भरी दोपहरी में टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडियों पर वह चला जा रहा था...सूर्य की तीखी किरणें उसके शरीर को बेधती जा रही
थी...उसका विश्रांत-क्लांत मन छाया की तलाश करने लगा...जहाँ..वह दो पल ठहर विश्राम
कर ले...और...फिर अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले...लेकिन दूर-दूर तक उसे कोई ऐसा आश्रय-स्थल
नहीं दिखाई दे रहा था....आखिर वह चला ही जा रहा था...!
यकायक..! दूर क्षितिज में उसे एक
दृश्यावली उभरती हुई सी दिखाई पड़ी...कहीं कोई यह मृग मरीचिका तो नहीं...! यह
पथ...! हाँ इस भरी दुपहरी में वह ऐसी ही तमाम मृग-मरीचिकाओं का ही तो सामना करते
हुए चला जा रहा है...दूर की यह दृश्यावली भी कहीं इन्हीं मरीचिकाओं का हिस्सा तो
नहीं...? उसने अपनी आँखों को दोनों हाथों से मला...अरे..! नहीं दूर यह पेड़ों के
समूह ही हैं...शायद कोई जंगल हो..उसे एक आस बंधी...कुछ क्षण वह किसी पेड़ के नीचे
सुस्ता लेगा...
अब
यह पगडंडी उस जंगल में प्रवेश कर रही थी...ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की सघन छाया उसे अब
भाने लगी थी...ये विशाल और ऊँचे-ऊँचे पेड़ और इनकी छायाओं में उसका मन विश्राम की
तलाश करने लगा...ऐसे ही एक विशाल पेड़ को उसने अपना विश्राम-स्थल चुन लिया...तने की
टेक लिए बैठे हुए उसके थके मन और शरीर को उस वृक्ष की सघन छाया माँ की गोंद का
अहसास देने लगे थे...यह सोचते हुए धीरे-धीरे उसकी आँखें बंद हो रही थी...काश, इस
वृक्ष की ये डालियाँ अपने कोमल पत्तों से उसे तनिक सहला देती...थपकी भरा प्रेम का
एक अहसास मिलता..! धीरे-धीरे उसकी आँखें बंद होने लगी...वह सपनों में खो गया था...
....नहीं-नहीं वह निर्दयी नहीं है...हाँ
वह किसी को सहलाता नहीं..किसी को थपकी नहीं दे पाता..किसी के सिर पर हाथ नहीं
रखता...वह भी तो तन कर खड़ा रहता है...अरे हाँ...! ये उसके हाथ...! नहीं-नहीं ये
उसके हाथ नहीं...ये..! ये..!! ये तो डालियाँ हैं..! रोयें नहीं पत्तों से भरी
डालियाँ...! हाँ उसके शरीर पर डालियाँ उग रही हैं...पत्तियों से भरी तमाम डालियाँ..!
वह कितना प्रसन्न है...!! लेकिन वह निर्दय है...? तना है...खड़ा है...वह कैसा वृक्ष
है...? वह अपनी डालियों को झुका नहीं पा रहा है...अपने कोमल पत्तों से देखो न वह
किसी को प्रेम की थपकी भी नहीं दे पा रहा है..! लेकिन...लेकिन...तुम्हें धूप नहीं
लगने देगा...दो शब्द तुम्हारे लिए बोल नहीं पाएगा...लेकिन...! निश्चिन्त सा तुम शरीर
पर उगी इन डालियों और इसके पत्तों की छाया में विश्राम कर लो...वह तना रहेगा, बस
उसके शरीर पर ये डालियाँ ऐसे ही उगी रहें...! अपनी इन डालियों और पत्तों में तो वह
सूरज की गर्मी को तो स्वयं सोख लेगा...! लेकिन...एक अनकहा अहसास लिए तुम्हें धूप
और गर्मी से बचाते तुम्हारे लिए इसी तरह छाया देता रहेगा...!!
अरे...! ये चेहरे पर गर्मी कैसी..! धीरे-धीरे
आँखें खुली... ओह..! ऊँचे तने की टहनी की कोई पत्ती हिली थी...क्षण भर के लिए
पत्तियों के झुरमुट से दोपहर के सूरज की तीखी किरणें चेहरे पर आ पड़ी थी...उसने
देखा..यह तो धनेश है...! डालियों के फुनगियों पर जो धीरे-धीरे सरक रहा है...शायद
इसी कारण पत्तियाँ हिली थीं...हाँ उस धनेश को भी तो अपने हिस्से के आश्रय स्थल की
तलाश थी...और...वृक्ष निश्चित ही तुम निर्दय नहीं हो...सबके हिस्से का अनकहा अहसास
बाँटते जा रहे हो..! जागते ही उसने सोचा.....!!
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