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बुधवार, 9 नवंबर 2016

अपने-अपने परिभ्रमणीय पथ

              आज सवा पाँच बजे "मार्निंग वाक" के लिए निकले थे। धीरे-धीरे दिन छोटा रात बड़ी होने लगी है। इसलिए अभी अँधेरा था। करीब सात-आठ मिनट की दूरी तय करने के बाद देखा रास्ते के किनारे पड़ने वाले एक कार्यालय के सीमेंटेड बेंच पर दो महिलाएँ बैठी इत्मीनान से आपस में बतिया रही थी। मैंने सोचा निश्चित रूप से ये महिलाएँ अल-सुबह टहलने के लिए ही निकली होंगी, लेकिन यहाँ टहलने का काम भूल गप्पबाजी में मशगूल हो गई हैं। वास्तव मे, औरतों की हो सकता है यह आदत ही हो कि, जहाँ दो इकट्ठी होंगी, वहाँ अपना सब काम छोड़कर बतियायेंगी ही...

           खैर,  मेरी इस धारणा को पढ़कर कुछ नारीवादियों को कोफ्त हो सकती है कि मैं महिलाओं पर गलत चार्ज फ्रेम कर रहा हूँ..! लेकिन इसकी तुलना पुरुषों से करते हुए सिद्ध कर सकता हूँ कि पुरुष ऐसे नहीं होते...अब यहीं स्टेडियम में ग्रुप में पुरुष टहलते हैं, और टहलते हुए आपस में खूब बतियाते भी हैं, लेकिन इस बतियाने के चक्कर में अपना टहलने वाला काम नहीं छोड़ते...खैर.. 

            मेरा यहाँ उद्देश्य, स्त्रियों को नीचा दिखाना नहीं है। बेचारी ये स्त्रियाँ अपने घरेलू कार्यों में इतनी उलझी हुई होती हैं कि इन्हें फुर्सत में बतियाने का मौका ही नहीं मिल पाता...और दूसरे, अधिकांशतया इनका दायरा भी सीमित ही होता है.. आखिर बतियाएँ भी तो किससे..! इसीलिए जब दो-चार इकट्ठी हो जाती हैं तो ये स्त्रियाँ बेचारी अपने सारे काम भूल कर बतियाने की अपनी भड़ास निकाल लेती हैं। जबकि वहीं पुरुष अपने काम-धाम के चक्कर में, उसे दिनभर कहीं न कहीं गप्पबाजी का अवसर मिल ही जाता है। 

            इन्हीं विचारों के साथ मैंने स्टेडियम में प्रवेश किया अब झुलफुले की आहट मिलने लगी थी...हवाओं में कुछ गति थी, पेडों की पत्तियों से सरसराहट सुनाई पड़ रही थी और हवाओं के शरीर छूकर निकलने का अहसास हो रहा था...कुल मिलाकर अच्छा भी लग रहा था... इधर तीन-चार दिन बाद स्टेडियम भी आया था... सोचा हमारी धरती दिव्य है..!!

         जैसा कि रोज ही होता है, चाय बनाता हूँ.. पीता हूँ..और फिर अखबार पढ़ता हूँ...सो अखबार पढ़ना चालू किए -

             बाकी आप जानते ही हैं कि अखबार पढ़ने पर क्या मिलता है..वही सब बातें जिनसे हम पीछा छुड़ाना चाहते हैं..सबेरे-सबेरे बे-फालतू की बातों की चर्चा कर आपका मूड खराब करने का कोई इरादा नहीं है... हाँ, एक बात पढ़ कर थोड़ा रोमांचित और उद्वेलित अवश्य हुआ...वह कि.. "ब्रह्मांड में दो लाख करोड़ आकाशगंगाएं" मतलब मतलब पूर्व के अनुमान से बीस गुना अधिक आकाशगंगाएं हैं। पहले तो दसी हजार का अनुमान था! एक बात और है, मौजूदा तकनीक से हम मात्र दस फीसदी हिस्से का ही अध्ययन कर पाते हैं..! 

       देखा भाई लोग!  ये है हमारा अनन्त ब्रह्मांड...लेकिन मेरा अपना मत है कि अनन्त आकाशगंगाएं हैं..कोई गिनती नहीं...!! और हम इसके सामने कितने तुच्छ हैं कि माइक्रोस्कोप या सूक्ष्मदर्शी से देखें तो अपनी पृथ्वी ही न दिखाई पड़े..फिर भी हम अपने को ही ब्रह्मांड मान ऐंठे रहते हैं...

            इधर फेसबुक भी अपना एक ब्रह्मांड लिए फिर रहा है...! इसका हाल तो कुछ मत पूँछिए..! यहाँ की आकाशगंगाएं और उसके ग्रह-नक्षत्र परस्पर एक दूसरे को विरोधी मानकर एक-दूसरे के परिभ्रमण पथ पर अपने गुरुत्वाकर्षणीय प्रभाव को जबर्दस्ती डालने से बाज नहीं आते..लगातार एक दूसरे के परिभ्रमण पथ को प्रभावित करने की कोशिश में लगे रहते हैं..! बेचारा, अगर कोई कमजोर पड़ जाए तो अपना परिभ्रमण पथ छोड़कर पलायित हो लेता है..और कुछ ऐसे भी हैं, जो किसी की चमक का ऐसा अहसास करते हैं कि दिन-रात कुढ़न में उसके ऊपर धूमकेतुओं की ऐसी बौछार करते हैं कि उसकी सारी चमक और उर्जा फीकी पड़ जाए..!  यहाँ सभी तो आकाशगंगा की तरह अपने-अपने ग्रह और नक्षत्र बना लिए हैं...

         बेचारा यह अनन्त ब्रह्मांड होता रहे अनन्त..! लगाते रहें इसके ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी कक्षा में चक्कर..! लेकिन रहेगा यह अदना का अदना ही क्योंकि अनन्त काल से इसने जैसे कुछ सीखा ही नहीं...कि, किसी के परिभ्रमण पथ पर कैसे अड़ंगा लगाया जा सकता है..!

          लेकिन इससे हमें क्या फर्क पड़ता है..हमने, हमारा रचा ब्रह्मांड अदना नहीं है..इस फेसबुकीय ब्रह्मांड में ब्रह्मांडीय नियम लागू ही नहीं होते...हम अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते..! 

           चलते-चलते - 

            

               भाई मेरे!  सबके अपने-अपने परिभ्रमणीय पथ होते हैं.. सबको चलते रहने दो...इससे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला..!! जीवन की परिस्थितियाँ तो किसी संन्तुलित पथ पर ही उपजती है..!

             --Vinay 

             #दिनचर्या 23/15.10.16

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