आज सुबह छह बजे टहलने निकला। सोसायटी से बाहर सर्विस रोड पर कुछ दूर चला होगा कि उस स्थान की ओर नजर गई जहाँ आठ नौ फीट ऊँचे बांस के एक पतले डंडे में राष्ट्रीय झंडा हमेशा फहरता रहता है। आज यहाँ बरसाती का टपरा भी लगा दिखाई दिया। ऐसे ही एक दिन सुबह पहली बार जब इस तिरंगे पर मेरी नजर पड़ी थी तो अकेले इस झंडे को यहाँ फहरते देख मुझे तनिक आश्चर्य हुआ था कि आखिर कौन इसे यहाँ फहराकर गया है क्योंकि उस दिन यह बरसाती यहाँ नहीं लगी थी कि अनुमान लगाता। अकसर यहाँ से गुजरते हुए मैं इस ओर निहार लेता हूँ। ऐसे ही एक दिन मैंने पाया था कि एक व्यक्ति प्रतिदिन सुबह आठ बजे के आसपास यहाँ आकर अपनी चाय की दुकान सजाता है। जो तेज धूप या मौसम के खराब होने पर इस बरसाती को तान लेता है। आजकल मौसम खराब चल रहा है इसलिए दुकान समेटने के बाद भी वैसे ही तनी बरसाती छोड़ गया है। वही चायवाला इस तिरंगे झंडे को यहाँ फहराए रखता है। जो मेरे यहाँ आने से भी कई महीने पहले से अनवरत फहरता चला आ रहा है।
यह स्थान हमारी सोसायटी के पास में है, बल्कि इस स्थान के पीछे एक अन्य बहुमंजिली सोसायटी की इमारत भी है। जहाँ तक मैं समझता हूं सोसायटी में रहने वालों से इसकी दुकानदारी नहीं चलती है और न ही उस पेट्रोल पंप के कर्मियों से चलती है जो इसके नजदीक ही स्थित है। तो चायवाले की यह दुकान किनसे चलती है? इस स्थान से ठीक सामने गोल चौराहा है जिससे होकर कामगार निकलते रहते हैं। इनमें से कोई पैदल, कोई साइकिल से और कोई स्कूटी से भी होता है। सुबह और शाम इनकी आवाजाही बढ़ जाती है। अकसर इन्हीं लोगों से इस दुकानवाले की दुकानदारी चलती है। आज इस स्थान को देखकर मुझे उस दिन की बात याद आई।
उस दिन छुट्टी का दिन था। घर की दीवारों के बीच लगातार रहने से मन कभी-कभी अनमना हो उठता है। तब घर की ये दीवारें भी मन को नहीं मना पाती। ऐसे में मन को किसी भुलावे में डाल देना चाहिए क्योंकि इससे मिले समयान्तराल से मनोदशा बदल सकती है। इसी को शायद रिफ्रेश होना भी कह सकते हैं। आखिर मन को भी स्पेस चाहिए और यह मौका मन को मिलना चाहिए। तो, उस दिन अपने अनमने मन को लेकर मैं घर से बाहर आया था कि थोड़ी देर के लिए खुली हवा में सांस लेगा। यह दोपहर बाद ढाई बजे का समय था। बाहर आने पर संझलौके का अहसास हुआ। इस मार्च के महीने में आसमान में घने काले बादल छाये थे। बिजली की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें इन बादलों के बीच कौंध रही थी फिर गड़गड़ाहट की आवज उठती। प्रकृति जैसे किसी बात पर गुस्साई हो! इस दृश्य के बीच मन में आया कि वापस घर की ओर कदम खींच लें, लेकिन सुरसुराती हवा और मौसम के इस मिजाज में एक गजब का आकर्षण था इसलिए सोसायटी के बाहर निकल आया।
यूँ ही कुछ देर सर्विस रोड पर टहलता रहा। इस रोड पर भी इक्का-दुक्का कारें आ जा रही थी। लेकिन मेन स्ट्रीट पर वाहनों की चिल्ल-पों थी। धीरे-धीरे मौसम का मिजाज कुछ करवट लेता दिखाई पड़ा। अब हवाएं वेगवान हो चली थीं। घने काले बादल भूरे हो चुके थे और गर्जन-तर्जन भी थम गया था। बूँदाबांदी शुरू हुई तो मैं छाँव तलाशने पेड़ की छाँव में चला आया। यहाँ एक बेंचनुमा दीवाल पर बैठकर गोल चौराहे पर दृष्टि जमा दिया। चौराहे को हरियाली से सजाया गया था। वहां के पेड़ पौधों को कुछ देर निहारने के बाद इस चौराहे का चक्कर लेती कारों को देखने लगा। चौराहे की यह कृत्रिम हरियाली आदमी के स्वयं के कुकृत्य को ढँकने का प्रयास जान पड़ा। अब इसे देखने से मन का उचाट हो गया। मैं उठ खड़ा हुआ। लेकिन अभी भी बूँदाबादी हो रही थी। उस ओर आया जिधर फलूदा आइस्क्रीम, मोमोज और ठंडे पेयपदार्थ बेचने वाले ठेले लगे थे। एक ठेले की सजावट पर मैं आकर्षित भी हुआ था। लेकिन बूंदाबादी बारिश में बदलने को बेताब जान पड़ी तो छाँव तलाशने के लिए फिर इधर-उधर देखने लगा था। सहसा मेरी दृष्टि इसी बरसाती की ओर गई थी। उस दिन भी यह बरसाती ऐसे ही बंधी थी जिसके दो कोने बाउंड्री के कटीले तार से और तीसरा कोना बिजली के खंभे वाले सपोर्टिंग वायर से बांधकर चौथे कोने को एक पतले बांस के डंडे से बंधा गया था। एक व्यक्ति जो साठ की वय से ऊपर का था इसके नीचे अपनी दुकान लगाकर बैठा था। उसके सामने एक छोटा स्टोव, इसके ऊपर भगोना और एक केतली रखा था। इसके बगल में ही बिस्कुट और नमकीन के कुछ डिब्बे भी रखे थे तथा पाउच की कुछ झालरें लटक रही थी। ग्राहकों के बैठने के लिए दुकानदार के पीछे सीमेंट के दो-तीन पटिए रखकर उसपर बोरे बिछाए गए थे। उस दिन बरसाती के सामने लगा यह राष्ट्रीय ध्वज तेज हवा में फड़-फड़कर फहरा रहा था।
तेज हो रही बूंदाबांदी से बचने के लिए मैं इसी बरसाती के नीचे चला आया था और ग्राहकों वाले आसन पर आलथी-पालथी मारकर बैठा। यहाँ पहले से एक आदमी बैठा चाय सुड़क रहा था। उस दिन का मौसम ही कुछ ऐसा हो चला था कि मेरी भी इच्छा चाय पीने की हुई थी। लेकिन पास में कोई नगदी न होने से इस इच्छा को दुकानवाले से व्यक्त नहीं कर पा रहा था। वैसे भी आजकल मैं नकदी कम ही रखता हूं, आवश्यकता पड़ने पर पेटीएम वगैरह की सुविधा का उपयोग कर लेता हूँ। बरसाती में जाने से पहले मैंने देखा था कि दुकानदार ने यहाँ कोई क्यूआर कोड नहीं लगाया है। फिर भी चाय पीने की अपनी इच्छा जताने के लिए मैंने दुकानदार से पूँछा था कि चाय बनाते हो। उसके 'हाँ' कहने के बाद मैंने फिर पूँछा कि क्या पेटीएम से भुगतान लेते हो। इसके उत्तर में उसने अबोले ही सिर हिलाया था कि नहीं। मतलब ऐसी व्यवस्था उसके पास नहीं है। मेरे बगल बैठा व्यक्ति उसके इस 'नहीं' की व्याख्या करते हुए बोला था, अरे! इतनी बड़ी कौन सी इनकी दुकानदरी है कि बैंक में पेमेंट लेंगे, इन्हें तो रोज कमाना रोज खाना है, कौन सी बचत है कि बैंक की जरूरत पड़े।" मैं चुप ही रहा क्योंकि मैं भी यह समझता था। मैंने तो पेटीएम वाली बात इसलिए पूँछा था कि चायवाले को यह पता चल जाए कि मैं चाय पीना चाहता हूं लेकिन मेरे पास नगदी नहीं है।
वह आदमी चाय पीकर उठ गया था। इधर यहाँ बैठे-बैठे मैं सोच रहा था कि यदि चायवाला मुझे चाय देता है तो घर से पैसे लाकर दे देंगे और फुटकर न होने का बहाना कर कोई बड़ा नोट इसे पकड़ाएंगे। मैंने कुछ देर तक उसकी प्रतिक्रिया का इन्तजार किया। लेकिन मुझ पर ध्यान न देकर उसने एक डिब्बे से बिस्कुट के बचे टुकड़े निकाले। इसे अपनी हथेलियों में लेकर उसे मसला। फिर बिस्कुट के इस भूरे को बरसाती के बाहर के एक साफ-सुथरी जगह पर फेंक दिया था। ये भूरे वहाँ छितराए हुए स्पष्ट दिखई पड़ रहे थे। एक नन्हीं सी खूबसूरत चिड़िया वहाँ आई और निर्भय होकर इसे चुगने लगी थी। जैसे उस चिड़िया को यह पता हो कि दुकानदार ने उसी के लिए ये भूरे छितराए हैं। शायद वह पहले से ही इसके ताक में थी!! इसे चुग कर चिड़िया उड़ गई थी। मैं अभी भी वहां बैठा था। अब चाय वाले ने मेरी ओर देखे बिना मुझसे चाय के लिए पूँछा था। मैंने उसे बताया था कि मेरे पास नगद पैसे नहीं हैं। उसने चाय बनाने की कोई कवायद शुरू नहीं की। इससे मैंने यह समझ लिया था कि इस चायवले के लिए पाँच या दस रूपए भी बहुत मायने रखते हैं। कुछ क्षण और बिताने के बाद मैं इस बरसाती से बाहर निकल आया था। अब तक मैं अपना अनमनापन भी भूल चुका था।
आज अभी दुकानवाला यहाँ नहीं आया है लेकिन झंडे को फहरते देख मैंने सोचा कि यह चायवाला भी न, पता नहीं किस मिट्टी का बना है जो अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के बावजूद भी तिरंगे से इतना प्रेम कर सकता है! उसकी खुद्दारी पर मुझे आश्चर्य हो रहा था।
#सुबहचर्या
(04.04.2023)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें