आज अलसुबह जैसे ही नींद टूटी मेरे मन में पहला विचार यही आया "चलो सुबह हो गई"। मतलब, जब तक जीवन है, तो सुबह होती ही रहेगी..फिर अंधेरों को लेकर क्या चिंतित होना..! दरअसल रात में सोने के पहले दिमाग में चिंता की आड़ी-तिरछी रेखाएं उभर आयी थी, इन्हीं रेखाओं के मिटने का अहसास सुबह उठते ही हुआ था, मने 'रात बीती, बात बीती' टाइप से। सच तो यह है, यह जीवन अपने ही हिसाब से चलता है, इसके साथ दाँव-पेंच तो हम खेलते हैं, और फिर इसमें उलझते हैं।
हाँ, आज छह तेईस पर टहलने निकला था। बाहर बेहद गलन थी, हाथ तो जैसे सुन्न हो रहा था, दूर सड़क के किनारे आग जलती हुई दिखी, मन हुआ चलकर हाथ सेंका जाए, लेकिन पास पहुंचने पर देखा, गत्ते जलाकर, दो लोग ताप रहे थे, गत्ते जलने की गंध पसंद नहीं आयी और मैं आगे बढ़ लिया। खैर, चलते-चलते हथेलियों को आपस में रगड़ कर गर्मी पैदा करने लगा था।
लौटते समय जिला अस्पताल पर निगाह चली गई। तस्वीर ले ली।
लौटकर चाय बनाने के लिए किचन में गया तो डस्टबिन में पड़े कूड़े की गंध नथुनों में पड़ी, इसे लेजाकर बाहर फेंका और उस डस्टबिन को धुलकर पुनः उसके स्थान पर रख दिया।
चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगा, प्रमुख खबर थी, किसी "आतंकी माड्यूल का पर्दाफाश"। इसे पढ़कर पुनः "भक्ति" को लेकर मन खिन्न हो गया, इसके प्रभाव में हम मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं..!! दरअसल, जो समाज अपने लोगों के बीच से ऐसे लोगों को पैदा होने देता है, उसे हम "बीमारू-समाज" मान सकते हैं। आज इक्कीसवीं शताब्दी में, जब हम ब्रहमांड में जीवन के रहस्यों को जानने की ओर बढ़ चले हैं, तो फिर मध्ययुगीन-मानसिकता में जीने का क्या औचित्य है..? खैर..
ऐसा इसलिए है कि, छोटी-छोटी बातों पर हम ध्यान ही नहीं देते और उनकी ओर से मुँह फेर "ऊँह" करके चल देते हैं।
आज गुफ्तगू का नौवां अंश नहीं दे पा रहा हूँ, किसी अगली सुबहचर्या में चर्चा कर लेंगे।
#चलते_चलते
जब आप को कुछ भी समझ में न आए, तो अपने आसपास की छोटी से छोटी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दें, और नहीं तो डस्टबिन में पड़े कूड़े को ही स्वयं फेंक आयें।
#सुबहचर्या
(27.12.18)
हाँ, आज छह तेईस पर टहलने निकला था। बाहर बेहद गलन थी, हाथ तो जैसे सुन्न हो रहा था, दूर सड़क के किनारे आग जलती हुई दिखी, मन हुआ चलकर हाथ सेंका जाए, लेकिन पास पहुंचने पर देखा, गत्ते जलाकर, दो लोग ताप रहे थे, गत्ते जलने की गंध पसंद नहीं आयी और मैं आगे बढ़ लिया। खैर, चलते-चलते हथेलियों को आपस में रगड़ कर गर्मी पैदा करने लगा था।
लौटते समय जिला अस्पताल पर निगाह चली गई। तस्वीर ले ली।
लौटकर चाय बनाने के लिए किचन में गया तो डस्टबिन में पड़े कूड़े की गंध नथुनों में पड़ी, इसे लेजाकर बाहर फेंका और उस डस्टबिन को धुलकर पुनः उसके स्थान पर रख दिया।
चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगा, प्रमुख खबर थी, किसी "आतंकी माड्यूल का पर्दाफाश"। इसे पढ़कर पुनः "भक्ति" को लेकर मन खिन्न हो गया, इसके प्रभाव में हम मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं..!! दरअसल, जो समाज अपने लोगों के बीच से ऐसे लोगों को पैदा होने देता है, उसे हम "बीमारू-समाज" मान सकते हैं। आज इक्कीसवीं शताब्दी में, जब हम ब्रहमांड में जीवन के रहस्यों को जानने की ओर बढ़ चले हैं, तो फिर मध्ययुगीन-मानसिकता में जीने का क्या औचित्य है..? खैर..
ऐसा इसलिए है कि, छोटी-छोटी बातों पर हम ध्यान ही नहीं देते और उनकी ओर से मुँह फेर "ऊँह" करके चल देते हैं।
आज गुफ्तगू का नौवां अंश नहीं दे पा रहा हूँ, किसी अगली सुबहचर्या में चर्चा कर लेंगे।
#चलते_चलते
जब आप को कुछ भी समझ में न आए, तो अपने आसपास की छोटी से छोटी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दें, और नहीं तो डस्टबिन में पड़े कूड़े को ही स्वयं फेंक आयें।
#सुबहचर्या
(27.12.18)
जवाब देंहटाएंشركة تنظيف بالقصيم