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बुधवार, 9 नवंबर 2016

अपने-अपने आभामंडल

        अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग होते हैं। कुछ लोग अपने आभामंडल के प्रति बड़े जागरूक होते हैं। वैसे भी इस सम्बन्ध में हम अपने देवताओं से ही सीख लेते पाए गए हैं। जिस देवता का जितना बढ़िया आभामंडल होता है हम उस देवता की उतनी ही पूजा करते हैं। उतना ही चढ़ावा मिलता है। अभी आप फेसबुक पर देखिए तो हम जैसे लोग यहाँ भी आकर अपने-अपने आभामंडल को बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते समझे जा सकते हैं। 

           कोई कुछ समझा जाए! इस चक्कर में, कोई शूर-वीर, तो कोई आदरणीय-सम्माननीय, तो कोई स्वघोषित दानवीर, तो कोई स्वनामधन्य ख्यातिलब्ध टाइप हरकतें करते हुए पाया जाता है। हाँ, कुछ-कुछ इसी टाइप से लोग सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और जैसे अपने हाथ में कोई कटोरा लिए हुए दाता के नाम पर देने की प्रार्थना करते हुए दिखाई देते हैं। 

             वाकई! हम बड़े प्रतिभाशाली हैं, हमारी प्रतिभा का सम्मान तो होना ही चाहिए। लेकिन कुछ लोगों की महानता और अच्छाई को देखकर मुझे अपने ऊपर कोफ्त सी होती है कि आखिर मैं ऐसा क्यों न हो सका? किसी की दरियादिली देख-सुनकर मुझे अपनी बेदरियादिली कचोटने लगती है। 

               अब यही बात ले लीजिए, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, और भीख देना लगभग पसंद ही नहीं है। ऐसे में कई बार जेब में सिक्के न होने की सोचकर भी मन को, भीख न दे पाने के पापबोध से बचा लेता हूँ। अभी एक सुदूर धार्मिक यात्रा पर निकला था, वहाँ एक महिला अपने छोटे बच्चे का हाथ पकड़े हुए जब अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास करते हुए भीख देने की गुहार की तो मैंने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की थी। फिर भी वह मानी नहीं थी और बोली, "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर जब उसकी ओर मुड़कर देखते हुए मैंने कहा, "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़ते हुए से वह यह कहते हुए कि "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी।

              हाँ, ऐसे ही मैं अपनी पूरी यात्रा में भीख माँगने वालों को नजरअंदाज करता रहा था। ट्रेन में एकाध अंधे पर अनमने ही सही कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरे दयालु होने के उत्साह पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे,ये सब बने होते हैं, ऐसे ही जब मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी तो ट्रेन रूकने पर वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था...पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" इस बात पर मैं बोला तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन मुस्कुराते यह अवश्य सोचा था कि "यदि ऐसे भिखमंगे को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक तो जीत ही लें! खैर...

               ट्रेन में ही मेरे जैसे एक अन्य सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात को समझने का प्रयास किया और ट्रेन की खिड़कियों से पीछे भागते जमीन और पेड़ आदि को देखते हुए यह सोचते जा रहा था कि जब हम कैसे चीजों को पीछे छोड़ते हुए चलते हैं और इसी गति में खो गया था। 

              थोड़ी देर बाद सही में, ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." सुन मैंने ध्यान से उस ओर देखा तो एक शख्स को उन तालीबाजों को नोट देते हुए देखा।इधर मैं मन में निश्चय करने लगा था कि इन्हें एक पैसा नहीं देना है...जब भिखमंगों बेचारों को नहीं दिया तब इन्हें देना तो एकदम ऊसूलों के खिलाफ होगा..और एकदम कायराना..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही देना उचित मानने लगने लगा..! हालाँकि इनकी अश्लीलता भरी छेड़खानी से भी डर लग रहा था.. इसी डर से वे जिसकी ओर हाथ बढ़ाते वही दस का नोट निकाल कर दे देता। यात्रियों से उन्हें इस तरह ताली बजाते, पैसे लेते देख, इसे एक तरह की गुंडागीरी समझ मैं रेलवे की व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, मेरे पास से गुजरते हुए, इनने साथी कश्मीरी यात्री की ओर हाथ बढ़ा कर दस का नोट ले लिया। इसी तरह से दो-तीन बार हुआ वही बेचारे कश्मीरी सहयात्री ही इन्हें दस का नोट देते रहे। हाँ, एक बात थी इन लोगों ने मेरी ओर एक बार भी हाथ नहीं बढ़ाया था। और इस प्रकार मैं अपने धर्मसंकट को बचा गया था लेकिन भिखमंगे को दुत्कारने वाले यात्री को दस का नोट देना ही पड़ गया था। 

               एक बात है भिखमंगई भी एक प्रकार की हिजड़ागीरी ही है। जो जितना बड़ा हिजड़ा वह उतना बड़ा भिखमंगा..! और, एक तथ्य और...ये ताली बजा-बजाकर भीख ले लेते हैं। यह सब अपने-अपने तरीके के आभामंडल का भी कमाल है।    

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