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मंगलवार, 15 नवंबर 2016

अच्छे उद्देश्यों को प्रोत्साहित कीजिए

           अभी कल की बात है कई दिनों बाद स्टेडियम की ओर टहलने निकला था। आजकल सुबह-सुबह टहलने में मन आनाकानी करने लगा है। शायद बढ़ते शीत के प्रकोप को एडजस्ट करने में इसे समय लगेगा। खैर, मन का क्या, धीरे-धीरे परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल ही लेता है।
             जब स्टेडियम पहुँचा तो मुँह-अँधेरा था। ग्रुप वालों की कार खड़ी थी, इस कार से चार लोग प्रतिदिन टहलने आते हैं ये एक साथ ग्रुप में ही टहलते है, बल्कि यहाँ स्टेडियम में इनके साथ एक-दो लोग और हो लेते हैं। ये लोग बड़े आराम से गपियाते-बतियाते हुए खरामा-खरामा स्टेडियम के चार-पाँच चक्कर पूरे करते हैं। इन ग्रुप वालों की खड़ी कार देख मैंने सोचा, "ये बिना नागा यहाँ रोज आते हैं, जबकि हम तो बीच-बीच में गैप भी मार देते हैं।" एक बात है, इन्हीं की बातों को सुनकर कुछ लिखने की प्रेरणा भी मिल जाती है और लिखकर फेसबुक पर आपसे साझा कर लेता हूँ। इधर स्टेडियम की पट्टी पर टहलते हुए मैं अपने रौ में यहाँ रोज आने वालों को अकनते भी जा रहा था कि रोज आने वालों में कौन-कौन आए हैं..ऐसे कई लोग टहलते हुए मिले। इन्हें टहलते देख अपन भी टहलने के लिए उत्साहित हो उठते हैं।  खैर.. 
      
             चलते-चलते, ग्रुप के बगल से गुजरते हुए इनसे आगे बढ़ रहा था। इन लोगों की एक-दो जुमले जैसी बातें सुनने के लिए मैं लालायित रहता हूँ क्योंकि इन जुमलों की मदद से फेसबुक पर अपनी कुछ "बेवकूफियाँ" बघारने का मौका मिल जाता है। कई फेसबुक-पुरोधाओं के अनुसार लिखने के लिए बेवकूफी जैसे अनिवार्य तत्व की आवश्यकता होती है। इस सम्बन्ध में, मैं भी उनका अनुयायी ही हूँ। स्टेडियम की वाकिंग पट्टी पर एक धीर-गंभीर सीरियस टाइप के टहलगार की तरह मैं अकसर ग्रुप से आगे निकल जाता हूँ, लेकिन इस बीच मेरा मन इनके जुमलों को सुनने के लिए कुलबुलाता रहता है, सो इनकी बातों की ओर कान भी घुमाए रहता हूँ ।
          खैर.. आज भी इन लोगों का एक ऐसा ही जुमला कान से टकराया तो मेरी भी बेवकूफियों की तंन्द्रा जागृत हो उठी थी। मैंने उन्हें आपस में चहकते-गपियाते यह सुना, "बहुत बढ़िया! यह जो दो हजार का नोट निकला है न, यह लोगों के पास  आएगा तो अब इसे लोग बाहर भी निकालते रहेंगे...कोई अपनी आलमारी में गड्डियायेगा नहीं...कि पता नहीं कब यह भी बेकार घोषित कर दिया जाए.." हाँ, आज का यही जुमला मैं सुन पाया था और उनसे आगे निकल आया...चहकते बतियाते उनकी बात से मुझे एहसास हुआ कि ये नोट वापसी पर आपस में खूब मजे ले रहे हैं...इनकी बात से ऐसा लगा जैसे बैंक में लाईन लगाने इन्हें नहीं जाना है और निर्द्वन्द्व टाइप की अपनी बतकही में मस्त थे। 
           अब तक इनसे थोड़ा आगे निकल आया था..आगे तीन-चार महिलाओं में से एक, आपस में बतियाते हुए कह रही थी, "मेरी सास ने कहा..." आगे पूरी बात मैं स्पष्ट रूप से तो नहीं सुन पाया लेकिन कुछ-कुछ वह महिला अपनी सास की अधिनायकवादी बातों के सम्बन्ध में ही बतिया रही थी...इसे मैं बहुओं और सास के बीच की एक मनोवैज्ञानिक समस्या मानता हूँ और इससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन कभी-कभी तीसरा इसका बेजा फायदा उठा लेता है। खैर, यह कोई राष्ट्रीय समस्या नहीं है..इस समस्या को भुनाते हुए ये टीवी सीरियल वाले टैक्स चोरी कर जरूर अपनी कमाई बढ़ा लेते होंगे इसी मायने में यह राष्ट्रीय समस्या है। 
         स्टेडियम से लौटते समय कुछ लड़के टाइप के लोग मिले.. वे भी आपस में बतिया रहे थे, जो नोट वापसी की चिन्ता से परे दूसरे मुद्दे पर बात कर रहे थे। उनमें से एक को कहते सुना, "वो नेहरू ही भारत के बँटवारे की जड़ है..." तपाक से दूसरा बोला उठा था "अरे नहीं यार...ऐसा नहीं है..."  मुझे संतोष हुआ कि यहाँ हर बात को काटती बात और बातों के परे की बात भी मौजूद है..फिर कोई चिन्ता नहीं...कोई अपनी मनवा नहीं सकता...जैसे आजकल हमारी सोशल मीडिया पर का चक्कलस है!
           दरअसल आजकल, बात दर बात, बातों का जनतंत्र है, और बातों में नेता बनाने का दम होता है। आजकल बात में भी संख्याबल से ही शक्ति आती है बिना संख्या बल के बातों में दम नहीं आता। इसीलिए अपनी-अपनी बात को लेकर उछल-कूद मची रहती है। कोई बात न अच्छी होती है न बुरी..एकदम किसी नेता के अन्दाज में..! मतलब बातों में नेतागीरी के गुण भी होते हैं..कोई बात जब अपने समय, देश-काल में व्यावहारिक होते हैं तो वह बात चल निकलती है।जैसे कोई नेता चल निकलता है। दुनियाँ भर में आजकल दक्षिणपंथी बातें ट्रम्फ साबित हो रही हैं या अति आदर्शवादी बातों की जगह दो-टूक व्यावहारिक बातें जगह लेती जा रही हैं।
          खैर, सब कुछ बिजनेस टाइप भी है..इसमें भी कोई चिन्ता की बात नहीं क्योंकि हर बात बिजनेस करती है, ऐसे में किसी बात के ट्रम्फ हो जाने पर भी खुश होने की जरूरत नहीं है..इसके पीछे बाजार का भी माहौल होता है। बाकी सब समझदार हैं और बातों पर बारीकी से नजर तो रखते ही हैं...मतलब किसी बात की चिन्ता नहीं। हाँ अपनी-अपनी नजर की जरूर चिन्ता होनी चाहिए, नहीं तो बात फिसलती रहेगी। 
             टहलकर अपने आवास पर आया..रोज की भाँति चाय पीने की तलब लगी..इस तलब का नोट वापसी से कोई मतलब नहीं। किचेन में जाकर चाय बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी.. दूध में कुछ पानी मिलाकर गैस पर रखा...अदरक कूँचने लगा कि निगाह चाय के डिब्बे पर पड़ी..."अरे! इसमें तो चाय की पत्ती ही नहीं..वही ताजमहल वाली चाय अपने लिए स्पेशल रूप से रखता हूँ...डब्बे में इसके आधा चम्मच चूरे के तलछट के सिवा कुछ नहीं बचा था" अब बढ़िया चाय कैसे बनेगी?  इस समस्या के हल के लिए मैंने तुलसी की हरी पत्तियों का सहारा लिया और चाय का वह चूरा, तुलसी की पत्ती, अदरक मिलाकर चाय तैयार कर मजे से पीने लगा था.! असल में चाय की पत्ती न खरीद पाने के लिए प्रधानमंत्री ही दोषी हैं, न पाँच सौ, हजार के नोट बन्द किए होते और न चाय की पत्ती खरीदने में मेरे समक्ष समस्या खड़ी होती..मतलब यही नोट बंदी का भी मतलब..ताजमहल चाय के बिना तुलसी की चाय पी रहा था.. प्रधानमंत्री ने इस हालत में हमें लाकर छोड़ दिया है कि ताजमहल चाय की पत्ती नहीं खरीद पा रहे हैं! 
      
              समस्या! हाँ, आज ये 1000 और 500 के नोट ही समस्या बनकर खड़े हो गए हैं.. जबकि कभी यही नोट जेब की गर्मी बढा़ते चेहरे को, इन नोटों की गर्मी के गर्वोन्मत्त मुस्कान से भर देते थे..लेकिन आज चाय की पत्ती खरीदने के लिए तरस रहे हैं..! भरे रहे जेबों में ये नोट अब क्या फर्क पड़ता है.. बल्कि, अब इन्हें ही ठिकाने लगाने की चिन्ता सवार हो गई है। यही तो जीवन और मृत्यु का भी फलसफा है।इसी चिन्ता से सराबोर चाय पीते हुए मैंने घर फोन लगाया...
          हाँ, घर की चिन्ता हो आई थी.. घर में के नोटों की चिन्ता हो आई। असल में पिछले दिनों बैंक खातों पर हैकिंग की समस्या हुई थी। खासकर एसबीआई ने अपने एटीएम के पिन अचानक ब्लॉक कर दिए थे, मेरा एटीएम कार्ड घर पर होता है और जरूरत पर घर वाले ही यूज करते हैं...उस दिन रात नौ के आसपास श्रीमती जी बेहद झल्लाहट भरे आवाज में फोन पर कहा था, "अरे तुम्हारे एटीएम का पिन लाक हो गया है..बिल पेमेंट नहीं हो रहा है.." मैंने फोन पर ही कहा था, "तो नगद पेमेंट कर दो..."  "नगद लेकर नहीं आए हैं..." श्रीमती जी का उत्तर था। अब नाराज होने की बारी मेरी थी, "तुम्हारी यही लापरवाही ठीक नहीं..खरीदारी पर नगद भी ले जाया करो..वैसे भी आजकल हैकिंग-फैकिंग का चक्कर चल रहा है.." "अरे घर में कितना नगद पड़ा है कि नगद लेकर जाएँ..?" "तो पहले एटीएम से निकाल लेती...अब मैं सबेरे देखुंगा" मेरा इतना कहना था कि उन्होंने यह कहते हुए बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए फोन काट दिया, "सुनो, मैं स्पेंसर में हूँ और सामान छोड़कर जा रही हूँ...तुम अपने में मस्त रहो..." 
           वाकई!  उस समय मैं अपने में ही मस्त था, फेसबुक पर किसी पोस्ट को लिखते हुए..तत्काल तो बात आई-गई हो गई और मैं भी घर की परेशानी भूल फेसबुक पर अपने को पोस्टिया कर इत्मीनान से अपनी बीती दिनचर्या पर साँस लिया ही था कि, रात दस बजे छोटे सुपुत्र जी का फोन आ गया, "मम्मी बहुत नाराज हैं..." मैं डरा हुआ सा तत्काल सुपुत्र जी से एसबीआई का टोल नम्बर माँगा। खैर किसी तरह से OTP प्राप्त कर उन्हें निकट के एटीएम केंद्र से पिन जनरेट कर लेने के लिए कहा, इस तरह नया पिन मिला। फिर हमें पाँच हजार रूपए निकाले जाने की सूचना मिली, लेकिन तब तक रात के ग्यारह बज चुके थे। बाद में इसी गुस्से में, इमरजेंसी के लिए रखने के नाम पर श्रीमती जी ने एटीएम से पच्चीस हजार रूपए निकाले थे..।
          दुर्भाग्य से, इसी बीच प्रधानमंत्री ने आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया.. इन्हीं नोटों की चिन्ता में अदरक, तुलसी की हरी पत्तियों की चाय पीते हुए मेरी घर से बात होने लगी थी... उन्होंने बताया कि पाँच सौ नोटों में कुल दस हजार रूपए मेरे पास बचे हैं..." खैर इस ओर की चिंता से मैं मुक्त हुआ..लेकिन इधर सोशल मीडिया पर पत्नियों के काले धन की चर्चा पर ध्यान आते ही बिना कुछ सोचे विचारे मैं श्रीमती जी से पूँछ बैठा,  "अरे, कहीं कुछ हमारी बिना जानकारी के हो तो उसे भी...!" बस मेरा इतना बोलना था कि उधर से मेरी औकात बताते हुए मुझे जलील करती हुई सी उनकी आवाज सुनाई पड़ी, "कुछ सोच समझ कर बोला करो..तुमने मुझे यह अवसर दिया ही कहाँ" मैं चुप हो गया था... फिर उन्होंने ही बातचीत जारी रखते हुए कहा, "आज घर के कबाड़ के चक्कर में मैंने एक कबाड़ीवाले को बुला लिया था...वह तो बहुत खुश था...कह रहा था कि मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है... हम लोगों का क्या...हमारे जैसे लोगों के पास जो दो चार नोट हैं हम उसे बदल लेंगे...लेकिन कुछ लोग चिन्ता के मारे खाना ही नहीं खा रहे हैं...उसने बताया कि एक जन के घर गए तो देखा वह चिन्ता में भूँखे पड़े हैं..हम लोग तो बहुत खुश हैं!" हालाँकि मुझे आभास हुआ श्रीमती जी भी, इस नए-नए आए समाजवाद से खुश हैं, अब मैं भी चिन्तामुक्त हुआ था।
            हमारी बातचीत समाप्त हुई तो सोचा, "सोचा..ससुरा यह कबाड़ीवाला सबेरे-सबेरे ताजमहल वाली चाय नहीं पीता होगा नहीं तो मोदी की कारस्तानी इसे भी पता होती...!" 
           हाँ उस दिन श्रीमती जी किसी शादी में जाने और इस पर आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक के पड़े प्रभाव की भी चर्चा कर रही थी..अब शादी विवाह वाले भी परेशान तो होंगे ही!  जब एक लाख की लँहगा-चुनरी पहनकर ताजमहल जैसे होटल में ही वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न होंगे तो चिन्ता वाजिब ही है..अगर ये सब चेक से नहीं हो रहा होगा तो यह सर्जिकल स्ट्राइक इसीलिए हुआ है...मैंने यही तो कहा था। अब विवाह सम्पन्न करने के लिए दहेज की रकम और खर्चे कम करने ही होंगे! 
         भई! हम अपने शौक कम करें...ताजमहल जैसे शौक को कम करना होगा..!! इसी शौक के कारण ही तो बाकी लोग कबाड़ीवाले बन गए हैं...अपने बीच हमें भी पाकर ये खुश हैं..इनकी खुशी में पलीता मत लगाईए..! हम सब ने इसके सिवा कोई चारा भी नहीं छोड़ा था...कितने लोगों की हम भक्त कह कर खिल्ली उड़ाएंगे? नब्बे प्रतिशत आम सामान्य तबके के लोग इस आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक से बेहद खुश हैं...इनके बीच जाने पर हमें इस बात का अहसास होता है। इस खुशी में वे परेशानी भी झेलने के लिए तैयार बैठे हैं...आपसे क्या इनकी खुशी देखी नहीं जाती..? धत् तेरे की! कम से कम और कुछ नहीं तो इसके पीछे के छिपे उद्देश्य को ही प्रोत्साहित कीजिए..

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