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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

तो मित्र महोदय इस वीभत्स रस में डूबे हुए हैं....!

       दरवाजे पर दस्तक हुई..! अभी मैं दरवाजा थोड़ा सा ही खोला था कि चिहुँक गया..और अकस्मात् मेरे मुँह से निकल गया, “अरे भाई आप...!” बात यह थी कि ये आगन्तुक महाशय मेरे मित्र थे जिनसे इधर कई दिनों से मेरी मुलाक़ात नहीं हो पाई थी..या यों कहें कि हम अपने-अपने ‘ईगो’ के कारण एक दूसरे से मिलने से कतरा रहे थे...जैसे..यह मिलना भी आजकल फेसबुक के मित्र के किसी कंटेंट के लाइक करने या न करने की प्रवृत्ति से मेल खाता हो...कारण...एक बार मैं मित्र से मिलने उनके घर गया तो महोदय थोड़ी बहुत ‘हाय-हेलो’ के बाद अपना एक आवश्यक कार्य बताते हुए निकल पड़े...मुझे बड़ा नागवार गुजरा एक तो मैं अपने तथाकथित बहुमूल्य समय में से समय निकाला था और दूसरे काफी दूर चल कर उनसे मिलने गया..और..ये महाशय मेरे से बेपरवाह निकल लिए..! ...मैं उनके घर वालों से मिल कर चला आया था...तभी से मैंने भी एक ‘ईगो’ पाल लिया कि अब इस तरह मिलने की पहल करने की आवश्यकता नहीं...और मित्र महोदय भी पलट कर इधर मेरी इतने दिनों से खबर नहीं ले रहे थे..! फलतः कल्पनाशील मेरा मन उनके इस ‘ईगो’ से अपने ‘ईगो’ को लगभग पुष्ट कर चुका था...हाँ..उन्हें अचानक इस तरह आया देख मेरा ईगो दरक सा गया..और...उस समय यह मेरे चिहुँकन में प्रकट भी हो गया..!
       मैंने दरवाजा पूरा खोल दिया...मित्र महोदय बिना हमसे कुछ बोले सीधे मेरे तखत पर लगे बिस्तर पर जा कर बैठ गए और रजाई अपने ऊपर डाल ली...मैं भी आकर तखत पर सिरहाने पीठ को टेक देते हुए आराम से बैठ गया...हम दोनों के बीच कुछ क्षण मौन छाया रहा..! फिर मैं बोला, “इतने दिन बाद फुरसत मिली..!” “हाँ कुछ इधर-उधर की व्यस्तता आ गयी” कहते हुए वे भी तकिये के सहारे अधलेटे हो गए| मैंने मौका देखकर थोड़ी अपनी भड़ास निकालने की कोशिश की, “वैसे आदमी को संबंधों को भी जीना चाहिए...जिससे उसके अंत समय तक चार आदमी काम आ सके...नहीं तो...दुनियाँ में कौन किसको पूँछता है..!”
      उन्होंने मुझे घूरा जैसे मेरी बात अच्छी न लगी हो...बोले, “यार संबंधों को जीना..! इसका मतलब क्या है...?” “अरे मेरे कहने का मतलब यह कि बात-व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि कम से कम चार आदमी तो हमें अपना कह सकें..” मैंने मित्र की आँखों में अपनी आँख गड़ाते हुए कहा जैसे उन्हें किसी बात की चेतावनी दे रहा होऊं..! तभी सामने चल रहे टी.वी. पर मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी को दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार समारोह पर दृष्टि पड़ी...काफी भव्य समारोह में यह पुरस्कार उन्हें प्रदान किया जा रहा था..इस समारोह को मित्र महोदय भी देख रहे थे...
       अचानक टी.वी. देखते-देखते वह बोले, “तो तुम चार आदमी पर ही आ कर अटक गए हो..?” फिर मित्र महोदय ने टी.वी. की और इशारा करते हुए कहा, “अगर ये चार आदमी की ही परवाह किये होते तो आज इनका यहाँ ओस्लो में यह सम्मान न हो रहा होता...बल्कि ये तो अपने-अपने समाज के बहिष्कृत से लोग हैं...क्योंकि यह समाज की बुराईयों से लड़ रहे लोग हैं...पहले तो इन्हें तमाम तरह की उपेक्षाएँ ही मिली होंगी..!” और फिर बोले, “देखो यार चार आदमी ही क्यों..या..संबंधों को ही क्यों जीना..! यह बहुत मायने नहीं रखता...मायने तो इसमें है कि आप क्या जी रहे है...और इस जीने का तरीका क्या है..?” मैं मित्र की ओर देख कर सोचने लगा यह कौन सा ‘ईगो’ मैंने पाल लिया था..मेरा दाँव तो उल्टा पड़ गया..! मैं अभी यही सोच रहा था कि मित्र फिर बोल उठे,
       “अंत समय में चार आदमी साथ निभाएंगे या नहीं इसकी परवाह क्यों..? सोचो चार आदमी के चक्कर में कितनों को नजरअंदाज कर रहे हो...? अरे अंत समय में कोई साथ न भी निभाए तो कौन सा फर्क पड़ेगा..तब तो और ही अच्छा होगा..! शरीर सड़ कर मिट्टी में मिलेगी...खाद बनेगी..और भूमि उपजाऊ बनेगी..वैसे भी अब जमीन बंजर हो रही है..! और...यदि मृत शरीर को जानवर नोच कर खा जायेंगे तो कम से कम यह बात तो होगी कि चलो जीते न सही मरने पर तो किसी की भूँख मिटाने के काम आ गए..!”
       मित्र महोदय यह कह कर मंद-मंद मुस्कुराते हुए चुप हो कर मुझे देखने लगे..और..मैं इधर अवाक्..! तो मित्र महोदय इस वीभत्स रस में डूबे हुए हैं..! ...मैंने सोचा..! मेरी तमाम रसों से भरी कविता में...मित्र ने अपने इस वीभत्स रस को..! जिससे हम दूर भाग रहे थे...इसे कहाँ से उड़ेल दिया...! हाँ...इस वीभत्स रस में मेरा ‘ईगो’ भी घुल गया..! दोष मेरा ही था...मेरा मन कुछ ज्यादा ही कल्पनाशील हो गया था..! मैंने अपनी दृष्टि को फिर से टी.वी. पर गड़ा दिया...देखा...मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर रहे थे...लोग तालियों से उनका स्वागत कर रहे थे..! 

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