उसने अपना नाम हलकाई और स्वयं को भूमिहीन बताया। इस क्षेत्र में कुछ ऐसे ही नाम होते हैं..हल्कू..हलकाई..बारेलाल जैसा। नामों में ही जैसे गरीबी झलक उठती है। उसकी कहानी सुन लेने के बाद मैं हैरानी के साथ उसे देखने लगा था ! और वह भी कपाल में गहरी धँसी अपनी मिचमिचाती आँखों से मुझ पर नजरें गड़ाए था। मेरे मन-मस्तिष्क में एक अजीब सी संज्ञाशून्यता उभर आई ! आसपास का शोर भी मुझे सुनाई नहीं पड़ रहा था।
उसने मुझसे गरीबी का राशनकार्ड ही मांगा था, उसे देखते हुए मैंने भी यही सोचा था कि यह कार्ड इसे मिलना चाहिए। लेकिन जब उसने कहा कि पहले उसके पास यह कार्ड था, जिसे उसके जेल जाने पर काट दिया गया और वह तीन साल जेल में रह कर आया है, तो मेरे कान खड़े हो गए थे। मैं सोचा रहा था कि मरियल सा दिखने वाला यह बूढ़ा व्यक्ति क्या कोई अपराध कर सकता है ? और क्या ऐसा करना इसके बूते में है?
वैसे मेरा अपना अनुभव रहा है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा और रूढ़िवादिता के कारण गरीबी सिर चढ़कर बोलती है। छोटी-छोटी बातों में भी लोग अपना विवेक खो देते हैैं, ऐसा हो भी क्यों न, गरीबी में उलझी जिन्दगी लोगों को परिणामों से बेपरवाह बना देती है! और गाहे-बगाहे खून के रिश्तों में भी हत्या जैसा अपराध घटित हो जाता है। तो, उसकी जेल जाने वाली बात पर मैंने यह सोचकर कि "हो न हो इसने भी कोई अपराध कारित किया हो!" उससे पूँछ बैठा था, "तुम जेल क्यों गए थे?" फिर उसने अपनी कहानी सुनाई थी।
* * *
दरअसल भूमिहीन नहीं था वह, तीन-चार बीघे की खेती थी उसके पास। वैसे जो बुंदेलखंड को जानते हैं, वहां पड़ने वाले सूखे को भी जानते होंगे। जब दस-दस बीघे वाला किसान दाने-दाने को मोहताज हो रहा होता है, तो तीन-चार बीघा वाले किसान की स्थिति समझी जा सकती है, इनमें सूखा झेलने की कुव्वत नहीं होती, इन्हें तो वैसे ही गरीब माना जाता है। लेकिन सूखे में यही मजे में भी रहते हैं, क्योंकि तब बुंदेलखंड की समस्याओं पर राजनीति भी होने लगती है ! और खाद्य-सुरक्षा जैसी योजनाओं के पालन में तत्परता आ जाती है। इधर इज्जतदार बनने के चक्कर में दस बीघे वाला किसान न मजदूरी करता है और न ही राहत ले पाता है और सूखे की मार सबसे ज्यादा इसी पर पड़ती है, जिसके घरों से चूहे भी विदायी मांग रहे होते हैं।
हलकाई को खाद्य-सुरक्षा वाला कार्ड मिला था जिसके बलबूते उसकी गरीबी और सूखे की समस्या हल हो जाती। लेकिन उम्र के इस तीसरे पड़ाव में भी उसके मन के किसी कोने में विवाह की इच्छा राख में दबी तिनगी की तरह अब भी सुलगती रहती। गाँव का नत्थू, जो थोड़ा अकड़ूँ और चालू स्वभाव का था और उम्र के लिहाज़ से उससे छोटा भी था, अकसर अपनी चुहलबाजी से इस आग को हवा दे देता और हलकाई के मन में विवाह के लड्डू फूटने लगते। इस चक्कर में ही उसने नत्थू से अपने संबंध प्रगाढ़ कर लिए थे।
एक दिन अलसुबह ही नत्थू उसके पास आकर जेल में बंद अपने रिश्तेदार की जमानत लेने की उससे चिरौरी करने लगा था। हालांकि हलकाई ने अपनी गरीबी का हवाला जरूर दिया लेकिन समझाने पर वह नत्थू की बातों में आ गया था और अपनी तीन-चार बीघे की जमीन बंधक रख उसके रिश्तेदार की जमानत ले ली थी। जमानत वाले दिन जेल में बंद नत्थू के रिश्तेदार के बारे में जज ने हलकाई से पूँछा भी था कि "क्या तुम इसे जानते हो" लेकिन उसने बेखटके "हाँ" में सिर हिला दिया था। नत्थू के रिश्तेदार की जमानत हो गई। उस दिन शहर के एक होटल में नत्थू ने हलकाई को छक कर भोजन कराया था, पूँछ-पूँछकर उसे मनपसंद की चीजें खिलाई गई थी। फिर तीनों खुशी-खुशी गाँव लौट आए थे।
धीरे-धीरे जमानत लिए हुए पाँच-छह महीने खिसक गये थे, इस बीच हलकाई को देखकर भी नत्थू उसे अनदेखा करने लगा था। यही नहीं हलकाई के साथ हंसी-मजाक करना भी उसने बंद कर दिया। जबकि पहले वह हलकाई से घंटों चिपका रहता और जब-तब घर ले जाकर उसे खाना भी खिलाता। हलकाई को नत्थू का यह बदला व्यवहार कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यदि वह नत्थू से मुखातिब होना चाहता भी तो वह हाँ-हूँ करके नत्थू उससे मुँह मोड़ लेता।
एक दिन गाँव के कोटेदार के यहाँ से हलकाई अनाज लेकर आ रहा था। रास्ते में पड़ोसी बुधुवा का बेटा रमइया, जो कक्षा सात में पढ़ता था, दौड़ते हुए आते हुए दिखाई पड़ा था। पास आकर वह हांफते हुए बोला था, "दादू..आपके घर पुलिस आई है..आपको पूंछ रहे हैं.."
हलकाई को पुलिस वाली बात कुछ समझ में नहीं आई और वह डर भी गया था। उस दिन घबड़ाहट में वह हाँफते-कांपते घर पहुँचा था। घर के दरवाजे पर खड़े दो पुलिस वालों को देख उसके मुंह से कोई बोल नहीं फूट पाया था। वह अनाज का झोला पास की झिंलगी चारपाई पर रखकर पुलिस वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था। उसके कानों में एक पुलिस वाले की कड़कती आवाज गूँज उठी थी, "क्यों रे, तेरा ही नाम हलकाई है न?" काँपती आवाज में उसके द्वारा "हाँ" कहने पर पुलिस वालों ने कहा था, "हम कोर्ट की नोटिस तामील कराने आए हैं, सात दिन बाद तारीख है, मुल्जिम को कोर्ट में हाजिर करा देना..नहीं तो तुमको ही अन्दर कर दिया जाएगा।" उसे कुछ समझ में नहीं आया था कि वह किसे वह हाजिर कराए। क्योंकि उसे तो अब यह भी याद नहीं रहा कि कभी उसने किसी की जमानत भी ली थी। पुलिस वालों ने उसे जैसे याद दिलाते हुए कहा, "तुम इसकी जमानत लिए थे..कहाँ मर गया यह साला ? दो तारीखों से कोर्ट में हाजिर नहीं हुआ है।" उस दिन हलकाई पुलिस वालों के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा और पुलिस वाले एक कागज उसे पकड़ा कर अँगूठे का निशान लेकर चले गए थे।
पुलिस वालों के चले जाने के बाद हलकाई को अचानक नत्थू याद आया। साथ में उसके रिश्तेदार की जमानत लेने वाली बात भी याद आई। अब उसे पछतावा भी हो रहा था कि उसने नत्थू से उसके रिश्तेदार का नाम क्यों नहीं पूँछा था। बात समझ में आते ही उसका दिल धड़क उठा था और वह भागते हुए नत्थू के घर पहुँचा था। उस दिन नत्थू अपने घर नहीं मिला। घर वालों के अनुसार नत्थू बिना बताए घर छोड़कर कहीं चला गया है। यह सुनकर हलकाई को जैसे काठ मार गया था। तय तारीख पर वह मुलजिम को कोर्ट में हाजिर नहीं करा पाया था। कोर्ट द्वारा उसकी जमानत जब्त करने के आदेश पारित हो गए थे। बाद में, जमानत की धनराशि न जमा कर पाने के कारण न्यायालय ने हलकाई को जेल भेज दिया था।
अपनी कहानी के अंत में हलकाई ने अपनी मिचमिचाती आँखों से मुझे देखते हुए यही कहा था, "हाँ साहब, पैरवी में हमारी जमीन दूसरे ने लिखा लिया अब हमारे पास कोई खेती नहीं है।"
* * *
धीरे-धीरे मेरे आसपास का शोर मुझे सुनाई देने लगा। मैंने हलकाई की मुलमुलाती आँखों में झाँकने की कोशिश की और उससे पूँछा,
"जिसे तुम ठीक से जानते भी नहीं थे, फिर उसकी जमानत क्यों लिए..?"
"साहब, मैं ठहरा सीधा-सादा आदमी, मैंने नत्थू पर विश्वास कर लिया था और जमानत ले ली।" हलकाई ने कहा।
"फिर तो, नत्थू..." मैं पूरी बात कह पाता बीच में ही वह फिर बोल उठा,
"साहब तभी से उसका भी तो पता नहीं चला है, और साहब अगर वह मिल भी जाए तो यहाँ मेरी कौन सुनता है!"
मैं उससे कहने वाला था, "ऐसा कैसे? हम सब सुनने के लिए ही तो बैठे हैं यहाँ।" लेकिन बोल नहीं पाया, क्योंकि हमें लगा हम सिस्टम के प्यादे हैं और प्यादे बोलते नहीं! हाँ मैं उसे उसका राशनकार्ड दिलवाकर जैसे उसकी सुन लिया था! वह भी खुश हो रहा होगा कि आखिर उसकी सुनवाई जो हुई! ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में सिस्टम का उद्देश्य पूरा हो जाता है।
लेकिन उसके जाते ही मेरे मन में यही खयाल उठा,
"यदि मैं न्यायाधीश होता तो क्या इस कपाल में धँसी मिचमिचाती आँखों वाले जमानतदार के जमानत-पत्र को अस्वीकार कर देता? और अभियुक्त के वकील को दूसरा जमानतदार ढूँढ़ने का आदेश देता? लेकिन कानून के साथ हम भी तो अंधे ही होते.!!"
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