता है..क्या
पाइप-लाइन बिछाकर पानी को इन खेतों तक नहीं लाया जा सकता....? मैं इन्हीं विचारों
में खोया था कि मेरी कार हिचकोले लेने लगी..बात यह था कि सड़क पर कमजोर पुल की जगह
मजबूत नया पुल बनाया जा रहा था..और..मैं उसके लिए बने डायवर्जन से गुजर रहा
था..खैर अब तक बन रहे ऐसे तीन-चार पुलों को मैं पार कर चुका था..श्रीमती जी अचानक
बोल उठी, ‘एक बात है..सरकारें विकास कार्य तो करा ही रही हैं..’ मैंने भी सहमति
में सिर हिलाया और धूल उड़ाती हुई सामने से आ रही गाड़ियों को देखने लगा...हाँ..आगे
सड़क निर्माण का कार्य भी चल रहा था...
इस मार्ग
से मैं पहली बार यात्रा कर रहा था...मैं अब कर्वी क्षेत्र में प्रवेश कर रहा
था..पत्नी ने ऊँचे पहाड़ों को देखते हुए कहा कि ‘यहीं कहीं चित्रकूट भी तो है..?’
मैंने कहा, ‘हाँ है तो...’ ‘तो चलिए घूम लिया जाए..’ श्रीमती जी की इस इच्छा को
मैंने भी स्वीकार कर लिया क्योंकि इधर श्रेयांश की भी इन सब चीजों को देखने की ललक
बढ़ गई थी...तभी सड़क के बगल की एक ऊँची पहाड़ी पर मंदिर दिखाई दिया ...तथा नीचे से
ऊँचाई पर स्थित उस मंदिर तक सीढ़ियाँ जाती हुई दिखी..श्रीमती जी ने वहाँ रुकने के
लिए कहा...मैंने कार रोक दी... हम लोग कार से उतर कर उस पहाड़ी और उसके ऊपर स्थित
मंदिर तक जाती सीढियों का मुआयना सा करने लगे...पत्नी ने किसी से पूँछ कर मुझे
बताया कि ऊपर देवी जी का मंदिर है...उनहोंने इसकी तुलना मैहर से करनी शुरू कर दी,
‘अरे ऐसे ही तो मैहर माता जी का मंदिर है...वहाँ भी तो सीढियों से चढ़ना पड़ता
है...मैं तो सीढियों से ही वहाँ चढ़ी थी..कुछ महिलायें तो गश खा गयी थीं..’ बात यह
थी कि एक बार इन्होंने मुझसे मैहर देवी जी के दर्शन करने के लिए चलने को कहा
था...लेकिन मैं अपनी व्यस्तताओं का हवाला दे मना कर दिया था फिर ये अपने बड़े पुत्र
तथा परिवार के अन्य लोगों के साथ वहां हो आई थीं...मैंने उन्हें पुत्र से कहते हुए
सुना, ‘चलो इन सीढ़ियों से चल मंदिर में दर्शन कर आयें..’ पुत्र महोदय ने लगभग
उन्हें डाट लगाते हुए कहा, ‘अभी वहीँ ऊपर गश खाकर गिर पड़ोगी तो लेने के देने पड़
जाएँगे..’ मैंने लगभग मध्यस्थता के अंदाज में कहा, ‘चलो चित्रकूट घूम लेते है...’
फिर हम आगे बढ़ चले...
अब हम
चित्रकूट क्षेत्र में थे..हमारे पास समय की कमी थी अतः हमने तीन स्थानों पर जाना
तय किया...हमने स्फटिक शिला देखा...हमें सबसे अधिक प्रभावित वहाँ के प्राकृतिक
वातावरण के साथ ही स्फटिक शिला ने किया क्योंकि यह पत्थर वहाँ के अन्य पत्थरों से
भिन्न था...इसके बाद हम अनुसूया मंदिर गए यह पूरा क्षेत्र इस भीषण गर्मी में भी
अपनी हरियाली संजोये हुए था..कार पार्क करने के बाद अनुसूया मंदिर जाने वाले
मन्दाकिनी नदी के किनारे वाले मार्ग पर कुछ दुकाने लगी हुई थी जो पूजन सामग्री और
जलपान की थी...नदी का दूसरा किनारा प्राकृतिक रमणीक दृश्य प्रस्तुत कर रहा था...इस
प्राकृतिक दृश्य के बीच मुझे एक बात खल रही थी वह थी दुकाने..! मेरे समझ से यहाँ
पर किसी अन्य गतिविधियों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए क्योंकि इससे नदी के
प्रदूषित होने के साथ ही क्षेत्र की सुरम्यता बाधित हो सकती है..
मेरी
जिज्ञासा अनुसूया मंदिर को देखने की थी...हम लोग मंदिर में प्रवेश किए...देखा दो
पुजारी आसन लगाए हुए बैठे थे उनके सामने एक चादर बिछी हुयी थी जिस पर कुछ नोट और
सिक्के बिखरे हुए थे...मैंने सोचा शायद श्रद्धालुओं ने उसपर चढ़ाए होंगे...हाँ हमे
वहाँ से आगे मंदिर में जाने का रास्ता नहीं दिखाई पड़ा तो मैंने पुजारी से अन्दर
जाने का रास्ता पूँछा...उसने चढ़ावे की ओर इशारा किया उसके अभिप्राय को समझते हुए
भी मैंने कोई चढ़ावा नहीं दिया और दूसरी ओर मुड़ गया वहाँ भी पुजारी बैठे हुए थे
लेकिन उनने बताया कि यह लौटने का मार्ग है...और फिर उसी ओर इशारा किया..मैं पुनः
उन्ही पुजारियों के पास लौटा और रास्ते के बारे में पूँछा लेकिन उसने कहा, ‘जाइए-जाइए
उन्हीं से पता करें..’ मैं बात को समझते हुए दश का नोट उस चादर पर रख दिया तुरंत
पुजारी नें हाथ के इशारे से रास्ता दिखा दिया..मैंने श्रीमती जी से कहा, ‘यह
इसीलिए रास्ता नहीं बता रहा थ..’ खैर हमने पूरा मंदिर घूमा उस मंदिर ने हमें
प्रभावित नहीं किया शायद मुझमें श्रद्धा की कमी रही हो हाँ वहाँ एक बात हमने अवश्य
देखी...उस मन्दिर में कई स्थानों पर गुरुओं और भिन्न-भिन्न देवताओं की मूर्तिया
स्थापित थीं और सबके सामने पुजारी चादर फैलाए बैठे थे..और सभी चादर की ओर इशारा
करते थे...मंदिर से बाहर आते ही मैंने श्रीमती जी से कहा, ‘इसीलिए मैं मंदिर जाना
पसंद नहीं करता..’ श्रीमती जी ने कहा, ‘ये कर्म से भागे हुए लोग हैं ये दूसरों को
क्या आशीर्वाद देंगे..?’ इसके बाद हम गुप्त गोदावरी गए वहाँ की गुफाएँ प्रभावशाली
और देखने लायक थीं..सुपुत्र जी ने उन गुफाओं को देख उनकी निर्माण प्रक्रिया के
बारे में हमें समझाने लगे, ‘यहाँ सैंड स्टोन रहा होगा जो धीरे-धीरे पानी की बूंदों
के साथ बहता गया होगा और इन गुफाओं का निर्माण हुआ होगा..’ हाँ...उन गुफाओं में
घुटनों तक ठंडा पानी भरा हुआ था...इन स्थानों का भ्रमण हम लोगों के लिए काफी
आनंददायक रहा...
अब हम
बाँदा होते हुए महोबा की ओर चल पड़े...महोबा क्षेत्र में प्रवेश करते ही हमें
पथरीले पहाड़ और क्रेशर दिखाई पड़ने लगे थे...यहाँ पर पहाड़ों को ब्लास्टिंग से तोड़कर
ग्रेनाईट चट्टानों का कारोबार किया जाता है, मैंने श्रीमती जी को बताया कि यह कबरई
है.. ‘अरे कबरई की गिट्टी तो मशहूर हैं..’ मैंने कहा, ‘आपको कैसे पता..?’ ‘अरे घर
पर छत डालने के लिए जो गिट्टी आई थी ठेकेदार उसे कबरई की ही बता रहा था...’
श्रीमती जी की इस जानकारी से मैं अभी तक अनभिज्ञ ही था...इसके आगे मैंने उन्हें
अपनी जानकारी दी कि ऐसे ही यहाँ के कई पहाड़ अपने अस्तित्व को खो दिए हैं उन्हें
तोड़कर बेंच दिया गया है, यही नहीं सैकड़ों फीट नीचे जमीन को खोद कर पत्थर निकाल लिए
गए है..इसपर पत्नी ने मुझसे पूँछा, ‘सरकार रोकती नहीं...’ मैंने कहा, ‘सरकार क्यों
रोकेगी वह टैक्स लेती है...’ फिर श्रीमती जी ने कहा, ‘यहाँ तो चारों और धूल ही धूल
उड़ रही है..’ ‘यह यहाँ चल रहे क्रेशरों के कारण है...इससे स्वांस की बीमारियाँ भी
हो सकती है...यही नहीं यहाँ के लोग बताते हैं कि जहाँ क्रेशर चल रहे होते हैं उसके
आस-पास की कई बीघे की जमीन इस धूल जमाव के कारण अनुपजाऊ हो जाती है..जिस किसान ने
क्रेशर के लिए जमीन दी होती है वह तो किराया पाता है लेकिन क्रेशर के आस-पास की
भूमि के किसान अपनी भूमि से फसल भी नहीं ले पाते उनका तो नुक्सान ही होता है लेकिन
उनका सुनने वाला कोई नहीं है..’ श्रीमती जी इन बातों को सुन दुखी सी हो गईं, उनकी इस
भाव-भंगिमा को देखकर मैंने कहा, ‘कम से कम हमें दुखी होने का अधिकार तो नहीं ही
है..’ आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूँछा, ‘क्यों...’ मैंने मुस्कुराते
हुए जवाब दिया, ‘अरे भाई..हमारे घर की छत भी तो कबरई की गिट्टी से ही तो बनी
है...’ इसे सुन वह कुछ नहीं बोली..
‘आखिर इन
पहाड़ों को कैसे बचाया जा सकता है...?’ श्रीमती जी के इस प्रश्न को सुन मैं कुछ
क्षण मौन रहा..अचानक उनके इस प्रश्न को अनसुनी करते हुए से मैंने कहा, ‘वह देखो
दूर वह जो पहाड़ पर गोलाई में भवन दिखाई दे रहा है वही विकास भवन है...’ ‘पहले मेरे
प्रश्न का उत्तर दीजिए कि इन पहाड़ों को ख़तम होने से कैसे बचाया जाए..?’ मैंने उनकी
ओर देखते हुए कहा, ‘इनके ऊपर मन्दिर या मस्जिद बना दिए जाए..!’ ‘अरे इससे कैसे ये
बच जायेंगे...’ इस प्रश्न पर मैंने कहा, ‘यहाँ के लोग बताते हैं कि जिन पहाड़ों पर मंदिर
होते हैं उनका खनन पट्टा नहीं दिया जाता और वे ब्लास्टिंग से बच जाते हैं...’
अचानक उन्होंने इन पहाड़ों की और देखते हुए कहा, ‘अरे कितना तोड़ेंगे...बहुत पहाड़
हैं...!’ लेकिन इंसान की भूँख को सोच मेरी रूह काँप गई..पहाड़ भी इसके सामने मुझे बहुत छोटे नजर आने लगे थे...!
मैंने कहा ‘ये
पहाड़ ज्वालामुखी से बने हैं...एक पहाड़ की चट्टानों की ओर इंगित करते हुए मैंने
उन्हें दिखाया कि देखो इसकी चट्टानें पिघलती हुई सी परत दर परत बहती हुई सी
हैं...’ उन्होंने कहा, ‘हाँ यह हिमालय से पुराने पहाड़ हैं..’ मैं उनके इस ज्ञान की
प्रशंसा करते हुए सोचने लगा..
“जब धरती
बनी होगी तब न इसपर जीवन रहा होगा और न ये पहाड़ रहे होंगे.. तब यह गर्म धरती इन
तमाम ज्वालामुखियों के साथ उबल सी रही होगी...फिर धीरे-धीरे इनसे ये पहाड़ बने
होंगे यह धरती ठंडी होती गयी होगी..पेड़ पौधे उगे होंगे और फिर हमारे रहने लायक
पर्यावरण बना होगा...लेकिन इन पहाड़ों को तोड़ते हुए हम जहाँ से आए हैं क्या हम फिर
वहीँ वापस जाने का मार्ग तो नहीं बना रहे..?” क्योंकि इन पहाड़ों से ही तो हमारा
अस्तित्व बना होगा..हवा-पानी की इस धरती पर स्थिरता का कारण धरती की यदि इसी बनावट
पर निर्भर होता होगा तो फिर इन्हें नष्ट कर हम जल और प्राण-वायु को भी धीरे-धीरे
अंतरिक्ष में विलीन कर देंगे और यह धरती तपती हुयी सांय-सांय करती वियावान निर्जन
गोले में बदल जायेगी...फिर हम कहाँ होंगे...!!” यही सोचते-सोचते हम अपने गंतव्य तक
पहुँच गए थे....
आज पाँच
जून है...विश्व पर्यवरण दिवस....! संयोग से यह वृत्तांत आज ही आपके समक्ष प्रस्तुत
कर रहा हूँ.....
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