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रविवार, 20 मार्च 2016

आज के ये बुद्धिराजा...

          हाँ मुझे अपने बचपन के वे दिन आज भी याद हैं, उन दिनों हम अपने तीन-चार पारिवारिक हम-उम्र बच्चों के साथ कक्षा छह या सात में पढ़ रहे होंगे। तब हमारे घर पर परिवार के किसी वैवाहिक कार्यक्रम या अन्य अवसरों पर काफी रिश्तेदार जुटते और उनके साथ हमारी ही उम्र के कुछ बच्चे भी होते थे। उन्हीं में से एक बच्चे से अकसर हम चिढ़ने-चिढ़ाने का खेल खेलने लग जाते थे। वह सुबह चार बजे उठकर पढ़ने की अपनी आदत के साथ अंग्रेजी ग्यान का भी हम पर रौब झाड़ता रहता और हम साथी अन्य बच्चों को बुद्धू भी कह देता था, तब हमें लगता वह हमारी खिल्ली उड़ा कर हमें नीचा दिखा रहा है और हमारी बातों का बौद्धिक विश्लेषण भी करने लगता। उस समय हमें बहुत बुरा लगता फिर हम भी अन्य साथी बच्चों के साथ उसे "बुद्धिराजा" कह कर चिढ़ाते। ऐसा कई बार होता और एक तरह से उस बच्चे को "बुद्धिराजा" कह कर हम अपनी भड़ास भी निकाल लेते थे। तब यह सम्बोधन उसकी बुद्धि और हमारे बीच ढाल का काम करती। अंत में इस सम्बोधन से चिढ़ते हुए वह बच्चा चुप हो जाता।
           यहाँ आशय उस हम-उम्र बच्चे को गलत ठहराना नहीं है। यह घटना हमें इसलिए याद आई कि हम "बुद्धिजीवियों" द्वारा दूसरों के कार्यों के छिद्रान्वेषण में ग्यान बघारने की आदत से आहत हो उठते हैं। आज यह सोचकर हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि इस शब्द "बुद्धिजीवी" के समानार्थी "बुद्धिराजा" जैसे शब्द का ईजाद फुफेरे भाई के लिए हम बच्चों ने तब कैसे खोज लिया था? उस समय तो हम प्राइमरी कक्षा में ही पढ़ते थे और 'इन्नोसेंट' जैसे ही थे! मतलब साफ है सामाजिक जीवन में किसी व्यक्ति के कार्यों का मात्र बुद्धिवादी नजरिए से विश्लेषण सही नहीं होता बल्कि यह चिढ़ाने और उत्तेजित करने वाला होता है और उसके कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं होता। समाज या व्यक्ति के साथ हमारी अन्तर्क्रिया केवल बुद्धि आधारित ही नहीं होती बल्कि इसके पीछे परिस्थितियाँ, भावनाएँ और तमाम तरह के हमारे अनुभव भी उत्तरदायी होते हैं।
           वास्तव में हमारा बुद्धि आधारित व्यवहार हमें केवल औपचारिक ही बनाता है जबकि हम एक अनौपचारिक दुनियाँ में रह रहे हैं। यदि हम यह मानते हैं कि भावनाएँ चीजों के प्रति हमें पूर्वाग्रही बनाती हैं तो उसी प्रकार यह भी तय है कि बुद्धिवादी दृष्टिकोंण भी पूर्वाग्रही होता है क्योंकि हमारे सारे तर्क अपनी ही बात को सही ठहराने के लिए होते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से यह स्थिति स्वयं के विचारों के प्रति अंध-श्रद्धा है और यह भी भक्ति हुई।
         अन्त में यदि हम अपने किसी विरोधी की आलोचना में मात्र कोरे तर्क-बुद्धि का सहारा लेते हैं तो उस विरोधी को ही ताकतवर बनाते जाते हैं। "बुद्धिराजा" बन ऐसे ही कुछ बुद्धिजीवी आज अपने विचारों की अंध-श्रद्धा पर सवार हो पक्ष प्रतिपक्ष बनकर मात्र एक-दूसरे को ही नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता इसके क्या परिणाम होते हैं? आप अपने उद्देश्य में सफल नहीं होते और आपका प्रतिपक्ष शक्तिशाली होता जाता है क्योंकि एक तीसरी दृष्टि भी होती है जिसे "बुद्धिराजा" लोग नजरअंदाज करते हैं।

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