बात उन दिनों की है तब मुझे बालक या बच्चा कुछ भी कह कर संम्बोधित किया जा सकता था। घर के सामने दो अमरूद के पुराने पेड़ थे। एक पेड़ का अमरूद अधपके में ही मीठा लगता तो दूसरे का पक जाने पर। हमें जब भी मौका मिलता, जैसे घर पर जब कोई बड़ा नहीं होता तो इन पेड़ों पर चढ़कर मीठे टाइप के अमरूद के फलों को खोजकर तोड़ लाते, दिन में एक दो बार अकसर हम ऐसा करते। यही नहीं स्कूल से आने पर एक बार इन पेड़ों पर नजर मार आते। ऐसे ही अन्य बच्चे भी करते थे। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक इन पेड़ों पर एक भी फल बचा होता। कभी-कभी ऐसा भी होता किसी एक फल पर पर जब दो बच्चों की निगाह पड़ती तो उनमें से जो पहले उसे तोड़ लेता उसका ही अधिकार उस अमरूद पर होता। कई बार किसी पके अमरूद को देख उसे तोड़ने के फिराक में जब कोई बच्चा पेड़ पर चढ़ता तो दूसरा बच्चा नीचे से लग्गी लगाकर उस अमरूद को तोड़ लेता, फिर विवाद से बचने में उन दो प्रतिद्वन्द्वी बच्चों में वह अमरूद आधा-आधा बंटता। खैर...
उन्हीं दिनों मेरे दिमाग में अमरूद का पेड़ लगाने की बात सूझी। तब मैं छोटा था, अपनी इस इच्छा को मैं किसी से व्यक्त नहीं किया लेकिन खेलते-कूदते यदि कहीं कोई छोटा पौधा दिखाई पड़ता तो मैं अमरूद का पौधा होने के सम्बन्ध में उसकी पूरी तरह पड़ताल करता। उस पौधे को अपने दादाजी को दिखाता तब वह किसी घास का पौधा निकलता और फिर मैं अमरूद के पौधे की खोज में लग जाता।
ऐसे ही एक बार, जब हम अपने हम-उम्र बच्चों के साथ खेलने में मगन थे तो, अचानक बड़ी-बड़ी सी घासों के बीच चार-पाँच इंच के एक नन्हें से पौधे पर मेरी निगाह पड़ गई थी। उत्सुकतावश वहीं पर बैठकर, मैं उस पौधे ध्यान से देखने लगा था। इस पौधे की छोटी-छोटी गाढ़ी कत्थई रंग की चमकीली-चमकीली सी पत्तियाँ मुझे बहुत खुबसूरत लगी थी। जैसे, मुझे यह विश्वास हो चला था कि हो न हो यह अमरूद का ही पेड़ होगा। फिर दौड़ कर मैं खुरपी लाया और इसकी सहायता से सावधानी पूर्वक मिट्टी सहित इस पौधे को वहाँ से निकाल लिया था। मेरे दादा जी ने भी इसके अमरूद का पौधा होने की पुष्टि कर दिया था।
फिर, बहुत जतन के साथ मैंने इस पौधे को रोप दिया था। धीरे-धीरे यह बड़ा होता रहा। गर्मियों में, प्रतिदिन मैं इसे सींचता था। मुझे आज भी याद है, जब मई-जून के महीने में इसमें नई-नई कोंपलें निकल आया करती तब मैं बहुत खुश हुआ करता। धीरे-धीरे अमरूद का यह पौधा इतना बड़ा होने लगा था कि इस पौधे का तना दो टहनियों में विभक्त हो चुका था। एक दिन अचानक जब इस पौधे पर मेरी निगाह पड़ी तो देखा, इसकी एक टहनी तने से फटी हुई सी जमीन की ओर झुकी हुई थी। फिर मैंने रस्सियों से इस टहनी को तने के साथ बाँध दिया था। संयोग से कहीं से मुझे हाथ में पहना जाने वाला एक स्टील का कड़ा मिल गया था, जिसके बीच दोनों टहनियों को डालकर एक दूसरे को सहारा दे दिया था। वह पेड़ ऐसे ही बड़ा होता रहा, मैंने फिर उस कड़े नहीं निकाला। बाद में अमरूद के पौधे का वह तना इतना मोटा होता गया कि स्टील का वह कड़ा उस तने के बीच में ही खो गया था। अब वह अमरूद का पौधा पेड़ बन चुका था उसमें फल आने लगे थे, जो बेहद मीठे होते। समय बीत रहा था, मैं भी पढ़ने शहर चला गया था। फिर मुझे नौकरी मिली। अब घर जाना थोड़ा कम हो चुका था। लेकिन जब भी घर जाता इस पेड़ की पत्तियों को छूकर, जैसे सहलाते हुए अमरूद के इस पेड़ से अपने लगाव का अहसास करता। जैसे इस पेड़ से मेरा कोई रिश्ता सा बन चुका था।
ऐसे ही उस दिन भी मैं घर पहुँचा था। मेरी निगाह उस अमरूद के पेड़ को तलाश रही थी। मैं भौंचक देखता रह गया था। अमरूद के उस पेड़ को जड़ के पास से कटवा दिया गया था। मैं जैसे सन्नाटे में आ गया था। मैंने कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया कि घर के विस्तार में इस पेड़ से अड़चन पड़ने के कारण उस अमरूद के पेड़ को कटवा दिया गया था। मैंने अनुभव किया कि, फिर भी, उस पेड़ को बचाया जा सकता था। मेरी आँखें पसीज सी गई थी। मैंने अपनी भावनाओं को जज्ब कर लिया था। किसी को कुछ भी अहसास नहीं होने दिया। बस मुझे ऐसा अहसास हुआ जैसे किसी रिश्ते पर कुल्हाड़ी चलाई गई हो। आखिर यह अमरूद का पेड़ पिछले तीस वर्षों से मेरे साथ था, जिसे मैंने रोपा था..मैंने सींचा था...लेकिन जो सबका भी था।
मैं जानता हूँ..परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, लेकिन यह परिवर्तन किसी रिश्ते की कीमत पर नहीं होना चाहिए। चाहे वह किसी पेड़ से ही क्यों न हो.....
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