आज सुबह टहलने निकला तो मन बेहद शान्त था ! हृदय में कहीं कोई हलचल नहीं, तेज डग भरते हुए सुबह को नाप रहा था। यूँ ही उस छोटे से तालाब पर निगाह पड़ी, जिसमें पानी भरे होने पर कभी मैंने कमल खिले हुए देखा था - उसमें मिट्टी भराई का काम शुरू करके अधूरा छोड़ दिया गया था, शायद भविष्य में उस तालाब में कोई निर्माण होगा, और विकास के नए पैमाने में उस तालाब का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। लौटते समय सड़क पर एक सांप किसी वाहन से कुचला हुआ दिखायी दिया, उसकी पूंछ ऐंठ रही थी, शायद अभी पूंछ में जान बाकी थी। उसके थोड़े से आगे बढ़ने पर वह छिछला चौड़ा नाला टाइप का स्थान दिखाई दिया जिसमें बरसात के दिनों में पानी भरे होने के कारण जिसे मैं दूर से आता नाला समझ बैठा था और कभी उसमें खूबसूरत कुमुदिनियों के खिले होने की तस्वीरें ली थी, हाँ अब उसी में मकान बन रहे हैं, बारिश के दिनों में अब उसमें पानी नहीं भरेगा और न ही कुमुदिनी खिलेगी ! खैर।
आवास पर लौट आया था, चाय-वाय पिया और "संस्कृति और सभ्यता" शीर्षक किताब जो हाल के दिनों में खरीदकर लाया था, उसके दो चार पन्ने पलटे।
"मैं अकेलापन चुनता नहीं, स्वीकार करता हूँ" अज्ञेय की इस टीप को स्मरण करते हुए नन्दकिशोर आचार्य अपनी पुस्तक "संस्कृति की सभ्यता" में गाँधी जी के अन्तिम दिनों के बारे में सोचते हैं -
"लेकिन अकेलापन शायद गाँधी जी की स्वाभाविक नियति है। सत्य की राह पर चलने वाले अकेले हो जाने को मानो अभिशप्त होते हैं। यह कितना विडंबनापूर्ण है कि हिन्दुत्ववादी उनसे इसलिए नाराज थे कि वे दलितों और मुसलमानों की उन्नति और सुरक्षा की बात करते थे। मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उनसे नाराज था कि वे पाकिस्तान की अवधारणा के विरोधी थे। और अब दलित उनसे इसलिए नाराज हैं कि उनकी राय में वे सवर्णवादी हैं। धर्मनिरपेक्षतावादी नाराज हैं क्योंकि वह धर्म की भाषा में बात करते हैं। धर्मवादी नाराज हैं क्योंकि वह राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखना चाहते हैं। दरअसल, गाँधी तब भी अकेले थे और आज भी अकेले हैं। ऐसा व्यक्ति सदैव अकेला ही रहेगा जिसे दूसरे केवल अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकें। वह जिस हद तक हमारे लिए सुविधाजनक है, उस हद तक आदरणीय है - लेकिन जब उसके विचार या व्यक्तित्व हमारे लिए असुविधाजनक होने लगे तब उसे अकेला छोड़ देने में ही सुरक्षा है - यदि मिटाया न जा सके। अकेला छोड़ देना भी प्रकारांतर से मिटाना ही है। प्रसाद ने कहीं लिखा भी है कि "उपेक्षा घोर शत्रुता है।"
पढ़े हुए इस अंश को मैं यहाँ अपनी सुबहचर्या में इसलिए शेयर कर रहा हूँ, कि गाँधी जी के अकेलेपन का विश्लेषण करती हुयी ये पंक्तियाँ मुझे सटीक लगीं।
# चलते_चलते
जीवन तो गतिमान होता ही है, लेकिन जो इस गति में इस्तेमाल होने लगता है वह खतम हो जाता है, और जो नहीं वह अकेला।
#सुबहचर्या
(19.3.19)
आवास पर लौट आया था, चाय-वाय पिया और "संस्कृति और सभ्यता" शीर्षक किताब जो हाल के दिनों में खरीदकर लाया था, उसके दो चार पन्ने पलटे।
"मैं अकेलापन चुनता नहीं, स्वीकार करता हूँ" अज्ञेय की इस टीप को स्मरण करते हुए नन्दकिशोर आचार्य अपनी पुस्तक "संस्कृति की सभ्यता" में गाँधी जी के अन्तिम दिनों के बारे में सोचते हैं -
"लेकिन अकेलापन शायद गाँधी जी की स्वाभाविक नियति है। सत्य की राह पर चलने वाले अकेले हो जाने को मानो अभिशप्त होते हैं। यह कितना विडंबनापूर्ण है कि हिन्दुत्ववादी उनसे इसलिए नाराज थे कि वे दलितों और मुसलमानों की उन्नति और सुरक्षा की बात करते थे। मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उनसे नाराज था कि वे पाकिस्तान की अवधारणा के विरोधी थे। और अब दलित उनसे इसलिए नाराज हैं कि उनकी राय में वे सवर्णवादी हैं। धर्मनिरपेक्षतावादी नाराज हैं क्योंकि वह धर्म की भाषा में बात करते हैं। धर्मवादी नाराज हैं क्योंकि वह राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखना चाहते हैं। दरअसल, गाँधी तब भी अकेले थे और आज भी अकेले हैं। ऐसा व्यक्ति सदैव अकेला ही रहेगा जिसे दूसरे केवल अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकें। वह जिस हद तक हमारे लिए सुविधाजनक है, उस हद तक आदरणीय है - लेकिन जब उसके विचार या व्यक्तित्व हमारे लिए असुविधाजनक होने लगे तब उसे अकेला छोड़ देने में ही सुरक्षा है - यदि मिटाया न जा सके। अकेला छोड़ देना भी प्रकारांतर से मिटाना ही है। प्रसाद ने कहीं लिखा भी है कि "उपेक्षा घोर शत्रुता है।"
पढ़े हुए इस अंश को मैं यहाँ अपनी सुबहचर्या में इसलिए शेयर कर रहा हूँ, कि गाँधी जी के अकेलेपन का विश्लेषण करती हुयी ये पंक्तियाँ मुझे सटीक लगीं।
# चलते_चलते
जीवन तो गतिमान होता ही है, लेकिन जो इस गति में इस्तेमाल होने लगता है वह खतम हो जाता है, और जो नहीं वह अकेला।
#सुबहचर्या
(19.3.19)
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