अश्वमेध यज्ञ के बारे में अश्वलायन श्रौतसूत्र का कथन है कि - जो सब पदार्थों को पाना चाहता है, सब विजयों का इच्छुक होता है और समस्त समृद्धि पाने की कामना करता है वह इस यज्ञ का अधिकारी है।
कुछ दिनों पहले तक पृथ्वी पर विकास के विजय का अश्वमेध यज्ञ चल रहा था! और इस यज्ञ के अश्व के खुरों की टाप से ग्लोबल-विलेज का कोना-कोना कंपायमान था। ग्लोब के निवासी विकास के उन्माद में गर्वोन्मत्त होकर इसके पीछे भाग रहे थे, और यह अश्व था कि ग्लोबल विलेज को बेरोक-टोक और बेलगाम होकर रौंदे जा रहा था! किसकी मजा़ल थी कि इस अश्वमेध यज्ञीय अश्व को रोक या बाँध सके!! लेकिन, विजयोन्माद में इसके पीछे भागते पागल पृथ्वीपतियों के हुंकार एवं इनके पद-टापों से बेचारी पृथ्वी तहस-नहस होकर अर्त्रनाद कर रही थी!!
अचानक यह उन्मादी घोड़ा पृथ्वीपतियों को बंधा दिखाई पड़ गया! वह भी कहाँ? कोरोना महाराज के आश्रम पर!! वही घोड़ा, जो विश्वविजय में मतवाला था और चहुँ ओर कुलाचे भर रहा था, कोरोना मुनि के आश्रम पर असहाय और बेबस बंधा खड़ा है। इधर पृथ्वीपति होने के अहंकार में इस घोड़े के पीछे भागने वाला मानव कोरोना महाराज के शाप के भय से मारे डर के कांप रहा है! तथा पृथ्वी भी जैसे अभयदान पाकर विकासोन्मत्त अश्व के टापों से उड़ी धूल झाड़ रही है। खैर..
हम बाल्मीकि रामायण में आए उस प्रसंग से आज की स्थिति से तुलना कर सकते हैं। राजा सगर अश्वमेध यज्ञ करते हैं और यज्ञ का घोड़ा गायब हो जाता है। वे अपने पुत्रों से उस घोड़े को खोजने के लिए कहते हैं। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को खोजने निकल पड़ते हैं। इस खोज में वे बड़े-बड़े त्रिशूलों और मजबूत हलों से पृथ्वी को खोदते जा रहे थे, जिससे पृथ्वी पर हाहाकार मच जाता है -
शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः।
भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन।।
पृथ्वी खोदने में अनेक नाग, दैत्य, और बड़े बड़े दुर्धर्ष राक्षस मारे गए और अनेक घायल हुए -
नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव।
राक्षसानां च दुर्धर्ष: सत्त्वानां निनदोभवत्।।
उन राजकुमारों ने साठ हजार योजन भूमि खोद डाली और पाताल तक पहुँच गए -
योजानानां सहस्त्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन।
विभिदुर्धरिणीं वीरा रसातलामनुत्तमम ।।
वे राजकुमार पर्वतों सहित इस जम्बूद्वीप को खोदते हुए चारों ओर ढूंढ़ते फिर रहे थे -
एवं पर्वतसंवाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजा:।
खनन्तो नृपशार्दूल सर्वत: परिचक्रमु:।।
अन्ततः देवता विकल होकर ब्रह्मा जी के पास गए और उदास होकर उनसे कहा कि हे भगवन् ! महाराज सगर के पुत्र सारी पृथ्वी खोद डालते हैं और उन लोगों ने अनेक सिद्धों, तथा जलवासियों को मार डाला है -
भगवन्पृथिवी सर्वा खन्यते सागरात्मजै:।
वहवश्च महात्मो हन्यन्ते जलवासिनः ।।
तथा सागर के पुत्रों के सामने जो पड़ता है, उसे वे यह कहकर मार डालते हैं कि, हमारे यज्ञीय अश्व का चोर यही है, यही हमारा घोड़ा चुरा ले गया है -
अयं यज्ञो हरो अस्माकमनेनाश्वोअप्नीयते।
इति ते सर्वभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजा:।।
देवताओं की बातों को सुनकर ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि जो पृथ्वी को धारण करते हैं (अर्थात प्रकृति) उन्हीं कपिल के क्रोधानल से वे राजकुमार दग्ध हो जाएंगे। यह पृथ्वी सनातन है निश्चय ही इसका नाश नहीं होगा (प्रकृति बैलेंस करती है) -
तस्य कोपाग्निना दग्धा भविष्यन्ति नृपात्मजाः।
पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः ।।
घोड़ा न मिलने पर सगर के पुत्रों ने अपने पिता से जाकर कहा कि हमने सारा सागर समस्त पृथ्वी ढूंढ़ डाली और देव, राक्षस, पिशाच, उरग और पन्नग जो हमें मिले, उन्हें हमने मार डाला, किंतु हमें वह यज्ञीय अश्व नहीं मिला -
सहितासागर: सर्वे पितरं वाक्यंव्रुवन् ।
परिक्रांता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च मुदिताः।।
देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगकिन्नराः
न च पश्यमहेअश्वं…
तो, राजा सगर ने कुपित होकर अपने पुत्रों से पुनः पृथ्वी को खोदने के लिए कहा -
भूय: खनत भद्रं बो निर्भिद्यं वसुधातलम्।
फिर तो सगर के पुत्रों ने रसातल खोदते हुए आगे बढ़कर पूर्व दिशा को खोदकर दक्षिण दिशा को खोदने लगे -
मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्वा रसातलम
ततः पूर्वां दिशं भित्वा दक्षिणां विभिदुः पुनः।।
और फिर इसी तरह धरती खोदते हुए पश्चिम, उत्तर दिशा से होते हुए ईशान दिशा की ओर बढ़कर बड़े क्रोध से पृथ्वी खोदने लगे -
रोषादभ्यखनन्सर्वे पृथिवी सगरात्मजाः।
अन्ततः उन्होंने अपने उस यज्ञीय अश्व को सनातन वासुदेव कपिल के आश्रम में घास चरते देखा,
ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम्।
हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः।।
और कपिल को घोड़ा चुराने वाला समझकर क्रुद्ध होकर उन्हें मारने के लिए दौड़े। कपिल भगवान ने क्रुद्ध होकर सगर के उन साठ हजार पुत्रों को भस्म कर राख का ढेर बना दिया -
ततस्तेनाप्रमेयेण कपिलेन महात्माना।
भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजा:।।
इस प्रकार बाल्मीकि रामायण में वर्णित इस प्रसंग, जिसमें राजा सगर के साठ हजार पुत्रों से पृथ्वी त्रस्त और आतंकित थी, की तुलना विकास के पीछे पगलाए आज के मनुष्य से करते हैं, तो इसे एक रूपक कथा के सदृश पाते हैं। विकास की लालसा में पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियाँ धरती की प्राकृतिक व्यवस्था को नष्ट तो करती ही है, साथ में मनुष्य के लिए भी घातक बन जाती है। आज कोरोना संकट भी कपिल भगवान के शाप की तरह मानवजाति पर मँडरा रहा है। यह ग्लोबलविलेज पर नहीं ग्लोबलविलेज का संकट है।
महाकाव्य के सत्य किसी राजनीतिक विसात पर नहीं रचे जाते, बल्कि उनके पीछे लोककल्याण की अवधारणा होती है। ऐसे ही लोकाभिमुख काव्य का चिरंतन मूल्य होता है।
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