हाँ..अलसाए हुए से थे वह..! लेकिन मुझे देख चहकते हुए बोले,
“आइए..आइए..! यार..मैं इधर कई दिनों से आपकी ही प्रतीक्षा में था...” मैं थोड़ा सा विस्मित
होते हुए उनसे पूँछा, “अरे..क्या बात हैं..यह चहकना कैसा..?” मित्र ने कहा, “भइये..तुम तो जानते ही हो...जब मैं किसी उलझन में या
प्रश्नों के चक्रव्यूह में होता हूँ तो तुम ही याद आते हो..! तुमसे दो-चार बातें
कर मन को थोड़ा शान्त कर लेता हूँ..!” “भाई मेरे..! बड़े मतलबी हों..मैं आपका मित्र
न होकर गोया कोई instrument हूँ..जिससे खेल कर तुम अपना मन बहला लेते हो...” मैंने
अपना यह वाक्य अभी पूरा ही किया था कि मित्र ने मेरी बाँह पकड़ सोफे पर अपने पास ही
बैठा लिया तथा कुछ क्षणों का विराम ले, यह कहते हुए कि “नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं,
अपने लंगोटिया यार पर इतना अधिकार तो होना ही चाहिए..” एक पुराने अखबार का पेंज
मेरे सामने कर दिया| जब मैं कुछ समझ नहीं पाया तो मित्र ने अखबार की एक हेडलाइन पर
अपनी ऊँगली रखा और उसे पढ़ने के लिए मुझसे कहा, वह पन्ना कुछ दिनों पुराना हो चला
था...! मैंने सोचा, “तो इस पन्ने को मुझे पढ़ाने के लिए ही कुछ दिनों से संरक्षित
कर रखा है इन्होंने..!” खैर..मैंने खबर पढ़ी |
अखबार
में छपी खबर कुछ इस प्रकार की थी... ‘एक व्यक्ति चोरी करने की नियत से रात में बैंक
में घुसा लेकिन चोरी नहीं कर पाया फिर वह बैंक शाखा प्रबंधक के नाम एक मार्मिक सा
पत्र लिख चोरी किये बिना वापस चला आया | उस पत्र में उसने अपनी कुछ मजबूरियों के
कारण बैंक में चोरी करने की कोशिश करने का उल्लेख किया था...!’ इसे पढ़ने के बाद मित्र
के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कराहट उभरते मैंने देखा और उनसे कहा, “इसमें
मुस्कुराने की क्या बात है...वह चोरी नहीं कर पाया...बैंक में चोरी करने का निर्णय
उसने मज़बूरीवश लिया...बेचारा...!” अकस्मात मित्र थोड़ा गंभीर हो कर बोले, “यदि बैंक
में ही वह उस रात पकड़ लिया जाता तो उसके साथ क्या होता...? शायद जीवन भर के लिए उसे
अपराधी घोषित कर दिया जाता...! या वह चोरी करने में सफल हो जाता तो शायद इससे
प्रोत्साहित हो और चोरियां करता..!” एक गहरी स्वांस लेते हुए मित्र ने फिर कहा,
“उसके द्वारा चोरी के प्रयास की सफलता या पकड़े जाने पर क्षण मात्र में उसकी
दुनियाँ बदल जाती...और...अभी भी यदि वह पकड़ा जाता है तो बैंक में चोरी करने के
प्रयास में उसे गिरफ्तार किया जा सकता है..! पल भर में एक चोर का तमगा पा लेगा...लेकिन...हो
सकता है इस समय अपने घर में बैठा वह पश्चात्ताप की आग में जलते हुए भविष्य में फिर
ऐसा काम न करने की मन ही मन कसमें खा रहा हो...!”
मैंने
मित्र की बातें सुनी...इस समय हमारे बीच सन्नाटा पसर गया था...मित्र ने मेरी ओर देखा,
“बताओ...क्या उसे सजा मिलनी चाहिए..?” मेरे कुछ समझ में नहीं आया और मैं चुप ही
रहा| मित्र महोदय को मुस्कुराते देख मैं कुछ खीझते हुए बोला, “यार इसमें
मुस्कुराने की कौन सी बात आ गयी...!” लेकिन मेरी इस बात से बेपरवाह वह बोले, “याद
है...!” मैंने उनकी तरफ जिज्ञासु आँखों से देखा...मुस्कुराते हुए मित्र मेरे इस
जिज्ञासु भाव से जैसे उत्साहित हो गए तथा अपनी बातों को थोड़ा रहस्यात्मक आवरण में लपेटते
हुए बोले, “जब हम दोनों शहर में पढ़ते थे...!” लेकिन मुझे कुछ याद नहीं आ रहा
था...मित्र ने याद दिलाने की कोशिश की, “अरे भाई...जब हम दोनों किसी काम से शहर के
ही एक कालेज में गए थे...उस समय हम दोनों के बीच में एक ही साइकिल हुआ करती
थी....” मित्र के इतना कहते ही मुझे वह पूरी घटना याद आ गई..! जो इस प्रकार थी...
....हम दोनों उन दिनों पढ़ाई के लिए शहर में
एक साथ रहते थे...हमारे बीच वही एक साइकिल थी जिसे हम बारी-बारी से इस्तेमाल कर करते
थे..! हाँ वह साइकिल मित्र की ही थी...उस दिन कालेज के बाहर साइकिल खड़ी कर हम कालेज-कैम्पस
में चले गए थे...कुछ देर बाद वापस आने पर हमें अपनी साइकिल नहीं मिली...! हम
परेशान हो उठे...हमारी साइकिल को कोई उठा ले गया था...! हाँ...साइकिल चोरी हो चुकी
थी...हमें गुस्सा भी बहुत आया था...! फिर वहीँ कालेज के बाहर हम दोनों एक पीपल के
पेड़ के नीचे बैठ आपस में बातें करते जा रहे थे...कि...अचानक हम दोनों को वहीँ से एक
साइकिल चुराने की बात सूझ गई...! फिर हमने तय करना शुरू कर दिया कि कौन सी साइकिल
उठाई जाए...! अकस्मात् मेरी निगाह एक पुरानी सी साइकिल पर...जो कालेज की
बाउंड्रीवाल के सहारे उपेक्षित सी खड़ी थी...पड़ी...! हम दोनों ने उसी साइकिल को
उठाने का निश्चय किया...! हममें अब इस बात पर उधेड़बुन मची थी कि कैसे उस साइकिल को
ले आएं..! यह सोचते-सोचते काफी देर तक उस साइकिल को देखते हुए हम यूँ ही बैठे
रहे...|
...तभी हमने देखा...! बेहद गरीब सा दिखाई
देने वाला एक विकलांग लड़का उस साइकिल के पास आया और उस साइकिल को ले चल पड़ा...! हाँ...यह
साइकिल उसी की थी, ध्यान से उसे जाते हम देखते रहे..! हम दोनों ने एक दूसरे की ओर
देखा और अपनी मद्धिम हँसी को दबा दिए लेकिन अगले ही पल हम सिर नीचा कर जमीन की और
देखने लगे थे...! फिर...हम अपने-अपने चेहरे उठा एक दूसरे को देखते हुए खिलखिला कर
हँस पड़े थे...! उस समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हम किसी अप्रत्याशित सी मिली ख़ुशी की
अनुभूति पा हँस पड़े हों...!
इतने वर्षों पूर्व की वह घटना मेरे
स्मृति-पटल पर पूरी तरह जीवंत हो उठी थी...! तभी मित्र की आवाज सुनाई पड़ी,
“बताओं...उस दिन एक पल में हम चोर बन गए होते..! साइकिल चोर..!! फिर तो...हम आज
यहाँ न होते...” “हाँ यार..पल भर में हम
क्या से क्या बन गए होते...” मेरे मुँह से निकला| मित्र ने कहा, “देखो...मैंने
कहीं पढ़ा था कि हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाने वाली एक बहुत ही महीन सीमा रेखा
होती है...अर्थात् हमारे द्वारा कोई अपराध कारित होने या न होने के बीच एक बहुत ही
महीन विभाजक रेखा होती है, यदि इसे हम पहचान न पाए तो क्षण भर में हम अपराधी बन
जाते हैं तथा हमारा व्यवहार क्या से क्या हो जाता है!” “इसका मतलब उस दिन हम इस
सीमा रेखा को पहचान गए थे...!” मैंने थोड़ा विनोद भाव से कहा| “नहीं यार..अपनी बात
छोड़ों..मैंने तो इसलिए उस घटना को याद दिलाया कि हो सकता है यही बातें उस बैंक में
चोरी की नियत से घुसे उस व्यक्ति पर भी लागू हों...”
मित्र के इतना कहते ही मैं कह उठा, “हाँ
यार..! एक-दम सही कहा...हो सकता है कि वह व्यक्ति बैंक वाली घटना के बाद अपने मानस-पटल
के उस महीन झीने से विभाजक आवरण को पहचान जाए जो पल भर में हमारे व्यवहार को बदल
हमें अपराधी बना देते हैं..!” मैंने एक गहरी स्वांस भरते हुए पुनः कहा, “फिर तो
उसे उस दिन की सजा नहीं मिलनी चाहिए बल्कि उसे समझने और समझाने का अवसर मिलना
चाहिए...|”
मेरी
यह बात सुनते ही मित्र महोदय उछलते हुए से बोल पड़े, “आपने तो मेरे मुँह की बात एकदम
से छीन ली...! यही तो मैं कहना चाहता था...इसीलिए मैंने तुम्हें हमारी वाली घटना
की याद दिलाई...हाँ सजगता पूर्वक हमें अपने हर उस पल का पहचान करते रहना चाहिए जब
हम किसी निर्णय प्रक्रिया से गुजर रहे हों क्योंकि उस बेहद झीनी सी सीमा रेखा के
इस पार से उस पार जाने पर क्षण भर में हमारे व्यवहार की परिभाषा बदल जाती है..! और
क्या कहा था..? हाँ.....यदि संभव हो तो किसी को अपने व्यवहार को समझने और समझाने
का अवसर दे देना चाहिए..!”
अंत में मित्र फिर बोले, “बस यही सब उलझन
था मेरे मन में, जो अब दूर हो गया है, उस बेचारे को भी यह अवसर मिलना चाहिए, अब तुम
जा सकते हो..” मैं भी थोड़ा बनावटी क्रोध दिखाते हुए बोला, “अच्छा..! instrument का
काम अब खतम...! लेकिन यार पहले चाय-वाय पिलाओ तब मैं जाऊँगा..” दोनों एक साथ हँस
पड़े..|
--------------------------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें