सुबह का समय था...मोबाइल फोन की रिंगटोन बज रही थी, देखा तो पत्नी का फोन था। बिना देरी किए झट से फोन उठाकर कान से लगा लिया। उधर से आवाज आई-
"इतनी देर से फोन कर रही हूँ, कहाँ थे?"
"अरे भाई, जैसे ही मैंने रिंगटोन की आवाज सुनी तुरन्त फोन उठाया।" मैं बोला।
"अरे नहीं...इसके पहले एक पूरी घंटी निकल गई..! फोन नहीं उठाए.." दूसरी तरफ से पत्नी की आवाज थी।
"बाहर पौधों को पानी दे रहा था।" जैसे सफाई में मैंने कहा हो।
"हूँ..अच्छा..! हाँ तो...मैं बताना चाह रही थीं...जो किचन की खिड़की के पास मैंने पौधे लगाए हैं न...अब वे कुछ बड़े चुके हैं..?" पत्नी ने फोन पर कहा।
"हाँ..रोज सींचती भी तो हो..!" मैंने कहा।
"आज न..वहीं पर मैंने एक बुलबुल के जोड़े को देखा..! वे उस पौंधे में अपना घोसला बना रहे थे..!" पत्नी जैसे अपनी किसी सफलता से उत्साहित होते हुए बोली।
"अच्छा! पिछली बार भी तो एक बुलबुल के जोड़े ने ऐसे ही घोसला बनाया था.." मैंने फोन पर ही कहा।
"लेकिन एक बात है...आदमी हो, पशु-पक्षी हो या जानवर हो सभी के मेल, फीमेल पर हावी होते हैं..." पत्नी का यह कथन थोड़ी मायूसी लिए हुई थी।
यह सुन मैं जैसे चौंक पड़ा कि आखिर बात क्या हुई..! फिर मैंने पूँछा - "कैसे..?"
"अरे, कैसे क्या..मैंने देखा जब वह मादा बुलबुल बेचारी किसी तरह बहुत मुश्किल से एक छोटे से पॉलिथिन के टुकड़े को उस पौंधे की छोटी-छोटी डालियों के बीच के झुरमुट में फैला कर उसमें तिनका रख घोसला बनाने में व्यस्त थी तो नर बुलबुल दूसरी डाली पर बैठकर इस काम में मादा बुलबुल की मदद करने के बजाय उसे केवल देख भर रहा था..! और वह बेचारी घोसला बनाने का सारा काम अकेले कर रही थी.. " यह कहते हुए पत्नी पर मायूसी अब भी तारी थी।
मैंने मोबाइल फोन पर यह सुनते हुए धीरे से कहा, "देखो यह सब प्रकृति का खेल है...!"
"हाँ.. यही तो मैं सोच रही हूँ क्या आदमी..क्या जानवर..! चारों तरफ एक ही कहानी है..!! हर जगह फीमेल पर मेल हावी है।" पत्नी की इस आवाज में थोड़ी और मायूसी आ गई थी।
इस मोबाईल-फोनिक वार्ता के बाद मैंने सोचा, शायद पत्नी यह सब बताते हुए इस बात से मायूस थी कि दुनिया भर के पुरूष-वादी समाज के लोग स्त्रियों पर अपने "हावीपने" को इसी प्रकृति से जस्टीफाई कर लेते होंगे।
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