बस की यात्रा मुझे विचारों की
गहराई में ले जाने का काम करती रही है...अकसर ऐसी यात्राओं में मेरी एक आदत रही है
कि बस की खिड़की से बाहर झाँकने के साथ ही अपने अन्दर झाँकने का काम करता रहा
हूँ..और..कई बार मुझे अपनी समस्याओं का हल ऐसी ही यात्राओं में मिला
है..और...झिलमिल तारों के साथ चाँद को धरती पर उतर आने का अहसास भी पाया है...!
..बस में बहुत भीड़ थी...मुझे
सीट मिल गयी थी..! मेरे बगल वाली सीट पर एक युवक आकर बैठ गया...मैंने उसकी ओर देखा
वह ठीक-ठाक कपड़ों में था...बस की सभी सीटें भरी होने के साथ स्टैडिंग सवारियों से
भी वह भर गयी..! बस में अधिकतर यात्री श्रमिक वर्ग से थे जो पूर्वांचल से काम की
तलाश में पश्चिम की ओर रुख किए होंगे...वास्तव में पश्चिम में बड़ा दम है हर तरह का
रोजगार उपलब्ध कराता है...! ...सोचा..बस को अब चलना चाहिए... तभी बस का ड्राइवर
आकर अपनी सीट पर बैठ गया...अब मैं कंडक्टर को तलाशने लगा क्योंकि बगैर उसके बस चल
ही नहीं सकती थी...लेकिन यह क्या बस तो चल पड़ी..! बस खचाखच भर गई थी..मेरी निगाहें
इधर-उधर कंडक्टर को खोजने लगी...लेकिन कंडक्टर महोदय बस की भीड़ में कहीं नजर नहीं
आये...!
आचानक बस के पिछले हिस्से से एक
बच्चे की आवाज आई... “फटाफट आप लोग टिकट बनवा लो...” आवाज थोड़ी अजीब लगी...! सोचा
बच्चा तो टिकट बाँट नहीं सकता...थोड़ा पीछे उचक कर देखने का प्रयास किया लेकिन बस
में भीड़ होने के कारण कंडक्टर को देख पाने में असफल रहा..! बगल में बैठा युवक किसी से
अपने मोबाइल पर बात करने लगा..“हाँ..हाँ एकदम सही काम हुआ है...” फिर अपनी बातें
समाप्त कर दी.. इसके बाद वह कुछ बोल रहा था लगा जैसे वह मुझे कुछ सुनाने की कोशिश
कर रहा हो...! पहले तो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया..क्योंकि मेरा मन उसके
बौद्धिक स्तर या कहें उसके सोशल स्टेटस को भी अपने अनुकूल नहीं पा रहा था...उससे
बात करना मैं गैर जरुरी मान रहा था...उसके प्रति मेरे मन की इस उदासीनता की उसे
परवाह नहीं थी...या मेरी इस उदासीनता को वह समझ ही न पा रहा हो...
मेरी और मुखातिब होते हुए वह
युवक बोला, “एकदम सही काम हुआ..लाटरी से फैसला हो गया...पहली बार मैंने इतना सही
काम होते हुए देखा...!” अब मैं अपने को रोक नहीं सकता था क्योंकि वह मुझसे मुखातिब
था यदि उससे बात न करता तो वह अपने को अपमानित महसूस कर सकता था..मैंने पूँछ लिया,
“किस बात की लाटरी..?” फिर उसने बताया कि किसी अर्ध सरकारी वितरण एजेंसी के लिए
योग्य उम्मीदवार के चयन की बात थी..मैंने उससे कहा, “अभी कैसे मान लिए कि सब सही
हो गया...क्या नाम फ़ाइनल हो गया..” उसने कहा, “नहीं अभी तो लाटरी ही के माध्यम से
नाम आया है..अभी तो और भी प्रक्रियाएं हैं..." फिर कुछ सोचते हुए उसने कहा, "आपने सही कहा..अभी चयन के कई चरण
हैं..उसे कुछ शर्तों के साथ रिजेक्ट भी किया जा सकता है...मतलब अभी खेल बाकी
है...!” फिर मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “यह भी हो सकता है कोई उसको हड़का दे तो वह
एजेंसी लेने से ही मुकर जाए..” उसने मेरी बातों से सहमति जताई..” हाँ..अब-तक
कंडक्टर की दो-तीन बार आवाजें सुनाई पड़ चुकी थी..लेकिन अभी भी बस में भीड़ के कारण वह मुझे दिखाई नहीं दिए..!
फिर उस युवक ने बातों ही बातों
में कहना शुरू किया कि “दिखावे की जिंदगी बहुत बेकार होती है..बहुत सारी
परेशानियों का कारण बनती है...आदमी को अपने वास्तविकताओं में रहना चाहिए..अंत में
कौन क्या ले जाता है..!” फिर वह बोला “मैं तो सब कुछ होते हुए भी बहुत साधारण से
रहता हूँ..मेरी एक कंपनी है...वहाँ कई मजदूर काम करते हैं, मैं कभी-कभी ही उनके
काम देखने जाता हूँ..हाँ मैं इतना अनुमान जरुर रखता हूँ कि मुझे इतना लाभ मिलना
चाहिए..! और वे लोग लगभग उतना लाभ मुझे दे भी देते हैं...मैं भी सोचता हूँ कि इस
लाभ का उत्तरदायित्व उनपर छोड़ देने से वे मेरी कंपनी को और जिम्मेदारी से
चलाएँगे...ऐसा वे करते भी हैं..फिर...यदि वे कुछ थोड़ा लाभ भी ले लेते हों तो क्या
फर्क पड़ेगा..उस लाभ के कारण कम से कम मेरी कंपनी के प्रति लगाव रखते हुए कामचोरी
तो नहीं करते हैं और कंपनी को अपना समझते हैं...” एक सांस में जैसे उसने ये सारी
बाते कह डाली थी, मैंने उसके इस प्रबंधकीय कौशल पर कोई विशेष ध्यान नहीं
दिया...लेकिन यह सोचा जरुर की उसने कुछ कहा है...! बस भागी जा रही थी...बाहर अँधेरा
घना होने के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था..हाँ आते-जाते वाहनों के हेडलाईट की
रौशनी जब-तब दिखाई पड़ जाती..खिड़की के बाहर झांकने का प्रश्न ही नहीं था..!
आकस्मात मेरे कानों में आवाज
पड़ी, “कहाँ जाना है..टिकट बनवा लें...” मैंने चेहरे को ऊपर किया...“ओह...! तो
बच्चे जैसी आवाज वाले यही कंडक्टर महोदय हैं..!” यह सोचते हुए मेरा ध्यान उनके
शरीर की ओर भी गया...काफी लम्बा-चौड़ा शरीर था..! उन्हें देखकर मैंने सोचा, “इतने
भारी-भरकम शरीर वाले की एक बच्चे जैसी पतली आवाज...!” कंडक्टर के शरीर और उनके
आवाज के अनुपात को सोचकर मैं मन ही मन मुस्कुरा दिया..सोचा इसका कारण पूँछ
लूँ...लेकिन...कहीं बुरा न मान जाएँ...नहीं पूंछा..! हम लोगों ने टिकटें बनवा
ली...इस बीच एकाध स्टॉप पर बस रुकी भी..उसी समय कंडक्टर साहब किसी यात्री पर कुछ
चिल्ला पड़े थे...तभी बस में पीछे से एक यात्री की आवाज आई, “अरे कंडक्टर
साहब..रउरा के आवाज को का होगइल बा..हो..!” कंडक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया...अपने
काम में लगा रहा...शायद सुना ही न हो..! मेरे बगल में बैठा युवक यह सुन हँस
पड़ा...मैंने उससे कहा, “अरे नहीं..कंडक्टर से उसकी आवाज के बारे में नहीं पूँछना
चाहिए..वह बुरा मान सकते हैं..” उसने कहा, “क्यों..?” “यह उनको कोंचने जैसी बात हो
सकती है...” मैंने कहा| “अरे..! इसमें कौन सी कोंचने की बात...?” उसने प्रतिप्रश्न
किया| “किसी की कमी की ओर इंगित करना वह भी शारीरिक..तो कोंचने वाली बात तो होगी
ही..” मैंने उत्तर दिया|
मेरी इस बात पर वह युवक एक क्षण
चुप रहा...फिर चुप्पी तोड़ते हुए बोला, “देखिए भाई साहब..! ये जो बोला है वह मजदूर
है..नए उम्र का है..और...इस बस में ज्यादातर यही लोग हैं..इनमें से अधिकतर गुजरात,
पंजाब या दिल्ली जा रहे होंगे...ये बेचारे दिन भर मेहनत करते होंगे...ये ऐसे ही
तफरी कर लेते हैं...या फिर शाम को दो-चार घूँट लेकर...कुछ क्षण के लिए अपनी रोजमर्रा
की तमाम समस्याओं को भुला देते होंगे...इनके मन में जो आया बोल दिए, किसी को बुरा
लगे तो लगे...इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...यह भी इनके जिन्दगी का हिस्सा है...और...ये
ज्यादा सोचते भी नहीं..! फिर इसमें कंडक्टर को बुरा मानने वाली कोई बात भी नहीं
है...” सुनकर पास बैठे उस युवक की ओर मैं देखने लगा...मैंने अपने को बौना पाया..!
...और उधर यात्री के प्रश्न का
कोई उत्तर न देकर कंडक्टर ने मुझे कोंच दिया...! मेरे मन ने एक अपना प्रश्न खड़ा कर
दिया...कि...किसी उत्तर के बगैर क्या किसी प्रश्न की अस्मिता हो सकती है...या...क्या
बिना उत्तर के प्रश्न अपनी मौत मर जाते हैं..? तो क्या उन्हें मर जाने देना
चाहिए...? लेकिन मेरी बस ऐसे प्रश्नों और उत्तरों से बेपरवाह अपने गंतव्य की ओर कैसे
बढ़ी जा रही थी...यह भी मेरे लिए एक प्रश्न था...मतलब...? फिर मेरे मन में इस तरह
के विचार आते गए...
प्रश्न...!
प्रश्न तैरते रहते है...!
क्या प्रश्न उत्तरापेक्षी होते
है..?
प्रश्नों का स्वतंत्र अस्तित्व
है...!
उत्तर...!
क्या उत्तर भी तैरते रहते
है...?
या उत्तर भी स्वतंत्र हैं...!
या उत्तर सदैव प्रश्न-सापेक्ष
ही होते है....!
प्रश्न और उत्तर...!
ये अलग-अलग होते हैं या चिपके
हुए होते है...!
या दोनों अपने स्वतन्त्र
अस्तित्व के साथ सदैव विद्यमान रहते है...!
बस कभी-कभार टकरा जाते
होंगे...!
जो भी हो लेकिन एक बात है...प्रश्नों
से जब उत्तर टकराते होंगे तो क्या होता होगा...
या तो प्रतिप्रश्न उत्पन्न होता
होगा...!
या फिर प्रश्न से टकराकर उत्तर उसे
ब्लैक होल में बदल देते होंगे और दोनों उसमें विलीन हो विलुप्त हो जाते होंगे...!
जो भी हो प्रश्न संसार रचता
है...जो प्रतिप्रश्न के रूप में विस्तारित होता रहता है...उत्तर में इस संसार को
नष्ट करने की क्षमता होती है...फिर तो..! उत्तर विध्वंसात्मक होता है..! यह संसार
को नष्ट कर सकता है...! विवादों की जड़ है..! प्रतिप्रश्न विवाद नहीं होते क्योंकि
वे उत्तरों को अपने से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं...और दुनियाँ बनती रहती
है...
हाँ..एक बात है उत्तर प्रश्नों
में घनत्व बढ़ा देता है...शायद यही प्रतिप्रश्न उत्पन्न करता होगा...प्रतिप्रश्नों
का संसार...! यही हमारी दुनियाँ है...अपने-अपने प्रश्न..! अपनी-अपनी दुनियाँ..! यह
दुनियाँ बनी रहे ऐसे उत्तर तलाशें...लेकिन यह उत्तर प्रश्नों को ब्लैक-होल में ले
जाने वाला न हो..नहीं तो यह संसार नष्ट हो जाएगा...उत्तर ऐसे हों जो प्रश्नों में
घनत्व ले आए..जिससे प्रतिप्रश्न उत्पन्न हो सके...! और दुनियाँ सृजित हो सके...तो
फिर...! उत्तरों में ‘गॉड-पार्टिकल’ तलाशें...जो प्रश्नों में घनत्व बनाए या प्रतिप्रश्न
उत्पन्न करे...जिससे...दुनियां चलती रहे...बनती रहे..यह ब्लैक होल में न समाए..!
हाँ...कंडक्टर ने कोई उत्तर
नहीं दिया था...देता तो बस रुक सकती थी...उसका काम रुक जाता...समय बर्बाद होता...या..ड्राइवर
की उलझन बढ़ जाती...बस खड्ड में जा सकती थी...लेकिन कंडक्टर ने उत्तर का ‘गॉड-पार्टिकल’
तलाशा...और बस चलती रही...
मेरे मन में एक बात और
उपजी.....
यदि प्रश्न ही न हों तो....तब क्या होता
होगा...क्या संसार रचने से रह जाता होगा...?
चल रही बस में मैंने इसका भी उत्तर
तलाशने का प्रयास किया...हाँ...बात उन दिनों की है..
मैं शायद आठवीं में पढ़ रहा था..एक
दिन...कक्षा में मास्साहब हम बच्चों को पढ़ा रहे थे...शायद किसी किताब से कुछ बोल
कर लिखा रहे थे...तभी उन्हें किसी काम से कक्षा छोड़कर कुछ देर के लिए बाहर जाना
पड़ा...उन्होंने आलेख लिखाने का उत्तरदायित्व मुझे दिया और चले गए...मैं छात्रों को
बोलकर लिखाने लगा......इसी बीच एक शब्द आया.. ‘अश्लील’ बच्चे इस शब्द को लिख नहीं पा रहे थे...फिर मैंने
ब्लैकबोर्ड पर इसे चाक से लिखा...अश्लील...बच्चे इसे देखकर लिख लिए...!
उसी समय मास्साहब कक्षा में लौट
आए थे...आते ही उन्होंने ब्लैकबोर्ड पर लिखे इस शब्द को देखा...और...बिना हमसे कुछ
पूँछे मेरी गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया...! मैं कुछ समझ ही नहीं पाया आखिर यह
तमाचा मुझ पर क्यों पड़ा....हाँ...तमाचे के पहले मास्साहब ने मुझसे कोई प्रश्न नहीं
किया...और...उस तमाचे के भय से मैं भी कोई प्रश्न नहीं कर पाया...! मैं चुपचाप आकर
अपनी बेंच पर बैठ गया...हाँ एक बात और थी...उस समय ‘अश्लील’ शब्द का मुझे कोई अर्थ
भी नहीं पता था...इसका अर्थ तो मैंने बहुत वर्षों बाद जाना...और जब जाना तो मेरे
मन में यह प्रश्न उभर आया कि “क्या मास्साहब ने ‘अश्लील’ शब्द को ही अश्लील मान
लिया था...?” या फिर ब्लैकबोर्ड पर लिखने को मेरा दुस्साहस मान बैठे थे....खैर जो
भी हो....यदि हम दोनों ने उस समय प्रश्न किए होते तो संभव था...उत्तरों का कोई
‘गॉड-पार्टिकल’ उन प्रश्नों से टकराता...और...एक और बेहतर दुनियाँ हमारे लिए बनी
होती...! हम आज के अपने बौनेपन से भी बचे होते......!
लेकिन..! अफ़सोस..! आज...तमाचे..!
प्रश्नों पर तमाचे..! हाँ तमाचे...मासूम से प्रश्नों को बेमौत मारने पर आमादा
हैं...! बिन प्रश्नों के यह दुनियाँ आखिर कैसे बनेगी..उत्तर का कोई ‘गॉड-पार्टिकल’
इनसे कैसे टकराएगा...! और बिना घनत्व के यह दुनियाँ कैसे टिकेगी...? तो....
आइए...! हम अपने बौनेपन का
ध्यान रखते हुए प्रश्नों की दुनियाँ में रहें...लेकिन...उत्तरों के गॉड-पार्टिकल
के साथ...!
------------------------------एक पागलपन सोच..विनय...!
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