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शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

भगवान से भी बड़ा मनुष्य है -2

नारद जी महर्षि वाल्मीकि से मिलने आते हैं, तो महर्षि वाल्मीकि जिज्ञासु भाव से उनसे पूँछ बैठते हैं -       

         को न्वास्मिन्सांप्रतं लोके सत्य वाक्यो दृढ़व्रतः।
         धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्य वाक्यो दृढ़व्रतः ।।
         चरित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।
          विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः।।
         आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोनसूयकः।
         कस्य विभ्याति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।।
       
        अर्थात इस संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दॄढ़व्रत, अनेक प्रकार के चरित्र करने वाले, प्राणिमात्र के हितैषी, विद्वान, समर्थ, अति दर्शनीय, धैर्यवान, क्रोध को जीतने वाले, तेजस्वी, ईर्ष्याशून्य और युद्ध में क्रुद्ध होने पर देवताओं को भयभीत करने वाले कौन हैं।
     
        इसके उत्तर में नारद मुनि ने महर्षि वाल्मीकि को श्री राम के जीवन चरित्र का संक्षिप्त वृत्तांत सुनाया। 

        नारद जी के देवलोक प्रस्थान करने के पश्चात वाल्मीकि जी अपने शिष्यों के साथ स्नान हेतु तमसा नदी के तट पर आए और वहीं पर मिथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े के नर क्रौंच पक्षी को एक बहेलिया द्वारा मारा जाना देखते हैं तथा इस पापपूरित हिंसा कर्म और विलाप करती हुई क्रौंची पक्षी को देख शोकार्त्त महात्मा वाल्मीकि के मुख से सहसा निकल पड़ता है -
        
         मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समा।
         यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।
       
         हे बहेलिये! तूने जो इस कामोन्मत्त नर पक्षी को मारा है, इसलिए अनेक वर्षों तक तू इस वन में मत आना, अथवा तुझे सुख शान्ति न मिले।
         
         लेकिन वे यह सोचकर और भी दुखी हो उठे कि इस पक्षी के कष्ट से व्यथित उनके मुँह से यह क्या निकल गया ! अर्थात उन्होंने बहेलिए को शाप क्यों दे दिया -
       
        तस्यैवं व्रुवतश्चिंता वभूव हृदि वीक्षतः ।
       शोकार्त्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतंमया।।
       
        फिर उन्हें वहीं पर यह भी अनुभूत हुआ कि यह श्लोक उनके मुख से शोकार्त्त ही निकला है, इसमें चार पद हैं प्रत्येक पद में समान अक्षर हैं और वीणा पर भी यह गाया जा सकता है, अतः इसमें मेरा अपयश नहीं है-
      
     पादवध्दोक्षरशमस्तन्त्रीलयसमन्वितः।
     शोकार्त्त प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा।।
     
       इसके बाद ब्रह्मा जी उनसे मिलने आते हैं, लेकिन महर्षि वाल्मीकि का ध्यान बार-बार बहेलिये की ओर ही जा रहा था और वे यह सोचकर चिंतातुर और दुखी हो रहे थे कि पापी बहेलिये ने वैर बुद्धि से आनंद से खेलते हुए पक्षी का वध, व्यर्थ ही कर डाला-
       "पापात्मना कृतं कष्ट वैरग्रहण बुद्धिवा" 

        महर्षि वाल्मीकि को इस प्रकार दुखी देखकर ब्रह्मा जी ने उनसे नारद जी के मुख से सुन चुके श्री रामचन्द्र जी के छिपे हुए अथवा प्रकट सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करने के लिए कहा - 
      
       रामस्य चरित कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम।
       धर्मात्मनो गुचवतो लोके रामस्य धीमतः।।
       वृत्तं कथय वीरस्य यथा ते नारदाच्छुतम।
       रहस्यं च प्रकाशं च यद्वत्तं तस्य धीमतः।।

        आगे ब्रह्मा जी ने यह भी कहा कि तुम श्रीरामचन्द्र जी की मनोहर पवित्र कथा को श्लोकबद्ध बनाओ। जब तक इस धराधाम पर पहाड़ और नदियाँ रहेंगी, तब तक इस लोक में श्री रामचन्द्र जी की कथा का प्रचार रहेगा -

       कुरु रामकथा पुण्यां श्लोकवद्धां मनोरमाम्।
       यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।।
       तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिप्यति।
       यावद्रामायणकथा त्वकृता प्रचरिप्यति।।

         और अंततः ब्रह्मा जी की बात से प्रेरणा पाकर महर्षि वाल्मीकि ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला समुद्र की तरह रत्नों से भरा पूरा और सुनने से मन को हरने वाला; श्री रामचन्द्र जी का चरित्र जैसा कि नारद जी से सुन चुके थे, वैसा ही बनाया -

         कामार्थगुण संयुक्तं धर्मार्थगुणविस्तरम्।
         समुद्रामिव रत्नाढ्यं सर्वश्रुति मनोहरम्।।|  
         स यथा कथितं पूर्व नारदेन महर्षिणा।
         रघुनाथस्थ चरितं चकार भगवानृपिः।।

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