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गुरुवार, 2 मई 2024

हित अनहित पशु पक्षिउ जाना

         यह आज की बात नहीं है। उस दिन लखनऊ वाली सुबह की बात है। कुछ दिनों से मैंने सुबह टहलना लगभग छोड़ ही दिया है। जब बहुत मन होता तो घर की बाउंड्री के अंदर ही चहलकदमी वाली टहलाई कर लेता। लेकिन सुबह बाहर खुली हवा में टहलने का आनंद कुछ दूसरा ही होता है। फिर भी मैं यह जरुर सोचता कि मनमाफिक समय और स्थान मिलने पर सुबह आउटडोर वाली टहलाई जरुर होगी! हाँ उस दिन सुबह की बात है। घर की चहारदीवारी में टहलते-टहलते अनायास ही एक बात याद आई कि क्या बुलबुल पक्षी डेली स्नान करते हैं? यहां बात यह थी कि उस चहारदीवारी में टहलते हुए मिट्टी के कठौते में भरे पानी को मैंने यह सोचकर गिरा दिया था कि इसमें मच्छर पल सकते हैं। पत्नी जी ने इसे देखा तो मुझे बताने लगीं कि इस कठौते में पानी इसलिए भर कर रखती हूँ कि अकसर सुबह-सुबह बुलबुल पक्षी इसमें नहाने आते हैं। फिर उन्होंने कहा कि ये सुबह सात साढ़े सात के बीच आते हैं। चूँकि उस दिन में उनके आने के समय वहाँ टहल रहा था इसलिए बुलबुल उस दिन वहाँ नहाने नहीं आए। अब मैंने तय किया कि कम से कम इनके नहाने के समय इस स्थान पर मेरी टहलाई स्थगित रहेगी। खैर जब अगले दिन मैं देर से उठा तो श्रीमती जी ने उस पानी भरे कठौते की ओर इशारा करके मुझे बताया कि इसमें बुलबुल के जोड़े अभी स्नान करके ग‌ए हैं। मैंने देखा कठौते में बुलबुल के नहाने और पंख फड़फड़ाने के कारण कठौते के चारों ओर पानी छलका पड़ा था। इसे देखकर मुझे कंपकंपी भी आई कि कठौते के ठंडे पानी में नहाते समय क्या बुलबुल को ठंड नहीं लगी होगी? जबकि हमेंं इस जाड़े में नहाने के लिए पानी गरम करना पड़ता है। खैर।

              उसी दिन की बात है शाम को मैं चक्की से आटा पिसवाकर आया था। गेट खुला हुआ था और एक जाना-पहचाना कुत्ता पत्नी के पास बैठा दुलरा रहा था और वे भी उसे दुलार रहीं थी! उन्होंने मुझे बताया कि यह आज मुझसे मिलने आया है। मैं भी इस कुत्ते को कम से कम दस वर्ष से जानता हूं जब यह एक छोटा पिल्ला था। इसे पाला भी नहीं गया था लेकिन श्रीमती जी इसे तब से कभी बिस्कुट तो कभी दूध या रोटी देती आई हैं। यह मेरे घर के सामने और आसपास की सड़कों पर खेलते-कूदते ही बड़ा हुआ। इसे हम सभ्यों की भाषा में स्ट्रीट डॉग भी कह सकते हैं क्योंकि इसका कभी कोई घर नहीं रहा। इधर पाँच-छह वर्षों से यह कहीं किसी और गली में रहने लगा है लेकिन यह श्रीमती जी को भूला नहीं है अकसर सात-आठ दिन पर यह इनसे मिलने ऐसे ही चला आता दुलराता है और फिर वापस चला जाता है।

      इस घटना को याद कर आज यहां शामली में अपने आवास में टहलते हुए मुझे रामचरित मानस की यह चौपाई बरबस ही याद आ गई -

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥

हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥

         वाकई में! यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि पशु और पक्षी किसी इंसान की भावना या उसके अंदर की संवेदना को कितनी आसानी से पहचान जाते हैं लेकिन वहीं पर स्वार्थ और अहंकार में डूबा इंसान इसे पहचान नहीं पाता!! तो क्या ऐसे इंसान पशु और पक्षियों से भी ग‌ए गुजरे होते हैं….

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