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मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

क्रिकेट की वह गेंद.....!

          क्रिकेट की वह गेंद...! हाँ उस गेंद की याद फिर ताजा हो आई...धीरे-धीरे कर उस घटना के लगभग तीस वर्ष होने को आ गए हैं...अकसर शाम चार बजे अपने बाग के मैदान में क्रिकेट खेलने निकल जाते थे...खिलाड़ियों में हम-उम्र पारिवारिक बच्चों के साथ गाँव के ही अन्य बच्चे हुआ करते थे...ऐसे ही एक दिन हम खेल रहे थे...मेरे ही हम-उम्र के थे...वे पारिवारिक संबंधों में मेरे चाचा लगते थे..सुरेश..! ...लेकिन हममे संबंध उतना महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि मित्रता उससे भी बढ़कर थी...वही क्रिकेट का बल्ला ले बल्लेबाजी कर रहे थे...संयोग से गेंदबाजी भी चचेरा खानदानी भाई कर रहा था...मैं उस समय फील्डिंग कर रहा था...और बल्लेबाज के एकदम करीब गली में था...मुझे याद हैं...गेंदबाज की गेंदें स्टंप से दूर इधर-उधर पड़ रही थी और सुरेश ठीक से खेल नहीं पा रहे थे...आचानक...गेंदबाज से चिढकर बोले थे... “यार तोहका गेंदबाजी क सहूर नहीं है...ई मार्शलवा को देदो गेंद..थोड़ा खेलई में तो मजा आये...” चूँकि मैं थोड़ी तेज गेंदबाजी करता था इसीलिए क्रिकेट खेलते समय वह मुझे ‘मार्शल’ (समकालीन वेस्टइंडीज का तेज गेंदबाज) की उपाधि दे देते...यह सुनते ही मैंने गेंदबाजी कर रहे उस चचेरे भाई से कहा “यार थोड़ी सटीक गेंद डाल..मिडिल स्टंप उड़ा दे...बड़ा गावस्कर बन रहे हैं...”
        मेरे इतना कहते ही वह अगली गेंद फेंकने के लिए लम्बी दौड़ लगाते हुए गेंद फेंकी...हाँ वह गेंद काफी तेज थी...हवा में उड़ती हुई सी आई...सुरेश ने उससे बचने का प्रयास किया और थोड़ा घूम गए...वह गेंद सीधे पिछले गर्दन से ऊपर और सिर के निचले भाग में जा कर लगी...वह सीधे सिर के पीछे हाथ ले जाकर बल्ला छोड़ वहीँ बैठ गए...हम लोग दौड़ कर उनके पास पहुँचे...उनके आँखों में आँसू आ गए थे...कुछ मिनट वह ऐसे ही बैठे रहे हम बारी-बारी से चोट लगे स्थान को मलते जा रहे थे..कुछ मिनटों के बाद वह सामान्य हुए..हम लोग खेल बंद कर घर वापस लौट आये...
       हाँ करीब साल भर बीता होगा उनके सिर में हलका-हलका दर्द होने लगा था...कभी-कभी वह सिर दर्द की दवा ले लेते तो दर्द से राहत मिलती..लेकिन दवा का असर समाप्त होने के बाद दर्द पुनः प्रारंभ हो जाता...यह क्रम कुछ महीनों तक चलता रहा...फिर सुबह-सुबह उन्हें उल्टियों की शिकायत होने लगी...लेकिन कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था...सिर में लगी चोट की बात तो लगभग हम भूल चुके थे...धीरे-धीरे कर उनके एक आँख की रोशनी कम हो रही थी...कस्बे के डॉक्टर ने आँखों की जाँच कराने की सलाह दी...उन दिनों मैं इलहाबाद में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहा था...एक दिन सुरेश चाचा मेरे कमरे पर आये...उन्होंने बताया था की डॉक्टर ने आँखों की जाँच कराने के लिए बोला है...उसी दिन मैं उन्हें अपनी साइकिल से स्वरुपरानी जिला चिकित्सालय ले गया...डॉक्टर ने उनकी आँखों में दवा डाली फिर तीन घंटे इन्तजार के बाद आँखों की जाँच के बाद चश्मा लगाने की सलाह दी...सुरेश चाचा फिर गाँव लौट गए थे...लेकिन उनकी बिमारी गंभीर होती जा रही थी...एक दिन मैं गाँव गया मैंने उन्हें एक अच्छे डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी...लेकिन वे बहुत ही संकोची स्वाभाव के थे किसी से भी कुछ कहना नहीं चाहते थे...मुझसे उनके सिर के दर्द को देखा नहीं जाता...मैं फिर इलाहबाद लौट आया था...
      एक दिन दोपहर बाद पिता जी मेरे पास आये...मुझे कुछ आशंका सी हुई मैंने उनसे सुरेश के बारे में पूँछा उन्होंने धीरे से बस इतना ही कहा सुरेश अब नही रहे...मैं सुनकर आवक रहा...यह मेरे लिए एक अविश्वसनीय और अकल्पनीय घटना थी....सुरेश साथ छोड़ देंगे यह कभी हमने सोचा ही नहीं था...लेकिन अब सच्चाई यही थी...बाद में पिता जी ने बताया कि ब्रेन स्कैनिंग में पता चला था कि उनके सिर के पिछले हिस्से में एक गाँठ थी...जो शायद चोट के कारण ही थी..उसके आपरेशन के लिए उस दिन उन्हें बंबई ले जाया जा रहा था..वह स्वयं तैयार हो रहे थे..लेकिन उसी समय वह गाँठ सिर के अंदर ही फूट गई थी....जो उनकी मौत का कारण बनी...

       यह एक ऐसी घटना थी जो मुझे आज-तक सालती रहती है...फिलिप ह्यूज की घटना ने सुरेश की याद को पुनः तजा कर दी...ये लोग एक ऐसी भावना के साथ प्राण त्याग किये हैं जहाँ जीतने वाला भी आनंदित होता है तो हारने वाला भी आनंदित होता हैं...क्योंकि खेल का मजा दोनों को ही मिलता है...तभी तो हार के डर से कोई खेलना नहीं छोड़ता...! खेल भावना सबसे बड़ीं सामजिक भावना है..ऐसी सामाजिकता ही इन लोगों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी...!

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