उस दिन रात गहरा रही थी और हमारी बस चली जा रही थी। मैं बस की खिड़की से बाहर पसरे अँधेरे को निहारे जा रहा था और रह-रह कर कोई प्रकाश श्रोत इस पसरे अँधेरे से जैसे लड़ते हुए आँखों के सामने गुजर जाता। इस प्रकाश श्रोत के गुजरने की आवृत्ति थोड़ी बढ़ने लगी थी लेकिन ऐसा नहीं कि बस की गति तेज हो गई थी बल्कि राजमार्ग के किनारे कोई बस्ती गुजरने वाली थी
बस की खिड़की से देखते हुए सहसा आँखों के सामने से एक मंजर गुजरा। उस मंजर में, एक छोटे से मैदान में चकाचौंध करती लाइटों के बीच सजे मंच पर एक बारबाला नाचती हुई दिखाई दी थी। इसके साथ ही मेरी निगाहें उस मंच को घेरे हुए सैकड़ों पुरूषों के समूह पर भी चली गई थी। उन पुरूषों के बीच से तमाम हाथ उस नाचती बारबाला की ओर उठे हुए देखा। वह पुरूष समुदाय उस नाचती बारबाला का जैसे उत्साहवर्धन करता दिखाई दे रहा था।
अब तक आँखों के सामने से वह मंजर गुजर चुका था। फिर मैं अपनी स्मृतियों में खो गया था। उस समय हम यही स्नातक के दौर से गुजर रहे थे। एक रिश्तेदार की शादी में गए थे। वहाँ भी ऐसे ही बारात में नाचने के लिए एक औरत को बुलाया गया था जिसका नाचना ही पेशा होता था। जनवासे में बारात की महफिल सजी हुई थी और बारातियों के बीच वह नर्तकी नाच रही थी। कुछ अधेड़ किस्म के बाराती अपनी जगह पर ही बैठे-बैठे खुशी से उछल रहे थे तथा एकाध तो खुशी से हवाई फायर भी करने लगे थे। उस समय हमने इसका विरोध किया था और उस जगह से दूर चले गए थे। उस नर्तकी का पुरूषों के बीच नाचना और पुरुषों का उछलते हुए उसे देखना तब हमें बहुत बुरा लगा था। वास्तव में जब कभी भी ऐसा दृश्य आँखों के सामने उपस्थित हुआ हमने ऐसे दृश्य से मुँह मोड़ना ही उचित समझा।
मैं अकसर ऐसे दृश्यों को देखकर सोचने लगता हूँ कि जो पुरूष नाचती बारबालाओं या नर्तकियों को ललचाई सी नजरों से देख झूमते हुए ताली पीटते हैं वे अपने घर की महिलाओं की कैसी इज्जत करते होंगे? खैर....
जरा उस महिला के मन झाँकते! जो अकेली पुरूषों के बीच में नाच रही हो और इन्हीं पुरूषों की ललचाई सी आँखें उसके शरीर को बेध रही हों, तो उस महिला के मन पर क्या गुजरती होगी? कुछ लोग इसे पेशा कह देते होंगे, लेकिन क्या कोई इसे सहज पेशा मान सकता है? यह पेशा हो भी तो यह तमाम दर्द और पीड़ा को समेटे हुए उस महिला की गरिमा की शर्तों पर ही होता होगा। ऐसे में मेरी स्मृतियों में आए उस बारात और ऐसे ही अन्य स्थलों पर लोग महिलाओं की गरिमा से खिलवाड़ करते हुए लगते हैं।
उसी समय बस में जब मैंने सोशल मीडिया को खँगाला तो पता चला कि आज महिला दिवस भी है, क्योंकि कुछ लोग इस महिला दिवस पर बधाई देते हुए नजर आ रहे थे! लेकिन, मैं सोच रहा था पता नहीं वे किसको और किसलिए बधाई दे रहे थे। जबकि यह स्त्री तो-
हाँ वह स्त्री है
नहीं चाहती वह कि-
उसका भी कोई दिवस हो,
उसने तो जननी बन तुमको ही
सारे दिवस सौंप दिए हैं।
नहीं चाहती वह कि-
उसका भी कोई दिवस हो,
उसने तो जननी बन तुमको ही
सारे दिवस सौंप दिए हैं।
हाँ वह स्त्री है,
सहचरी बन साथ निभाया
आँगन की फुदकती उस गौरैया सी
जो तिनका-तिनका खटती है।
सहचरी बन साथ निभाया
आँगन की फुदकती उस गौरैया सी
जो तिनका-तिनका खटती है।
हाँ वह एक स्त्री है,
अभिलाषा है उसकी
उन बेधती निगाहों से
किसी मुक्ति-दिवस की।
अभिलाषा है उसकी
उन बेधती निगाहों से
किसी मुक्ति-दिवस की।
हाँ, दे सको तो तुम उसे,
अपने जमावड़ों वाले गलियारों से
चटखारे वाली कहानियों का
पात्र बनते जाने से, ऐसा ही कोई
उसे एक मुक्ति दिवस दे दो।
अपने जमावड़ों वाले गलियारों से
चटखारे वाली कहानियों का
पात्र बनते जाने से, ऐसा ही कोई
उसे एक मुक्ति दिवस दे दो।
हाँ, वह स्त्री है
अगर दे सकते हो तो उसे
तमाम कसीदों से मुक्त केवल
एक डर विहीन दिवस ही दे दो।
अगर दे सकते हो तो उसे
तमाम कसीदों से मुक्त केवल
एक डर विहीन दिवस ही दे दो।
-विनय
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