"हम नौकरी-पेशा वाले न जाने क्यों पचास के पार थके-थके से लगने लगते हैं...लगभग स्थितिप्रग्य या कहें कि स्टैग्नेशन के अंदाज में! जैसे, जहाँ जाना था जा चुके, जहाँ से लौटना था लौट चुके हैं।" अपने पूर्व साथियों को देखते हुए मैंने उस दिन यही सोचा था..इनके चेहरों पर मुस्कुराहटें तो थीं..और..हँसी भी थी...लेकिन इनमें अब वह उल्लास दिखाई नहीं दिया था जो आठ-दस वर्षों पहले किन्हीं ऐसी ही मुलाकातों में दिखाई देता था।
घर पर आ मैंने श्रीमती जी से इसी बात की चर्चा की थी..वह मुझपर फटते हुए से बोली थीं, "अरे हाँ..सब आप की ही तरह गैरजिम्मेदार थोड़ी न होते हैं...सबको अपने परिवार की चिन्ता होती है...बस एक तुम्हीं हो, जैसे किसी से कोई मतलब नहीं.." हलांकि मैंने सफाई भी दी.. लेकिन एक स्त्री जिसका पति दूर नौकरी कर रहा हो और वह छोटी-बड़ी परिवारिक समस्याओं से अकेले जूझती रही हो तो, इस तरह उसका फटना स्वाभाविक ही है। मैंने सफाई दी "नौकरी भी तो, मैं परिवार के लिए ही कर रहा हूँ" लेकिन मेरी इस बात का भी उनपर असर होता नहीं दिखा।
खैर, जो भी हो..उम्र के पचासवें वर्ष के आसपास पहुँच कर हम जैसे नौकरी-पेशा व्यक्तियों के चेहरों और स्वास्थ्य पर जीवन के जद्दोजहद और उससे उपजे तनाव का स्पष्ट-लक्षण परिलक्षित होने लगता है, साथ ही पारिवारिक समस्याओं से भी दो-चार होना पड़ता होगा...अब तक आगामी जीवन और कैरियर की भी स्थिति स्पष्ट हो चुकी होती है..शायद यही कारण है कि इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते व्यक्तित्व से खनक गायब होने लगती है..और..एक नई औपचारिकता घर करने लगती है...
हो सकता है इसे पढ़ते हुए, कोई मेरी इन बातों से सहमत न हो, यही सोचते-सोचते कल की रात दस बजे जब मुझे नींद सताने लगी...तो सोचा...चलो जल्दी सो जाते हैं, जिससे सबेरे पाँच के आसपास उठना हो जाएगा और टहलना भी हो जाएगा, क्योंकि इधर डेढ़-दो महीनों से सुबह स्टेडियम जाकर टहलना बंद सा हो चुका है...फिर सुबह जाकर लगभग साढ़े चार बजे नींद टूटी...रात का किया हुआ संकल्प याद आ गया..और..स्टेडियम की ओर जाने की तैयारी करने लगा...
स्टेडियम की ओर जाते हुए मेरा ध्यान सड़क के किनारे खम्भों पर जलती लाईटों पर चला गया...वाकई! सुबह होने को आ रही है.. लेकिन अभी तक बल्बों से छिटक रही रोशनी के इर्द-गिर्द कीट-पतंगे मँडरा रहे हैं...मन ही मन सोचा, "ये बेचारे रात भर से ऐसे ही मँडरा रहे होंगे..वह भी बिना थके..रोशनी के प्रति इनका इतना प्रेम..!." कई जगह कवियों ने तो रोशनी के प्रति इन कीट-पतंगों के इसी प्रेम को देखकर कर अपनी कविताएँ रच डाली हैं..हलांकि ऐसी मुझे कोई कविता याद नहीं आई... नहीं तो यहाँ एक-दो लाईन जरूरत लिखता..पढ़ाई में रट्टू टाइप का न होने के कारण अपने को कोस बैठा..
टहलते हुए आगे स्टेडियम की ओर बढ़ा जा रहा था कि "चींपों-चींपों" की आवाज सुनाई पड़ी..! इतनी सुबह गधे की आवाज सुनकर मैं आश्चर्यचकित था...क्योंकि, एक दो वर्षों से यही मानते आया हूँ की हमारे देश में बहुत ही कम गधे बचे हैं...और अगर हैं भी तो खच्चर में, मतलब घोड़े के क्रासब्रीड हो चुके हैं... तब तक देखा, वह गधा दौड़ता हुआ मेरे पास से निकल गया....मैंने उसे ध्यान से देखा था...एकदम शुद्ध टाइप का गधा प्रतीत हुआ.. मेरे देखते-देखते उसके पीछे एक दूसरा गधा भी दौड़ते हुए निकल गया था...उसके दौड़ने की गति देख मुझे उसके गधे होने पर ही संदेह हो आया..लेकिन था वह गधा ही..अरे! पिछले चुनाव पर गधे को लेकर छिड़े विवाद को सोचकर मैंने इस विषय पर सोचने पर तत्काल विराम लगा दिया....तब तक मेरा पीछा कर रहे एक मासूम से पिल्ले की "बौ-बौ" की आवाज सुनाई पड़ी, पीछे मुड़कर देखा..उसे देखकर मैं मुस्कुरा उठा था...
स्टेडियम में इक्का-दुक्का लोग ही थे...इसका दो चक्कर लगाया और फिर लौट पड़े...लौटते हुए स्टेडियम में प्रवेश करते एक सज्जन दिखाई पड़े...मुझे याद आया..कई माह पहले ये किसी कार से अपने कुछ साथियों के साथ आते थे और चार-पाँच की संख्या में ग्रुप बना कर टहलते थे...और टहलते हुए इनकी हँसी के साथ जुमले सुनते हुए मैं अपनी #दिनचर्या के लिखने के विषय खोज लेता था.. आज इन्हें अकेला देख ग्रुप टूटने की सोच कुछ क्षण के लिए मन उदास हो गया...वाकई! जीवन में भी एक समय ऐसा ही आता है!!
खैर... मैं टहलने का अपना कोटा पूराकर स्टेडियम से लौट पड़ा था...सड़क बैठे गो-वंशो के झुंड के पास एक कुत्ते के जोरदार ढंग से भौंकने की आवाज सुनी...पास पहुंचने पर देखा! एक गधा बेचारा सड़क पर बैठे उन गो-पशुओं के झुंड के पास से उदासी भरे कदमों के साथ धीरे-धीरे दूर चला जा रहा था...वह कुत्ता उसी गधे पर भौंक रहा था और उसे गायों से दूर भगा रहा था.. उस कुत्ते की गो-रक्षा जैसी भंगिमा पर एक बार फिर मैं मुस्कुरा उठा था...!!
आवास पर लौट आया था... तुलसी की पत्ती और अदरक डालकर चाय बनाया..एक बार श्रीमती जी जब यहाँ आई थीं तो तुलसी के पौधे रोप गई थीं..आजकल ये तुलसी के पौधे छंछड़ कर काफी संख्या में हो चुके हैं और मैं भी सुबह की चाय में इनका बखूबी प्रयोग करता हूँ... तो यही चाय पीते हुए मैं अपनी यह #सुबहचर्या लिख रहा हूँ...
इधर अखबार भी आ गया है... पढ़ा, लेकिन क्या पढ़ा, इसकी चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता.. वैसे भी लंबा लिख गया.. आप भी पढ़ते-पढ़ते ऊब रहे होंगे..
तो #चलते-चलते
एक जगह पढ़ा, सार्थक जीवन के लिए निडर होकर जिए..शायद जीवन का उल्लास इसी में निहित है....
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