उस दिन मेरे एक साथी महोदय ने कहा- "सत्य को उभारना नहीं चाहिए" हालाँकि इसके आगे उन्होंने कहा था कि "इससे सत्य को उद्घाटित करने वाला स्वयं संकट में पड़ जाता है।" फिर उन्होंने अपनी इस बात में और जोड़ा था "आखिर किसी के आम को इमली कह देने से वह इमली थोड़ी न हो जाएगा.." उनके कहने का आशय यह भी था "सत्य तो सत्य ही रहता है चाहे आप इसे उभारें या न उभारें।"
फिर उन महोदय ने कुछ ऐसे उदाहरण भी बताए जहाँ सत्य को देखने और समझने वाला व्यक्ति भी इसे सहन नहीं कर पाया और उसने अपने जीवनलीला पर ही संकट खड़ा कर लिया। इसी से उन्होंने यह निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि "यदि हम सत्य न जाने तो जीवन सहज गति से चलता रहता है और इस गति पर कोई फर्क नहीं पड़ता।"
उनकी बातें मुझे बहुत अच्छी लगी सोचा बैठे-बैठाए व्यवहारिक जीवन के लिए मुफ्त में मार्गदर्शन प्राप्त हो गया नहीं तो कहीं इसके लिए किसी बड़े नामी टीवी बाबा का प्रवचन सुनना पड़ता और वह भी शायद इस सत्य का साक्षात्कार न करा पाते....खैर..
जब मैंने उन साथी महोदय की इन बातों को सुना था तो उसी समय आपको भी इस सत्य से साक्षात्कार कराने की सोच लिया था.. लेकिन तब कैसे अपने इस साक्षात्कारित सत्य से आप सबको परिचित कराऊँ इसका तरीका नहीं मिल पाया था....
लेकिन आज जब फेसबुक पर नामी कुछ बौद्धिकों, टीवी चैनल वालों के कंटेंट पर ध्यान गया और मुझे यह बताने का तरीका मिल गया...
हाँ, एक बात है उन महोदय की बातों से यह तो मैं भी मान गया था कि सत्य को उजागिर करने वाला या सत्य को जाननेवाला स्वयं परेशानी में पड़ सकता है लेकिन यह तो एक बात है! दूसरी महत्वपूर्ण बात का ज्ञान मुझे इसी सोशल मीडिया और टीवी चैनलों को देख कर प्राप्त हुआ...
वह यह कि चैनलों और मीडिया का अपना-अपना सत्य देख अब शायद ही कोई सत्य उद्घाटित होने की सोचे ? आखिर ऐसा क्यों? भाई आप जरा समझिए! सत्य तो सत्य ही होता है इसमें कोई दो राय नहीं... लेकिन जब लोग इसे ऊभारते हैं तो यह सत्य स्वयं अपने को एक अजीब स्थिति में पाता है, उभरते समय ये सत्य महोदय बहुत खुश रहते हैं..सोचते होंगे कि देखो मैं सत्य हूँ...और तुम सबका हूँ !! लेकिन ढोल नगाड़े के साथ सत्य महोदय का यह प्रकटीकरण का गर्व क्षणभंगुर ही होता है। सत्य का यह गुमान कि सत्य सत्य होता और मैं सबका हूँ, चकनाचूर हो उठता है...!
यह सत्य बेचारा अपने प्रकटीकरण के बाद ऐसे खींच-तान का शिकार होता है कि चीथड़ों में बंट जाता है.. पहले तो यह होता है कि इसे यानी सत्य को अपने हाथों में थामें कुछ लोग सत्य के वाहक बन खुशी में जोर-जोर से डंका बजाकर नाचते हैं गोया बाकी सब यहाँ असत्यवादी पसरे हों और सत्य भी इसे देखकर खूब खुश होता रहता है। लेकिन जब लोगों के हाथों-हाथ लिया गया और उछलता यह सत्य दूसरी ओर निगाह डालता है तो अचक जाता है! वहाँ दूसरी तरफ तो उसे मातम पसरा हुआ सा दिखाई देता है..! यही नहीं उस दूसरी ओर के लोग इस सत्य को विरोधी के हाथों में खुशी से उछलते देख मुँह बिचका इसमें मीन-मेख निकाल इसे सत्य मानने से ही इनकार कर रहे होते हैं..
हाँ सत्य अपनी इस स्थिति से, और कुछ के हाथों उछलते तथा दूसरों को अपनी ओर से मुँह मोड़ते देख अपना अपमान समझ व्याकुल हो उठता है! वह सोचता है, कहाँ वह सबका सत्य बनने निकला था और कहाँ अब वह मात्र कुछ ही हाथों का वह खिलौना बन गया है.. यही सोचते-सोचते सत्य बेचारा अपने को ठहरा हुआ पाता है।
और इसके बाद सत्य के साथ एक दुर्घटना और शुरू हो जाती है! कुछ की खुशी भरे हाथों उछलते सत्य की यहीं से दुर्दशा भी प्रारम्भ हो चुकी होती है। अब यह अपने को नुचता हुआ पाता है! सत्य की इस नोंच-नोचाई में उसको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है..! इस बेचारे सत्य का जिसके जो हाँथ लगा उसे ही नोच लोग फरार होने लगते हैं। अपनी इस दुर्दशा से हो सकता है सत्य निकलना चाहता हो लेकिन निकलना अब इसके वश में भी नहीं होता। क्योंकि तब-तक यह दूसरों के हाथों खिलौना बन चुका होता है और अब तक चिंदियों में बँट चुका यह सत्य बेचारा असत्य में रूपांतरित हो चुका होता है, जहाँ इसे रोना भी अब मुअस्सर नहीं...! यहाँ तक तो जय हिंद!!
हाँ भाई तटस्थ लोग, इस सत्य का खूब मजा लेते हैं.. जैसे हमारे देश की राजधानी वाले मुख्यमंत्री जी हैं इनके हाथों सत्य भी खूब उछला था। मीडिया ने भी सत्य के इस उछल-कूद में उनका खूब साथ दिया था..! लेकिन अब पता नहीं क्या हुआ? हमें लगता है अब उनका वह सत्य, सत्ता पर सवार है या सत्ता स्वयं उस सत्य पर ही सवारी गाँठ रही हो? यह आप लोग ही तय करिए....या इस सवार-सवारी पर निगाह डालिए तथा कौन कितना झलक रहा है इससे तय कर लीजिए।
अब आते हैं बेचारे रोहित बेमुला पर, उसने जब सत्य को जाना तो वह आत्महत्या कर चुका होता है....! यह सत्य तो वाकई खतरनाक निकला! क्योंकि यहाँ यह सत्य रोहित बेमुला की आत्मा के साथ ही भूत बन सब पर मँडराने लगा है और भाई लोगों की ओझाई-सोखाई चालू है! यहाँ भूत बना यह सत्य या तो प्रकट ही होगा या इस ओझाई-सोखाई से डर ससुरा भाग ही जाएगा..? क्योंकि भूतों का हश्र हम सब जानते हैं!
हाँ अब आते हैं वो क्या नाम है..? अरे हाँ कन्हैया..! इस समय उसे देख ऐसा लगा जैसे यह सत्य भी कल रात ही जेल से ही छूटा हो, और इसके कंधों पर सवार यह सत्य इसके भाषणों में गौरवान्वित हो खूब इठला रहा हो...सत्य तुमसे खूब रश्क हो रहा है! बस चूँ-चूँ का मुरब्बा मत बनना।
मैं भी यहाँ बैठे-बैठे यही सोच रहा हूँ उछलो भाई खूब उछलो..! ये मीडिया और टीवी वाले भी कन्हैया के हाथों में अपना हाथ लगा तुम्हें खूब उछाल रहे हैं! कुछ लोग तुम्हें कन्हैया के हाथों उछलते देख हो सकता है मायूस भी हों और तुमसे मुँह चुराना चाहते हों...क्योंकि उनका भी कोई सत्य हो जो कहीं इस खेल में दुबककर तिरोहित न हो जाए..?
लेकिन भाई मेरे सत्य! यह तो मैं जानता हूँ कि तुम इस समय बहुत परेशान और घबड़ाहट में होगे और वह भी अपने अस्तित्व को लेकर...! मैं तुम्हारी इस सोच और डर से भी वाकिफ हूँ कि कहीं तुम्हें मात्र कन्हैया का ही सत्य न ठहरा दिया जाए...! कुछ लोग इसमें लग भी चुके हैं, और तुम्हें! सत्यों के गुत्थम-गुत्थाई के इस खेल में अपने चिंदी-चिंदी हो जाने का खतरा भी महसूस हो रहा होगा...लेकिन तुम कर भी क्या सकते हो..? ये मीडिया और टीवी वाले तुमको बाँटकर तुम्हें चिंदी बनाने पर ही जो तुले हुए हैं, तुम असहाय से कुछ कर भी नहीं सकते..!
अंत में कन्हैया के हाथों उछलते या उछलाते जाते हे सत्य महोदय...! बस तुमसे मेरी यही एक विनती है "यदि तुम बचते हो तो इस बेचारे कन्हैया की गरीबी अवश्य दूर करना, जैसे उस बेचारे दिल्ली वाले को मुख्यमंत्री बनाकर किया है...! इतना तुम्हें कन्हैया का एहसान मानना ही होगा आखिर उसके हाथों उछल-उछल अपने होने का मजा जो ले रहे हो! बाकी हम तो आजादी के बाद से गाहे-बगाहे तुम्हारे इस उछल-कुदाई का खेल देखते ही आ रहे हैं..!" एक बार और जोर से बोलो जय हिन्द...!
वैसे आप बोले नहीं होगे इससे तो कुछ मिलना नहीं... तो क्यों न आप भी इस उछल-कूद में शामिल हो जाते.......
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