मेरा मानना है कि वाल्मीकि के राम स्तुति और अराधना के विषय नहीं हैं, बल्कि इन्हें अपने अन्तर में अनुभव किया जा सकता है। हाँ इन राम में स्वयं को खोजा जा सकता है। दरअसल स्तुति और अराधना भक्ति का वह सोपान है, जिसपर खड़ा व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है, ऐसा अराधक विकल्पहीन होता है, जबकि विकल्पों के बीच ही व्यक्ति को कर्म करने के अवसर दिखाई पड़ते हैं।
वैसे मनुष्यता, संकल्प और विकल्प के बीच ही विकसित होती है। हमारे अधिकांशतया महात्मन् संकल्प को श्रेष्ठ मानकर विकल्प को खारिज करते हैं और विकल्पों को संकल्प की सिद्धि में बाधक के रूप में देखते है। लेकिन वे यहीं पर भूल करते हैं, मानवीयता विकल्पों के बीच ही विकसित होती है। संकल्पवान् को सिद्धि तो प्राप्त होती है, लेकिन आवश्यक नहीं कि यह सिद्धि संसार के लिए कल्याणकारी ही हो! पुराण कथाओं में राक्षस भी अपने संकल्प के बल सिद्धि प्राप्ति हेतु संकल्पित होकर तप करते दिखाए गए हैं, लेकिन वे अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग करते हुए ही देखे गए हैं। आखिर ऐसा क्यों?
दरअसल स्वार्थपूर्ति हेतु अर्जित सिद्धियां कल्याणकारी नहीं होती। ये संसार के लिए अहितकारी तो होती ही हैं स्वयं धारक का भी विनाश कर डालती हैं। इस प्रकार बिना कर्तव्यपथ का अनुगमन किए यदि मात्र संकल्प से ही सिद्धि अर्जित की जाती है तो यह सिद्धि कल्याणकारी नहीं हो सकती। इसीलिए वाल्मीकि के राम संकल्प और विकल्पों के बीच जूझते हुए कर्तव्यपथ के अनुगामी हैं। ऐसे राम में 'राजत्व' नहीं है, तभी वे राक्षसों के साथ रावण का विनाश कर पाते हैं। वहीं विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए जब राजा दशरथ से राम को मांगते हैं तो पुत्रमोह से व्यथित हो दशरथ स्वयं अपनी सेना के साथ चलकर यज्ञ की रक्षा का प्रस्ताव देते हैं कि -
इयमक्षौहिणी पूर्णा यस्याहं पतिरीश्वरः ।
अनन्या संवृतो गत्वा योद्धाहं तैर्निशाचरैः।।
मेरे पास जो भारी सेना है, उसे साथ लेकर मैं उन राक्षसों से लड़ुंगा और आगे विश्वामित्र से कहते हैं "अहं तत्र गमिस्यामि न रामं तेतुमर्हसि" अर्थात् मैं स्वयं वहाँ जाउंगा, आप श्री राम जी को न ले जाइए। इसके बाद वे यानि दशरथ द्वारा उन विघ्नकारी राक्षसों का परिचय पूँछे जाने पर विश्वामित्र "पुलस्त्यवंश प्रभवो रावणो नाम राक्षसः" कहते हुए रावण का परिचय देते हैं और बताते हैं कि उसकी प्रेरणा से बड़े बलवान दो राक्षस जिनके नाम मारीच और सुबाहु है, ऐसे यज्ञों में विघ्न डालते हैं -
"तेन संचोदितौ द्वौ तु राक्षसौ सुमहावलौ
मारीचश्च सुबाहुश्च यज्ञविघ्नं करिष्यति।।
विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ ऐसे दुरात्मा का सामना करने से इनकार कर देते हैं -
"न हि शक्तोस्मि संग्रामें स्थातुं तस्य दुरात्मनः"
और कहते हैं कि रावण युद्ध में बलवानों का बल क्षय कर देता है, अतएव मैं उसके या उसकी सेना के साथ युद्ध करके पार नहीं पा सकता-
स हि वीर्यवतां वीर्यमादत्ते युद्धि राक्षसः।
तेन चाहं न शक्रोमि शंयोद्धुं तस्य वा वलैः।।
वाल्मीकि जी ने इस प्रसंग के माध्यम से जैसे यहाँ कहने का प्रयास किया है कि राजत्व से राक्षसत्व को नहीं जीता जा सकता! बल्कि संकल्प और विकल्प के बीच अपने कर्त्तव्यपथ की खोज करने वाले मानवीय भाव वाले राम ही ऐसे राक्षसत्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
ताड़का एक स्त्री है, राम को उसका वध करने में हिचक हो सकती है इसीलिए विश्वामित्र राम को समझाते हैं कि ताड़का अधर्मी है और पहले भी पृथ्वी का नाश चाहने वाली विरोचन की लड़की मन्थरा को इंद्र ने मार डाला था। इसी प्रकार भगवान विष्णु ने भी इंद्र का नाश चाहने वाली भृगु की पतिव्रता पत्नी औत शुक्र की माता को मार डाला था -
अधर्म्या जहि काकुत्स्थ धर्मो हास्या न विद्यते
श्रुयते हि पुरा शक्रो विरोचन सुतं नृप।।
पृथ्वी हन्तुमिच्छन्तीं मन्थरामभ्यमुढ्यत
विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी दृढ़व्रतो
अनिंन्द्रं लोकमिच्छंन्ती काव्यमाता निपिद्रिता।।
और इसी प्रकार अनेक पुरुषोत्तम राजकुमारों ने समय-समय पर अनेक अधर्माचरण वाली स्त्रियों का वध किया है। अतएव तुमको भी इस दुष्ट यक्षिणी को मारने में किसी प्रकार का विचार न करना चाहिए -
एतैरन्यैश्च बहुभी राजपुत्र महात्मभि:
अधर्मनिरता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः
तस्मादेनां घृणा त्यक्त्वा
जहि मच्छासनान्नृप।।
विश्वामित्र के यह समझाने पर राम "गो ब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च" अर्थात गो ब्राह्मण के हित और इस देश वासियों को सुखी करने हेतु ताड़का को मारने के लिए तैयार होते हैं, लेकिन ताड़का के सामने आने पर उसके कान और नाक काट कर केवल उसे भगाने का ही उद्यम करते हैं -
एनां पश्य दुराधर्पा मायावलसमन्वितम
विनिवृत्तां करोम्यद्य हृतकर्णाग्रानासिकाम्।
क्योंकि वे सोचते हैं, स्त्री की जान लेना ठीक नहीं उसे केवल दुष्ट कर्म करने लायक नहीं रहने देना चाहते -
न हृयेनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम्।
वीर्यं चास्या गतिं चापि हनिष्यामीति मे मतिः।।
यही है वाल्मीकि के राम की मानवीयता! उनका उद्देश्य या संकल्प केवल यज्ञ की रक्षा करने का है, इसके लिए अनावश्यक किसी की वे जान नहीं लेना चाहते!! कर्तव्य पालन के पीछे ऐसी ही भावना होती है और यहाँ विकल्पों को भी महत्त्व मिलता है, यही तो मनुष्यत्त्व भी है। मनुष्यता किसी सिद्धि के लिए लालायित नहीं होती।
लेकिन ताड़का रुकती नहीं उसका रूप और भी विध्वंसक होता चला जाता है, इसे देखकर विश्वामित्र राम के इस दया भाव को लक्षित करते हुए उन्हें पुनः समझाते हैं कि इस पर अब दया दिखाने की जरूरत नहीं है -
दृष्टा गाधिसुतः श्रीमानिदं वचनमव्रवीत्
अलं ते घृणया राम पापैपा दुष्टचारिणी।।
यहाँ तुलसी के राम की अपेक्षा वाल्मीकि के राम अधिक मानवीय हैं क्योंकि तुलसी के राम इतना सोच-विचार नहीं करते और ताड़का के दिखाई पड़ने पर मात्र एक ही वाण से वे उसका वध कर डालते हैं -
चले जात मुन्हि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।
एकहि बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
तुलसी में मोक्ष की कामना है, उनके राम भगवान हैं और इसीलिए राम ताड़का को 'दीन' समझकर उसे देवस्थान भी प्रदान करते हैं।
लेकिन वाल्मीकि के राम द्वारा ताड़का के मारे जाने पर ताड़का के वन का शाप छूट गया और वह चैत्ररथ वन की तरह अत्यंत रमणीक हो गया -
मुक्तशापं वनं तच्च तस्मिन्नेव तदाहनि।
रमणीयं विवभ्राज तथा चैत्ररथं वनम्।।
वाकई ! कर्त्तव्य पथ का अनुगामी मनुष्य धरती को रमणीय बनाता है। इस प्रकार तुलनात्मक रूप से हम कह सकते हैं कि जहाँ भगवान की कल्पना के केंन्द्र में मुमुक्षु भक्त होता है वहीं मानवीयता के केंन्द्र में विश्व और उसका प्रत्येक कण-कण होता है। इसीलिए ऊपर वाले को केंन्द्र में रखने वाले किसी धार्मिक की अपेक्षा मनुष्यता को केंन्द्र में रखकर कर्तव्य पथ के अनुगामी व्यक्ति इस धरती को अधिक कल्याणकारी और सुंदर बना सकता है। एक कवि की कल्पना में उसका महानायक भी ऐसा ही होता है और वाल्मीकि के राम ऐसे ही हैं।
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