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गुरुवार, 2 मई 2024

वो क्या है…

       शाम गहराने को थी मैं शहर के रास्ते पर था। दूर क्षितिज के ऊपर चमक रहे सूर्य पर मेरी दृष्टि  चली गई। धरती से आसमान तक छाए कुहासे के धुंध में सूरज एक चमकीले गोले जैसे दिखाई पड़े और धरती पर वृक्ष स्याह-सफेद रंग में रंगे जान पड़े। उधर आसमान में दूर सूरज के नीचे एक पंक्षी अपने पंख फड़फड़ाते उड़ा जा रहा था। इस दृश्य के फ्रेम में इंसानी हस्तक्षेप की कोई भी चीज नजर नहीं आई। प्रकृति अपने सहज रूप में दिखाई पड़ी! मन में आया कि चित्रकार होता तो इस नजारे को कैनवास पर उतार लेता। ठीक इसी समय गाड़ी में बज रहा गीत का बोल सुनाई दिया .. इस गाने को सुनते हुए मेरी गाड़ी शहर के छोर पर पहुँच गई थी, अब तक दृश्यावलि बदल चुकी थी। शहर का विकास देखकर मैं खुश हो रहा था। लेकिन वो क्या है…गाना सुनते हुए मैं समयानुभूति में खो गया….अनुराग फिल्म जिसे अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर मैंने देखा था लगभग चालीस वर्ष पहले! यह गीत उसी फिल्म से था। तब से धरती के कितने रंग बदले कहना कठिन है! पता नहीं यह उम्र का बढ़ना है या फिर धरती पर बदलाव, यह धरती ही अब बेगानी सी होने लगी है, सोचकर मन सिहर उठा, खैर।

      रंग-बिरंगी धरती और इसके सुन्दर नजारे, जिसकी हमारी चेतना साक्षी रही है एक ब्रह्मांडीय परिघटना है! यह सोचना भी स्वयं में अद्भुत है। वैसे तो धरती अपने जन्म से ही बदलती रही है, लेकिन यह बदलाव प्राकृतिक रहा है, इसीलिए परिवर्तन को प्राकृतिक नियम कहा गया। प्राकृतिक नियम गणितीय सूत्र पर आधारित है बल्कि उन रासायनिक संयोजनों में, जिनसे धरती पर जैविक विकास का क्रम आगे बढ़ा, उनमें भी प्रकृति ने इस गणितीय सूत्र का अनुगमन किया। इससे धरती पर हुआ जैविक विकास सिमेट्रिक ही रहा, चाहे यह सरल से जटिल की ओर ही क्यों न हुआ हो! इसमें मनमानापन नहीं आया। 

        आज आदमी स्वार्थ-लिप्सा में प्रकृति में अन्तर्भुक्त इस गणितीय सूत्र के बदले उस रसायनिक-सूत्र का इस्तेमाल कर रहा है जिससे धरती के बदलावों में अब विकृति और सूनापन नजर आने लगा है। यह विकास के लिए ‘परिवर्तन’ नहीं ‘उत्परिवर्तन’ है, जिसमें व्यवस्था की जगह अव्यवस्था, जोड़ की जगह घटाव और विलोपन है। इसका परिणाम इंसान को भयभीत करता है। क्योंकि यह उत्परिवर्तन धरती के ‘स्वधर्म’ को क्षति पहुँचा रहा है। वैसे भी यदि कोई वस्तु ‘स्वधर्म’ त्याग कर दूसरा ‘धर्म’ ग्रहण कर ले तो परिणाम भयावह होता है, उस वस्तु का अस्तित्व विनष्ट हो सकता है। गीता में भी कहा गया है, स्वधर्म निधनं श्रेय परधर्मो भयावत:। प्रकृति हो या व्यक्ति सभी का अपना स्वधर्म है। मानव के स्वार्थ-लिप्सा के इस काल-खंड में व्यक्ति की मन:स्थिति भी प्रभावित हुई है। उसकी सारी संवेदनाएं इस लिप्सा के इर्द-गिर्द सिमट चुकी है। उसका स्वभाव अब इस सीमा तक जटिल हो चुका है कि उसे अपने ‘स्वधर्म’ की ही समझ नहीं। इसलिए आज उसका मानवीय स्वभाव संकट में है।

          जब गीता ‘स्वधर्म’ की बात करती है तो इसका आशय जाति, पंथ, मजहब या धर्म से नहीं, बल्कि चेतना के उस गुण-धर्म से है, जिसे वह किसी देश-काल, परिस्थिति में विकसित होते हुए अर्जित करती है। गीता चेतना के इसी गुण-धर्म को पहचान कर व्यक्ति को कर्तव्य-कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। गौतम बुद्ध भी इसके पहचान के लिए “आत्मदीपो भव” का उपदेश देते हैं। वे मानते थे कि इस स्थिति में ही हम दुखों से मुक्ति पा सकते हैं। यह दुख और कुछ नहीं व्यक्ति के स्वभाव की वह जटिलता है जिसके कारण क्षरित होते इस पर्यावरणीय परिस्थिति में उसके पास तमाम प्रश्नों का उत्तर होते हुए भी वह जीवन के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा है जहाँ खुशी के सारे इंतजामात कर लेने के बाद भी वह दुखी है। दरअसल गीता हो या बुद्ध, दोनों का आशय जीवन के इस जटिलता को समझाना और इससे उपजे दुख से मुक्ति का मार्ग बताना है।

         ‘वो क्या है…’  गाने में नायिका की आँखों में अंधेरा है..इस गाने के प्रारंभ में नायक नायिका की अनुभूतियों को जगाता है..फिर नायिका आँखों में अँधेरा लेकर भी सागर, लहरें और नाव देख लेती है! इन्हें वह कैसे देख लेती है, नायक के यह पूँछने पर वह कहती है, मन से आँखों का काम लिया। बस।

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