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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

क्या करें? हम तो चाटुकारों के देश में रहते हैं..

            उस गोष्ठी के सभाकक्ष में पहुँचते ही मैं अपनी घड़ी देखने लगा था| मैं गोष्ठी के प्रारंभ होने के निर्धारित समय से करीब चालीस मिनट विलंब से पहुँचा था, उस समय गोष्ठी के मंच पर अतिथियों की कुर्सियाँ खाली थी| जैसा कि किसी भी गोष्ठी के मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि होते हैं वैसे ही यहाँ भी थे| इनके नाम को दर्शाता हवा में झूलता वह बैनर इन अतिथियों का बेसब्री से इंतज़ार करता हुआ मुझे जान पड़ा लेकिन अभी भी वहाँ के वातावरण में उन महानुभावों के आगमन की सुगबुगाहट मुझे परिलक्षित नहीं हुई तथा आयोजकगण गोष्ठी की तैयारियों में ही व्यस्त दिखे| आमंत्रितकर्ता ने मुझे मंच पर की एक खाली कुर्सी पर बैठाया|  
         कुछ देर बाद मंच की खाली कुर्सियों पर तौलिया डाला जाने लगा था मेरी भी कुर्सी पर तौलिया डाला गया| फिर कदाचित् गर्वित भाव से मैंने मंच के सामने हाल में खाली पड़ी कुर्सियों की ओर देखा जिस पर लोग आ आ कर बैठते जा रहे थे| इधर यहाँ मंच पर अकेले बैठे हुए अतिथियों के इंतज़ार में खाली अन्य कुर्सियों पर मेरा ध्यान चला गया| इन्हें देख मैं थोड़ा असहज हो उठा तथा मन ही मन स्वयं को कोसने लगा कि नाहक ही इतनी जल्दी आ गए| खैर, करीब आधे घंटे बीतने के बाद अतिथियों का आगमन हुआ| विशिष्ट और मुख्य मुख्य अतिथि बारी-बारी से मंच पर विराजमान हुए! दीप प्रज्ज्वलन और औपचारिक उद्घाटन के बाद आयोजनकर्ताओं को अपने समयाभाव का हवाला दे वे कुछ ही देर बाद चलते बने थे|
          इधर बारी-बारी से इन दोनों अतिथियों को जाते देख इनके ‘समयाभाव’ के सामने मैं नतमस्तक हो गया था| मुझमें भी ‘समयाभाव’ से सम्मानित होने का भाव जागृत हो उठा था और तत्क्षण बाद मैं भी यही हवाला दे उस गोष्ठी स्थल से चलता बनना चाहा था| लेकिन मेरा मन थोड़ा समझदार निकला उसने जैसे मुझे समझाया हो “क्यों बे! तुझे पता नहीं कि तेरे पास समय ही समय है? समयाभाव तो मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि नामधारी जीवों के लिए ही आरक्षित किया गया है..तू किस खेत का मूली है..जो इसका सहारा लेगा...चल बैठा रह..” और फिर मैं गोष्ठी में बैठा ही रहा| अब मेरा मन इस निष्कर्ष पर जा टिका कि किसी गोष्ठी या समारोह के लिए विशिष्ट और मुख्य अतिथि बनने जैसा सम्मान अर्जित करने की योग्यता के लिए ‘समयाभाव’ होना पहली शर्त है इसके बाद ही कुछ और! इस शर्त का पालन करते हुए ऐसे अतिथि किसी गोष्ठी या समारोह में सबसे बाद में पहुँचते हैं और सबसे पहले वहाँ से प्रस्थान भी कर जाते हैं| हो सकता है आप की किसी गोष्ठी में ये विशिष्ट जीव अंत तक बैठे रहे हों लेकिन यह अपवाद स्वरुप ही होगा|
       जैसा कि मैंने कहा कि किसी भी गोष्ठी का शुभारम्भ दीप प्रज्ज्वलित करके की जाती है और इसके लिए एक डिजाइनर दीप में चार-पाँच बाती रखे होते हैं जिसे बारी-बारी से मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि तथा अन्य अतिथि एक-एक कर प्रज्ज्वलित करते जाते हैं| यहाँ इस गोष्ठी के शुभारम्भ में भी इसी परम्परा का पालन किया गया| लेकिन मैंने देखा मुख्य अतिथि के द्वारा दीप के पाँच बातियों में से चार बातियों को प्रज्ज्वलित कर देने के बाद आयोजक ने विनम्रतापूर्वक उनके हाथों से उस जलते मोमबत्ती को लेकर विशिष्ट अतिथि की ओर बढ़ा दिया और उन्हें भी उस एक बची बाती को प्रज्ज्वलित कर और गोष्ठी के शुभारम्भ करने का गौरवबोध मिल गया था| फिर भी हम जैसे सामान्य से अतिथि मुख्य अतिथि के इस  अनाड़ीपने से ऐसे ही उस गौरवबोध से वंचित हो गए थे| हालांकि इसमें उन महोदय का दोष नहीं था वे शायद पहली बार मुख्य अतिथि बने थे नहीं तो एक बाती जलाने के बाद मोमबत्ती विशिष्ट अतिथि की ओर बढ़ा देते|
       इस गोष्ठी में मुझे एक तथ्य की अनुभूति और हुई जिसे मैंने धीरे से आत्मार्पित कर लिया वह यह कि जरुरी नहीं कि किसी गोष्ठी के मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि को उस गोष्ठी के लिए निर्धारित विषय का ज्ञान हो| लेकिन आप इसे अधिनियमित मत मानिएगा क्योंकि हो सकता है नेताओं या उनके लिए आयोजित गोष्ठी अपवाद हो लेकिन तब यह गोष्ठी, गोष्ठी न होकर जनसभा होगी जहाँ जनता उनके ज्ञान का लोहा मान जाती है|
      अब आते हैं एक दूसरी बात पर, अकसर गोष्ठियों में विशिष्ट अतिथि या मुख्य अतिथि के पूर्व अन्य सामान्य से अतिथियों या वक्ताओं का भाषण या कहें संबोधन भी होता है| कभी-कभी वक्तागण गोष्ठी को संबोधित करते समय मुख्य अतिथि के लिए ‘परम आदरणीय’ या ‘आदरणीय’ जैसा विशेषण प्रयोग करने लगते हैं तब ऐसे संबोधनों के कारण एक समस्या उत्पन्न होने की संभावना होती है| जैसे किसी पूर्व वक्ता ने मुख्य अतिथि के लिए ‘परम आदरणीय’ या ‘परम परम श्रद्धेय’ जैसा विशेषण प्रयुक्त किया तो बाद के वक्ता के लिए भी इन विशेषणों का प्रयोग करना एक मज़बूरी बन जाती है अन्यथा “परम” को “आदरणीय” से अलग करने पर उस सीमा तक मुख्य अतिथि अपना असम्मान समझ सकते हैं| यहाँ एक अन्य तथ्य की ओर भी इंगित करना है, अकसर गोष्ठी के वक्ता भाषण के शुरू में सभी अतिथियों का एक-एक कर नाम ले अपना भाषण प्रारम्भ करते हैं, अब यदि किसी का नाम लेने से रह जाए तो फिर जिनका नाम छूटा हो उन महानुभाव के नाराज हो जाने का खतरा भी बना रहता है|
      इन्हीं बातों को सोच-सोच कर कभी-कभी वक्ता के रूप में मैं अपना भाषण गड़बड़ा देता हूँ बोलना कुछ होता है तो बोल कुछ देता हूँ; वक्तृत्व कला गायब हो जाती है| ऐसे में अकसर मुझे अमेरिका के शिकागो में स्वामी विवेकानंद जी के भाषण का “भाइयों और बहनों” का वह संबोधन याद आ जाता है जब इसी संबोधन को सुन वहाँ का हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था| लेकिन यहाँ तो हम ‘आदरणीय’ या ‘परम आदरणीय’ जैसे संबोधनों में ही खोये रहते हैं, तथा कोई भी गोष्ठी जैसे अतिथियों की सम्मान-गाथा भर बन कर रह जाती है, यहाँ सामने बैठे श्रोता वक्ताओं के लिए साध्य नहीं मात्र साधन भर ही होते हैं| क्या करें हम तो चाटुकारों के देश में रहते हैं!
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