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रविवार, 2 फ़रवरी 2020

पलों की पहचान

आज सुबह टहलते हुए मेरे पदचाप खरामा-खरामा जमीन पर पड़ रहे थे, जैसे किसी अबूझ पहेली को समझने का प्रयास कर रहे हों। वाकई, जैसे-जैसे हम बुद्धिमान होते जा रहे हैं वैसे-वैसे हमारा जीवन एक अजीब सी अफरा-तफरी में फँसता जा रहा है। सोचता हूँ, क्या बुद्धिमत्ता हमें एक अज्ञात भय की ओर भी ढकेलती है? वैसे मान्यता तो यह है कि बुद्धि समस्याओं का हल खोज लेती है। खैर चलिए जो भी हो, इतना जरूर है आज का यह बुद्धिमान प्राणी यानी आदमी स्वयं से दूर होता जा रहा। स्वयं उसे भी नहीं पता कि वह कहाँ जा रहा है। इस तरह टहलते हुए सुबह-सुबह मैं भी अपनी मंजिल के बारे में सोच रहा था और कुछ भी समझ में न आने पर जमीन पर पैर खरामा-खरामा पड़ते जा रहे थे।


        यूँ ही मेरी दृष्टि पेड़ों और घरों के ऊपर उठ आए सूरज पर पड़ी..यही सूरज ढलते हुए साँझ का सूरज भी बन जाएगा। वैसे मुझे अस्त होते हुए सूरज में उदयमान सूरज से कहीं अधिक सौन्दर्य नजर आता है..हाँ एकदम रहस्यमयी दुनियाँ में खोने जैसा..!


          खैर.. देखिए न, मैं आज आप से कितनी निरर्थक बातें कर रहा हूँ...हाँ एक दिन मैंने देखा अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त उम्र की ढलान पर चल रहे एक व्यक्ति ने अचानक चलती कार में से ही अपने मोबाइल से यूँ ही, पेडों के कतारों के बीच से गुजरती सड़क के सौन्दर्य की तस्वीरें कैद करने लगा था...शायद यही वह पल रहा होगा, जब वह अपने स्वयं के साथ था। मुझे लगा ऐसे ही पल उसके या किसी के भी जीवन के लिए मूल्यवान हो सकते हैं, बाकी चीजें तो धीरे-धीरे हमें ही खत्म कर रही होती हैं।
       
        एक बात है एक "बौद्धिक दृष्टिकोण" हमें अन्तिम रूप से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाता, शायद बुद्धि इस तरह किसी को तस्वीरें लेने से रोक सकती हैं या बुद्धि के प्रभाव में स्वयं मैं अस्ताचलगामी सूरज और पहाड़ों के दृश्य को निहारते हुए इन सब में सौन्दर्य का अहसास न कर पाता..!


          सच तो यह है, बुद्धि के प्रभाव में हम जबर्दस्त ढंग से दुनियादार हो उठते हैं..तार्किक होकर एक सीमा के पश्चात इस तर्क को ही "बौद्धिक धूर्तता" में बदल देते हैं।इसे मैंने आज सुबह अखबार की एक खबर पढ़ कर जाना। खबर यही थी कि किसी एक बड़े अधिकारी के घर से 225 करोड़ रूपए की सम्पत्तियों के दस्तावेज बरामद हुए। देखा ! बुद्धि का कमाल!! लेकिन एक बात जान लीजिए ऐसे लोग अपने "यूँ ही पलों" से महरूम हुए लोग होते हैं।


          हाँ इसी समाचार के ठीक नीचे एक और हेडिंग थी "इलाज के लिए भटक रही पुलवामा शहीद का माँ"! खैर, इन दोनों समाचारों में 'बुद्धि' और 'भावना' के अंतर का पता चलता है और यह भावना पर बुद्घि का जबर्दस्त व्यंग्य है। प्रायः भावना में बहने वाले लोग समय की पर्तों में गुमनामी के साथ खोते चले जाते हैं, फिर भी इनका अस्ताचल सौन्दर्य से भरा होता है!  जिसमें नीरव शान्ति छिपी होती है..!!


#चलते_चलते


        अपने "यूँ ही पलों" की पहचान करते हुए चलिए! ये कभी न खत्म होने वाले पल होते हैं "


#सुबहचर्या
(14.3.18)

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