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गुरुवार, 2 मई 2024

अपना-अपना नाभि और अपने-अपने विषकुंड

          मैं मोबाईल हाथ में लिए अपना चश्मा खोज रहा था..कभी सोफासेट पर ढूंढ़ता तो कभी खाने वाली टेबल पर..बिस्तर पर भी इसे खोजा…दर‌असल असत्य पर सत्य के विजय पर्व पर मन में यह आह्लाद उमड़ आया था कि हे असत्य बच्चू!! इस लड़ाई में जीतेगा सत्य ही..चाहे तुम कुछ भी कर लो!!! सत्य के जीतने की इसी खुशी में मुझे कुछ बधाई संदेश लिखने थे, लेकिन मेरा चश्मा ना मिल रहा था…अचानक जैसे कानों में हँसी गूँजी हो!!! जिस चश्मे को मैं खोज रहा था उसे तो मैं पहने था वह मेरे आँखों पर ही था!!!! फिर भी पगलाया सा मैं उसे ढूंढ़ रहा…
          
        जब मुझे मेरा चश्मा मेरे ही आँखों पर विराजमान मिला तो जैसे असत्य ने मुझसे हँसकर कहा हो…दो खूब बधाई दो..मनाते रहो विजय पर्व! लेकिन मुझे पराजित नहीं होना…चाहे तुम जितना ज्ञानधारी बन लो! उड़ाते रहो यह सत्यमेव जयते वाला शिगूफा!!! 
       
         वाकई…न जाने कब से हम असत्य को मारते आ रहे हैं लेकिन….लेकिन क्या??? यही न कि असत्य मरता क्यों नहीं? त्रेता युग के बाद सदियां गुजर ग‌ई.. लेकिन साल बीतते न बीतते…असत्य फिर खड़ा होकर अट्टहास करते हुए कहने लगता है कि लो एक बार फिर मार कर देख लो!!  और इधर सत्य के लिए भी एक अजीब सी मुसीबत आकर खड़ी हो जाती है उसे फिर मैदान में आकर शर संधान करना पड़ता है…आखिर कितनी बार वह मैदान में आए?? लेकिन… लेकिन क्या? लेकिन यही कि सत्य अब दिग्भ्रमित है! इस मैदान में उसे कोई यह बताने वाला नहीं कि विषकुंड कहाँ और किस नाभि में है कि उस पर निशाना साधकर वाण मारे और यह कुंड सूखे?? दरअसल विभीषण भी यह बताने अब नहीं आएंगे..आखिर कोई विभीषण क्यों बने? बेचारा सत्य को विजयी बनाने में सहयोग भी करे और अपने नाम को गाली बनता देखे! वैसे भी अब विभीषण वाला जमाना नहीं रहा..यह विकेंद्रीकरण का युग है!!!! अब तो सारे लोग अपना-अपना नाभि और अपना-अपना विषकुंड लिए फिरते हैं…!!! खैर…
     
          असत्य अब सुरक्षित है..निधड़क है!!! आखिर यह असत्य निधड़क क्यों न हो! बहुत ही चालाकी से इसने अपनी रणनीति बदल लिया है और किसी नाभिकुंड में रहना छोड़ दिया! क्योंकि इस नए युग में..न‌ए काल में अब कोई जरूरत नहीं इसे छिपकर रहने की!!! इसे पता है कि अपने इस बदले रूप में यदि वह सत्य के साथ खड़ा हो जाए तो पहचानना मुश्किल होगा कि सत्य कौन और असत्य कौन! और हाँ, राम की कौन कहे विभीषण भी फेल हो जाएंगे यह पहचानने में! इधर सत्य भी अपने अकेलेपन से जैसे हताश हो उठता है, यह स्थिति असत्य के लिए मुफीद है इसे समझकर ही असत्य ने सत्य का साथ पकड़ा! तो यह असत्य अब बेहद सुरक्षित जोन में है और दशहरा जैसे पर्व पर अपने मारे जाने का तमाशा यह खुशी-खुशी मजे ले-लेकर देखता है। अब तो, धीरे-धीरे इसे यह भी पता चल गया है कि सत्य के जीतने की अभिलाषा पालने वाले ये सत्यप्रेमी लोग आँख होते हुए भी उसे नहीं पहचान पाएंगे चाहे चश्मा पहनकर जितना ज्ञानधारी बन लें क्योंकि इनमें मन की आँखें नहीं हैं…ये सब अंधे ही हैं…मन के अंधे!!!

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