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शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

भगवान से भी बढ़कर मनुष्य है-1

         भगवान से भी बढ़कर मनुष्य होता है। दरअसल 'मनुष्य होना' अस्तित्व बोध है तो वहीं 'ईश्वरत्व' इस अस्तित्व-बोध का खंडन है। जब हम "सियाराममय सब जग जानी" कहते हैं तो इसमें सब कुछ को, ईश्वर के रूप में स्वीकार कर चलने की बात है। लेकिन ठीक इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक भाव, 'ईश्वर' की इस 'सब कुछ' से एक खामोशी भरी दूरी को भी स्वीकारता है। इस 'खामोशी भरी दूरी' में चीजों के प्रति उपेक्षा का भाव निहित है, और जो प्रकारांतर से 'अमानवीयता' ही है। 'ईश्वर' की यह 'अमानवीयता' इस रूप में समझ सकते हैं कि यदि मनुष्यता का मुक्ति में विश्वास है तो 'ईश्वरत्व' चीजों को अपने से 'परे' नहीं जाने देती। देखा जाए तो ईश्वर पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के ईश्वर की तरह सर्वग्रासी है। तभी तो, ऐसे सर्वग्रासी ईश्वर को सिंह की गुफा के सदृश्य माना गया, जिसमें जाते हुए पदचिह्न्न तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन बाहर आते हुए पदचिह्न्न नहीं मिलते।

           वैसे 'भगवान' और 'मनुष्य' के बीच के यह झगड़ा सुलझाने के लिए अद्वैत, विशिष्टाद्वैत या द्वैतवाद भी पर्याप्त नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अवधारणा में ही सारे विवाद की जड़ अन्तर्निहित है। इस समस्या का समाधान दार्शनिक दृष्टि में नहीं, अपितु मानवीय संवेदनाओं से उपजी साहित्यिक-दृष्टि, इसपर अधिक समग्रता के साथ और संवेदनशील होकर विचार करती हुई प्रतीत होती है।

            किसी कृति की साहित्यिक दृष्टि उसकी रचना प्रक्रिया से समझी जा सकती है। इसके लिए महाकवि वाल्मीकि के रामायण के राम और तुलसी के रामचरित मानस के राम का चरित्र तुलनीय है। रामायण की रचना प्रक्रिया के पीछे महाकवि वालमीकि के "मा निषाद प्रतिष्ठां.." में अभिव्यक्त 'शोकार्त्त' भाव वाली संवेदनशीलता है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी इस बात को स्वीकार करते हैं -

       "शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा"
   
        अर्थात यह श्लोक हमने अपने मुख से शोकार्त्त ही निकाला है।
          
        जिस अभिव्यक्ति के पीछे शोक से उपजी मनःस्थिति हो; वह दूसरों के हृदय में वैसी ही वेदना की कल्पना कर सकता है। ऐसे रचनाकार की रचनावृत्ति मनोवैज्ञानिक ढ़ग से अपने पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए चलती है। इसीलिए आदि कवि वाल्मीकि के राम "सम्पूर्ण मनुष्य" की ओर अग्रसर हैं। नामवर सिंह जी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के कथन का उल्लेख करके यही दिखाने का प्रयास किया है - "वाल्मीकि ने नेता की ही खोज की थी। ऐसे नर चंद्रमा की, जिसमें मनुष्य की 'समग्रा लक्ष्मी' का निवास हो। उन्हें उन नेताओं के किसी ऐसे स्थाई भाव की खोज नहीं थी, जो विभावानुभाव संचारी भाव के संयोग से रस रूप में परिणत हो सके। वे मनुष्य के संपूर्ण और आदर्श रूप के जिज्ञासु थे।" कहने का आशय यह भी है कि महाकवि रामायण में बिना किसी "वाग्जाल" के राम की प्रतिष्ठा और उनके चरित्र की खोज करते हैं और जिसमें नामवर जी के अनुसार, द्विवेदी जी के शब्दों में "उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता है।" 

          इस प्रकार यदि वाल्मीकि की संवेदनशीलता एक 'सम्पूर्ण मनुष्य' की खोज करती है तो वहीं तुलसी ने रामचरित मानस को भक्ति-भाव की भूमि पर रचा है और यहाँ राम का पाला 'भक्त' से पड़ा है। इसीलिए तुलसी मानते हैं कि सुकवि की कविता होने पर भी राम नाम के बिना वह श्रेष्ठ नहीं कहलाती। जैसे वस्त्र के बिना अन्य साज-सज्जा के होते हुए भी नारी शोभनीय नहीं होती -     

"भनिति विचित्र सुकवि कृत न जोऊ, राम नाम बिनु सोह न सोऊ।
बिधुवदनी सब भांति संवारी, सोन न बसन बिना बर नारी।।"
       
        भक्ति-मानस की पृष्ठभूमि में तुलसी की सारी संवेदनाएँ "भगवान" की प्रतिष्ठा में ही खर्च हो जाती है। महिमामंडन के इस प्रयास में "भगवान" का चरित्र ऐसा उभरता है कि 'राम' उसके नीचे दब जाते हैं।
      
        यहाँ इस चर्चा के परिपेक्ष्य में, रामायण और रामचरित मानस में आए अहिल्या वाले प्रसंग से राम के चरित्र की तुलना कर दोनों महाकवियों, वाल्मीकि और तुलसी के 'सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य' समझ सकते हैं।

(क्रमशः... )

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