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शनिवार, 6 दिसंबर 2014

माना त देऊ नाहीं त पाथर..!

   

     यह हैं हमारे पंडित..! मतलब हमारे खानदानी पुरोहित...! वही पंडित कई वर्ष बाद एक विवाह कार्यक्रम में दिखाई दे गए...! मैंने पहला काम यही किया कि अपने मोबाइल से बिना इनके जाने इनकी तस्वीर उतार ली...हालाँकि...उम्र के इस पड़ाव पर इनकी हँसी गायब थी...या फिर मेरी ही दृष्टि बदल गयी हो...लेकिन..इन्हें देखते ही इनकी वही पुरानी छवि मेरे मन में जीवन्त हो उठी..!

        दादा जी ने बताया था कि इनके पिता जी भी हमारे परिवार के पुरोहित रहे हैं...और कोई बहुत पुराना रिश्ता भी बता रहे थे...! ये बेचारे बहुत सीधे-साधे प्रजाति के जीव हैं..! मैंने आज तक इनके आँखों में कोई बड़ा ख्वाब पलते हुए नहीं देखा है...थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी और अपने ‘उपरेहिती’ की आय से जीवन-यापन करते हुए ही इन्हें देखा है...! बस प्राकृतिक ढंग का सहज और सरल सा इनका जीवन-यापन..! जब से मैंने होश संभाला है तभी से मैंने खानदान में शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर इन्हें पंडिताई या पूजा-पाठ कराते देखा है...हाँ खानदान के अन्य परिवारों ने इनकी वृद्धावस्था एवं अवसरों पर इनके न पहुँच पाने की स्थिति को देखते हुए अपने अलग-अलग पुरोहित बना लिए हैं...
        
       इनका घर हमारे घर से कई किलोमीटर की दूरी पर था..बचपन में जब ये किसी धार्मिक या शादी-विवाह जैसे अवसरों पर गाँव आते...तो कई दिनों तक हमारे परिवार के लोग इन्हें घर पर रोक लिया करते...पता नहीं क्यों हम बच्चों को भी इनसे बाते करनें में बड़ा मजा आता था..! और जब ये अपने घर जाने के लिए तैयार होते तो हम कुछ बच्चे इनके कपड़े या इनके झोले को जिसमें दान या भेंट में मिली चीजें हुआ करती उसे छिपा कर रख देते...कभी-कभी इस प्रक्रिया में एकाध-दो दिन और रुक जाते...हाँ कभी-कभी ऐसा भी होता कि ये हम लोगों से तो कह देते कि आज नहीं जाएँगे और हमसे सामान देने की हमसे चिरौरी करते...तब हम बच्चे इनका सामान लाकर दे देते...लेकिन हम लोगों के इधर-उधर होते ही मौका पाते ही ये महाशय चुप-चाप निकल लेते..खैर...
       
      धार्मिक क्रियाकलाप कराते समय मैंने शायद ही इनके मुँह से संस्कृत श्लोकों को सुना हो...परिणामस्वरुप सत्यनारायण की कथाओं से बखूबी परिचय मैंने इन्हीं के मुखारबिंदों से प्राप्त किया...क्योंकि परिवार के बड़ों को सत्यनारायण की कथा सुनाते समय ये उसके हिंदी अनुवाद को ही पढ़ते और अध्याय समाप्त होने पर शंख बजाते...हाँ कभी-कभी अध्याय समाप्ति पर शंख बजाने का उत्तरदायित्व हम संभाल लेते...हम-उम्र बच्चों में इस उत्तरदायित्व के लिए एक प्रकार से गलाकाट प्रतियोगिता सी रहती...! इसी क्रम में कलावती, लता-पात, मोरध्वज से मैं बखूबी परिचित हुआ...एक बात और..! विवाह संपन्न कराते समय भी ये संस्कृत श्लोकों का प्रयोग नहीं करते थे...हाँ विवाह कार्यक्रम समाप्त होते समय मंडप में बड़े ही सुरीले अंदाज में मैंने इनको अकसर यह गाते हुए सुना था, “जब लगि गंग जमुन जलधारा तब लगि रहै अचल अहिवात तुम्हारा....” बचपन में किसी विवाह के संपन्न होते समय मैं इनके इसी गाने का इंतजार करता रहता....
       
       एक बार माँ के बहुत दबाव डालने पर मैं स्वयं यजमान बन सत्यनारायण की कथा सुनने बैठा... “आर्यावर्ते जम्बूद्वीपे सप्तरेवा खंडे...” कहते हुए इन्होंने सभी देवताओं का पूजा में आवाह्न किया..जब कथा के सातों अध्याय पूरे हुए तो कथा का समापन करते हुए इन्होंने मुझसे कहा, ”बाबा आप यह कहो कि लक्ष्मी हमारे घर वास करैं और बाकी सभी देवता अपने-अपने स्थान को प्रस्थान करें...” तो मैंने कहा, “सरस्वती हमारे घर वास करें और बाकी सभी देवता प्रस्थान करें...” इस पर इन्होंने हँसते हुए कहा था, “का बाबा..पुजवौ में मजाक करत हया...” फिर हम दोनों हँस पड़े थे..एक बात और थी...उस सत्यनारायण की कथा में नवग्रहों पर जब कुछ द्रव्य चढ़ाने की बात आई तो मैंने पंडित से पूँछा, “कहो पंडित केतना चढ़ाई..” तो इस पर भी उन्होंने हँसते हुए कहा था, “का बाबा इहौ कोनौउ कहई क बात है अरे जौन तोहार इच्छा होई..” हाँ यही बात उन्होंने अपने दक्षिणा के बारे में भी कही थी..
        
       इनमें एक गुण और था..वह था.. “विचार करना..!” जब ये हमारे घर होते तो किसी न किसी बुजुर्ग सदस्य के मुँह से मैं अकसर सुनता, “अरे पंडित आई अहैन उनसे विचरवाई ल्या..” खानदान या गाँव की बड़ी-बूढी महिलायें उनके पास कुछ “विचरवावई” के लिए आ जाया करती थी..स्वाभाविक भी है महिलायें बेचारी अपने घर-परिवार के कुशल-क्षेम के लिए पुरुष प्रजाति से कुछ अधिक ही चिन्तित रहती हैं...फलतः उनमें ज्यादातर भाग्योदय या भविष्य जानने की इच्छा होती थी या परिवार का बीमार सदस्य कब ठीक होगा या फिर कभी-कभी कोई गायब हुई बस्तु कहाँ होगी जैसे प्रश्न सम्मिलित होते थे...पंडित बड़े चाव से उन सबके प्रश्नों का समाधान करते जाते थे...हाँ जब कोई इनसे यह प्रश्न करता कि “का पंडित ई बतिया सही होई कि नाहीं..?” तो पंडित बोलते, “माना त देऊ नाहीं त पाथर..” यह कहते हुए लोगों की इच्छा के अनुरूप उन सब की शंकाओं का समाधान करते जाते...हाँ इनका यह जुमला “माना त देऊ नाहीं त पाथर” बीच-बीच में चलता रहता...एक दिन इसी तरह पंडित का अपना यह कार्यक्रम चल रहा था तो मेरे एक विनोदी स्वाभाव के पारिवारिक चाचा पंडित से बोले, “का..हो..पंडित जऊन रोगिया मन भावै उहई वईद बतावै वाला हाल फाने हया का..?” सुनते ही पंडित बड़े जोर से हँस पड़े और साथ में हम सभी हँस पड़े...फिर पंडित ने हँसते हुए ही कहा, “अरे भईया..! माना त देऊ नाहीं त पाथर..!” एक बार जब मैंने पंडित से ‘रोगिया’ और ‘वैद’ वाली बात पूँछी तो उन्होंने कहा, “का करी बाबा..जौउन इन सब का सुनई में अच्छा लागथअ उहई बताई देई थ...फिर ऊपर वाले क मर्जी...” एक बार मैंने भी इन्हें अपना हाथ दिखाने की कोशिश की तो ये हँसते हुए बोले, “का बाबा तुहऊँ...” फिर मैंने इनसे कहा “नाहीं पंडित तोहरे मुँह से सुनई में अच्छा लागथ..|”
       
       मैंने एक खास बात और देखी थी पंडित की..ये अपने इस “विचारई” की प्रक्रिया में कोई नुस्खा नहीं बताते थे...किसी को गुमराह भी नहीं करते थे...और न ही अन्धविश्वास को बढ़ाने वाली कोई बात ही करते..और मुझे कभी-कभी ऐसा लगता कि ये अपने इस ‘भविष्यवक्तृत्व’ के गुण से बस अपने संकोची स्वाभाव और लोगों की इच्छाओं का सम्मान करने के कारण ही जुड़ते थे...हाँ एक कमी इनमें बस यही थी कि ये सामने वाले को नाराज नहीं करना चाहते थे...!

       
       मेरे खानदान में एक कुलगुरु भी थे..उम्र के एक पड़ाव पर परिवार के वरिष्ठ लोग उनसे गुरुमंत्र लिया करते थे...एक बार मेरे मन में भी आया कि मैं किसे अपना गुरु मानूँ...क्योंकि मेरा मन उन्हें अपना गुरु स्वीकार नहीं करता था...! उनमें मुझे ‘गुरु’ होने का एक तरह का अहंकार दिखाई देता था... मुझे लगा यही अपने पंडित मेरे गुरु बन सकते हैं..! और कई वर्षों पूर्व मन ही मन मैंने इन्हें अपना गुरु मान भी लिया और बिना इन्हें बताए..! सोचा अगर इन्हें अपने मन की यह बात बताऊंगा तो ये बोल उठेंगे, “का बाबा तुहऊँ...!” और फिर “माना त देऊ नाहीं त पाथर” कहते हुए हँस पड़ेंगे...!

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