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शनिवार, 23 जुलाई 2016

स्मृति:शेष..भाई विनीत!

           भाई विनीत! यदि आप मुझे कहीं मिल जाते न.. तो आप से कहता "भाई जी अब से फेसबुक पर मेरे प्रत्येक पोस्ट को लाइक मत किया करिए...हाँ बस इतना कह दीजिएगा कि विनय भाई मैं आप की सभी पोस्टें पढ़ता हूँ..!!"
           हाँ..भाई विनीत! 28/5/16 का मेरा यह पोस्ट-
          "कविता - निस्सहायता और अकर्मण्यता से उपजी भावाभिव्यक्ति।
          कहानी या उपन्यास - स्वप्नलोक में विचरण करने वाला स्वप्नदर्शी।
          व्यंग्य - "खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचै" जैसी अभिव्यक्ति।
          अन्य लेखकीय विधा - बैठे-ठाले का खाली-पीली बोम मारना।"
          जिसपर आपकी यह टिप्पणी थी -
          "भाई ऐसे तो भावाभिव्यक्ति की सभी विधाएं हारे का हरिनाम हो जाएँगी। निःसंदेह कर्म काव्य से बड़ा है,..!
मानव को भाव, अनुभूति, अभिव्यक्ति, संवेदना की जो विशिष्टताएं प्राप्त हुई हैं, उनका उन्वान है साहित्य और कला, विज्ञान और विश्लेषण। आप स्वयं सर्जक हैं, ऐसा क्यों कह रहे हैं,,"
         भाई आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मैं स्वयं को कोसने लगा था कि नाहक ही मैंने ऐसी पोस्ट डाली जिसपर आपको ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी थी और इसे ही ध्यान में रखकर मैंने यह टिप्पणी की थी -
          "सभी आदरणीय मित्रों को हार्दिक धन्यवाद। 
वैसे सृजन हार से ही उपजती है जो शायद अगले को न हारने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ प्रश्न कथ्य पर नहीं है और न ही इन परिभाषाओं से कथ्य की मूल्यवत्ता प्रभावित होती है। बस शंका है कि कहीं लेखक कोई भटका हुआ राही तो नहीं...?"

         खैर..फिर इसके बाद मैंने फेसबुक पर कई पोस्टें डाली। न तो आपने मेरी उन पोस्टों को लाईक किया और न ही कमेंट...मैं आपका इन्तजार करता रहा..शायद आपके "लाईक" की मेरी आदत हो चुकी थी..! हाँ.. इसके बाद आपको पता है? मैंने आपकी फेसबुक टाइमलाईन चेक की और आपकी माँ की तस्वीर को लाईक किया जिसे आपने 18/5/16 को पोस्ट किया था...एक क्षण को मुझे लगा शायद आप मुझसे नाराज हो इसीलिए मुझे अपने पोस्ट पर आपकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है.. मैं परेशान था इसलिए नहीं कि मुझे आपकी लाईक नहीं मिल रही थी बल्कि परेशान इसलिए था कि इसी बहाने आपको एहसास करने की मेरी आदत पड़ चुकी थी....
         विनीत भाई! वैसे मैं सदैव से यह मानता आया हूँ कि रिश्ते बनाने नहीं पड़ते रिश्ते तो खुद ब खुद अपने आप बन जाते हैं..!! आपको याद है न.. जुलाई 1997 से FATI लखनऊ में तीन महीने की हमारी एक साथ ट्रेनिंग...आप उम्र में हमसे थोड़े बड़े थे.. अकसर आप कभी मुझे अकेले देखते तो मेरे कमरे में आ जाते और कभी-कभी तो कुछ मुद्दों पर बड़े भाई की तरह सलाह दिया करते..! हाँ मुझे आज भी याद है आप और रणवीर जब टेबल-टेनिस खेल रहे होते तो मैं वहीं बैठ कर आप दोनों का खेल देखा करता...
         खैर.. यूँ ही इसी तरह कैसे हम लोगों की तीन महीने की ट्रेनिंग अवधि बीत गई हमें पता ही नहीं चला..! हाँ आपको याद है न..उस दिन प्रशिक्षण पूरा हो जाने के बाद FATI संस्थान में हम सब का अन्तिम दिन था.. हम सब कितना रोए थे..! आखिर कोई न कोई रिश्ता तो हमारे बीच बन ही गया था...
           हाँ भाई! इसके बाद हमारी सेवाएँ बदल गई...आप जिला होमगार्ड कमांडेंट के पद पर चले गए और मैं प्रान्तीय विकास सेवा में चला आया तथा हमारी व्यस्तताएँ बढ़ गई, हमारा मिलना नहीं हो पाया...
           फिर...हम मिले यहीं इसी फेसबुक पर! मेरे लिखे से आपकी भावनाएँ जैसे एकाकार होती और इस दौरान मैंने देखा मेरी कोई भी पोस्ट आप से अछूती नहीं रही..!! वैसे भाई आप तो एक बेहद संवेदनशील इंसान थे...इस बात को मैं ट्रेनिंग अवधि में ही समझ गया था और आप मुझे किसी कैनवास के पात्र लगे थे जिसमें मैंने भी अपना अक्स ढूँढ़ने की कोशिश की थी।
           कई बार मैंने सोचा फेसबुक की इस आभासी (?) दुनियाँ से बाहर वास्तविक दुनियाँ में आप से मुलाकात हो, लेकिन इसे मैं टालता रहा, बस यही सोचकर कि आज नहीं तो कल...वैसे भाई विनीत! मैं हूँ ही ऐसा...रिश्ते निभाना जानता ही नहीं, क्योंकि मेरे दिमाग में एक कीड़ा घुसा है और वह यह कि रिश्ते निभाए नहीं जाते बल्कि रिश्ते यदि हैं तो खुद-ब-खुद निभते चले जाते हैं.. हाँ..भाई विनीत...मुझे रिश्तों को गुलदस्तों की तरह सहेजने से सदैव परहेज रहा है.. क्योंकि रिश्ते मेरे लिए बड़े प्लेटोनिक किस्म के होते हैं जिनका एहसास मैं तो करते रहना चाहता हूँ लेकिन किसी और को इसका एहसास नहीं करा पाता...! और यहीं पर...रिश्तों को लेकर मैं मात खा जाता हूँ.. और.. दूसरों की नजरों में मैं अपने रिश्तों से बहुत दूर दिखाई पड़ता हूँ..हाँ भाई विनीत! रिश्तों को लेकर मेरी यही नियति भी है....मैं जानता हूँ आज की दुनियावी जीवन में मैं गलत हूँ, लेकिन क्या करूँ.. मैं जो अपने आदत से लाचार हूँ....!
          भाई विनीत! केवल फेसबुक के मित्रों की ही दुनियाँ आभासी नहीं है...बल्कि... जिसे हम वास्तविक दुनियाँ समझते हैं वह तो और भी आभासिक है..! कभी-कभी तो मुझे मेरा यह एहसास ही वास्तविक दिखाई देता है...क्योंकि इस एहसास से निकले आँसू बेहद वास्तविक होते हैं...अब कल जब मैं बस में था यही कोई सुबह के साढ़े छह बज रहे होंगे मेरी एक मौसेरी बहन जो मुझसे बड़ी थी उनकी तीन दिन पहले ही मृत्यु हो गई थी.. हाँ, वहीं जा रहा था...अचानक मैंने अपना फेसबुक वाल चेक किया तो हम दोनों के एक कामन मित्र Vikas Chandra Tiwari जी के पोस्ट पर मेरी नजर ठहर गई... आपकी तस्वीर के साथ कुछ लिखा हुआ...मैं लिखे हुए को बार-बार पढ़ता रहा...मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था... यह क्या है... क्यों है....? वैसे तो मैं समझ गया कि जो होना था वह हो चुका है... मुझे ऐसा एहसास हुआ जैसे मेरे सामने एक बड़ा कैनवास उभर आया हो.. और आप उस पर उकेरे हुए कोई चित्र बन गए हों और मुझे देख लगातार मुस्कुराए भी जा रहे थे......
           खैर भाई विनीत..! जब कभी हम आप से मिलें तो बस इतना ही कह दीजिएगा कि.....भाई विनय, मैं आपकी सारी पोस्टों को पढ़ता रहा हूँ...हाँ भाई विनीत! यह दुनियाँ वास्तव में आभासी ही है..
            भाई विनीत (गहरे नीले शर्ट में) के साथ 1997 FATI में - स्मृति:शेष 

           

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