वैसे देखा जाए तो दुनियाँ
के सारे धर्मों की भाषा एक है! भाषा माने उद्देश्य..| मतलब दुनिया के सभी धर्म एक
ही उद्देश्य की बात करते हैं; घूम-फिर-कर लोक-परलोक तक की चर्या के लिए समान
अचार-व्यवहार की ही चर्चा करते हैं| अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सभी धर्मों
का उद्देश्य एक सामान है तो फिर विभिन्न धर्मों के बीच विवाद की जड़ कहाँ से आई?
असल में तीन दिनों का अवकाश यानी एक तरह से
खाली समय मुझे मिला है...आज मेरे साथ रहने वाले ‘रामकिशोर’ और ‘देवपाल’ ने तय किया
कि यहीं महोबा में ही कलेक्ट्रट के बगल में ‘गोरखगिरी’ पहाड़ पर चलना है, वहाँ पहाड़
पर कोई छोटी-मोटी गुफा और शंकर भगवान् का एक छोटा सा मंदिर भी है...यहाँ के लोग
मानते हैं कि ‘गुरु गोरखनाथ’ ने इसी पर्वत की गुफा में कई वर्षों (बारह वर्ष) तक
तपस्या भी किया था, इसी कारण इस पर्वत का नाम ‘गोरखगिरी’ पड़ा है...हाँ तो उन दोनों
ने ‘राजू’ अर्थात मेरे ड्राइवर साहब को भी बुला लिया था...साथ में यह भी तय हुआ कि
वहीँ पहाड़ पर चलकर कुछ खाया-पिया जाएगा..मतलब खाने-पीने का सामान भी साथ लेकर चलना
है...
हम सभी घर से निकल पड़े थे ‘गोरखगिरी पर्वत’ मेरे
आवास से बमुश्किल पाँच-छः किलोमीटर की दूरी पर या कहें महोबा नगर के दूसरे छोर पर
स्थित है...रामकिशोर ने रास्ते में पड़ने वाले तिवारी लोगों के एक मुहल्ले की गली में
ड्राइवर से गाड़ी मोड़ने के लिए कहा..हम गली में घूम कर एक घर के सामने रुके..शायद
रामकिशोर जिन ‘तिवारी जी’ से मुझे मिलवाना चाहता था यह घर उन्हीं का था...तिवारी
जी घर से निकले और हमारा परस्पर अभिवादन हुआ, फिर वे हमें अपने बैठक-कक्ष में ले
गए..इसके पहले देवपाल और रामकिशोर दोनों ने इस परिवार का गुणगान मुझसे किया हुआ
था, जैसे- महोबा नगर का आधा हिस्सा ही इनकी जमीन पर बसा हुआ है...पढ़ा-लिखा परिवार
है तथा इनके परिवार में विधायक भी हुए हैं...आदि-आदि, तिवारी जी ने हमें अपने
खानदान के लोगों के घर भी दिखाते हुए कहा कि सब एक ही परिवार से निकले हैं, और आपस
में कोई विवाद भी नहीं है..और अपना पुश्तैनी घर भी दिखाया जो बहुत मोटी दीवारों
वाला है, इसमें अलग-अलग दिशाओं में चार दरवाजे भी हैं जो किसी पुरानी हवेली के दरवाजों
के अवशेष जैसे दिखते हैं...एक दाऊ तिवारी हैं, जो इसी परिवार के हैं, वे महोबा के
सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, सामजिक या राष्ट्रीय कार्यक्रमों जैसे, पल्स पोलियो
अभियान, स्वतंत्रता दिवस आदि के लिए जिलाधिकारी महोबा द्वारा आयोजित बैठकों में वे
अवश्य सम्मिलित होते हैं, और बढ़-चढ़कर अपना योगदान भी देते हैं....तिवारी जी ने
श्री दाऊ तिवारी का भी घर दिखाया इसके बाद हमने तिवारी जी (श्री ओमप्रकाश तिवारी)
के घर पर उनके ही घर का बना शुद्ध खोये का पेड़ा खाया और नमकीन के साथ बढ़िया चाय भी
पिया, फिर तिवारी जी भी हमारे साथ ‘गोरखगिरी’ के लिए हो लिए...
कुछ ही
मिनटों में हम ‘गोरखगिरी’ पहाड़ के किनारे पहुँच गए थे...यह पहाड़ हिमालय जैसा ऊँचा
तो है नहीं कि पहाड़ की तलहटी में पहुँचने की बात लिखें, फिर भी इतना ऊँचा तो है ही
कि सीधी चढ़ाई चढ़ें तो सांस फूलने लगे (ऊँचाई के कारण नहीं चढ़ने की थकावट के कारण)...हमारे
ड्राइवर ने गाड़ी थोड़ी ऊँचाई पर ले जाकर ‘शिव-तांडव’ के पास रोकी.. ‘शिव-तांडव’ इस
पहाड़ के एक बड़े से पत्थर या कहें खड़ी चट्टान पर ‘तांडव-नृत्य’ की मुद्रा में लगभग
पंद्रह फीट ऊँची तराशी गई मूर्ति वाले स्थान को कहते हैं...’ हमने ‘शिव-तांडव’ के
दर्शन किए, साथ में तिवारी जी ने बताया कि एक बड़े से पत्थर पर एक ऊभरी हुई आकृति
को ही तराश कर इस मूर्ति को आकार दिया गया है...मैंने ध्यान से इस मूर्ति को देखा;
मेरे समझ में नहीं आया कि गढ़ने वाले ने इसे भगवान् शंकर का रूप दिया है या
मुण्डमाला धारण किये हुए काली माता का..? लेकिन सब ‘शिव-तांडव की मूर्ति कहते हैं,
इसलिए हमने भी भगवान् शंकर की मूर्ति मान पुष्प अर्पित करते हुए प्रणाम किया| (चलते
समय रामकिशोर ने कुछ गुलाब के फूल रख लिए थे)....
‘शिव-तांडव’ के पीछे से ढलानदार
रास्ते से इस पहाड़ पर चढ़ना था जहाँ वह गुफा और मंदिर था..हम लोग तेज धूप में महोबा
वाली पड रही गर्मी में धीरे-धीरे पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित उस गुफा की ओर चढ़ाई वाले
रास्ते पर चल रहे थे..सबसे आगे देवपाल हाथ में झोला और पानी की बाल्टी (थर्मस
वाली) लिए हुए, उसके पीछे तिवारी जी, फिर मैं और मेरे पीछे रामकिशोर तथा उसके पीछे
ड्राइवर राजू...जिस पहाड़ पर हम चढ़ रहे थे उसके बगल में एक और पहाड़ था थोड़ी ऊंचाई
पर जाने पर दोनों पहाड़ों के बीच नदी जैसी स्थिति दिखाई दी तिवारी जी ने इसे दिखाते
हुए मुझे बताया कि पहले इतनी वर्षा होती थी कि इन पहाड़ों से झरने फूटते रहते थे और
इस नाले से सदैव पानी बहता रहता था और फूटते झरनों की आवाजें सुनकर ऐसा लगता था
जैसे हम किसी संगीतमय ध्वनियों के बीच में खड़े हों, बचपन में हम यहाँ आकर नहाते
थे...इस चिलचिलाती धूप और गर्मी तथा आसपास के पत्ती विहीन छोटे-छोटे पेड़ तथा
झाड़ियों को देखते हुए उनकी बातें मुझे स्वप्न सरीखी प्रतीत हुयी, खैर..
मेरे आगे-आगे चल रहे तिवारी जी
ने बताया कि ‘पहले यहाँ तेंदुए और अन्य जंगली जानवर भी विचरण करते थे’ और एक नई
जानकारी से परिचित कराते हुए कहा- “अमर शहीद स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद भी
इस पहाड़ी की गुफाओं में आकर छिपे थे तथा पिता जी रात के अँधेरे में एक टार्च और
लाठी के सहारे उनको यहाँ खाना देने आते थे...जहाँ कुछ और स्वतंत्रता सेनानी भी
होते थे...मेरे पिता भी स्वतंत्रता सेनानी थे|” इस नई जानकारी के साथ मैं इस स्थान
से अभिभूत था...
इस चढ़ाई वाले रास्ते पर ग्रेनाईट के बड़े-बड़े
चट्टानों के बीच छोटे-छोटे मैदान भी थे जिसपर पेड़ और झाड़ियाँ थी, “निश्चित ही
बरसात में यह स्थान काफी हरा-भरा हो जाता होगा” मैंने सोचा| इस पहाड़ पर चढ़ते हुए
तिवारी जी ने अपनी उम्र के बारे में बताया कि वह ‘उन्सठ वर्ष (59) के हैं’...कहने
का आशय यही था कि इस उम्र में भी वह एक युवा जैसी क्षमता के साथ इस पहाड़ पर चढ़ रहे
थे...इसके साथ ही उनके चेहरे पर मुझे थकान का भी कोई चिह्न नहीं दिखाई दिया...मैंने
उन्हें बताया कि मैं आप से दस-इग्यारह साल छोटा हूँ (शायद मेरे कहने का आशय यह था
कि मैं तो थकने लगा हूँ)
इस प्रकार ‘शिव-तांडव’ से लगभग चार सौ मीटर की
दूरी तय करते हुए पहाड़ की उंचाई पर मंदिर वाले स्थान पर पहुँच गए थे..मंदिर क्या
था बस एक बड़े से पत्थर की चट्टान पर टिके एक अन्य विशालकाय पत्थर के बाहर निकले हुए
कुछ भाग के नीचे वाला स्थान, हाँ, उसी स्थान को ही मंदिर कहा जाता है...यहाँ किसी
मूर्ति का दर्शन नहीं हुआ बल्कि आधार वाले बड़े पत्थर की दीवाल को ही गाढ़े गेरुए
रंग से रंगा गया था और उसपर दो चमकती आँखें लगाईं गई थी..मैंने ध्यान से देखा नीचे
पत्त्थर की चौकी पर ‘जय भोले बाबा लिखा’ था...निश्चित रूप से वहाँ कोई मूर्ति नहीं
थी फिर भी न जाने क्यों हिन्दुओं को ‘मूर्ति-पूजक’ कहकर चिढाया जाता है! ये बेचारे
पत्थर में भी जीवन देखते हैं, इसीलिए उसे भी पूजते हैं..धर्म का प्रकृति से ऐसा
तादात्म्य...!! (उसके सामने बैठे-बैठे मैं यही सोच रहा था)..मन श्रद्धा से भर
गया...फिर रामकिशोर के दिए गुलाब के फूलों को मैंने वहाँ चढ़ाया...इसके बाद उन बड़ी सी
चट्टानों की परिक्रमा की..परिक्रमा करते हुए रामकिशोर ने हमें बताया कि ‘साहब
उपाध्याय जी जिला विकास अधिकारी थे उन्होंने ही अपने व्यक्तिगत प्रयासों से इस
परिक्रमा मार्ग को बनवाया था..मैंने मन ही मन श्री आर. पी. उपाध्याय जी, तत्कालीन
जिलाविकास अधिकारी महोबा, जो बेहद धार्मिक प्रकृति के हैं, को धन्यवाद दिया,
अन्यथा चट्टानों के बीच से इस स्थान की परिक्रमा करना बहुत दुष्कर होता...
इसके बाद आपस में टिके बड़े-बड़े दो पत्थरों के
नीचे बैठकर सुस्ताते हुए सब ने रामकिशोर के लाये हुए पकौड़ी खाए फिर देवपाल ने हमें
पानी पिलाया...तिवारी जी ने बताया कि ‘यादव-संघ’ इस मंदिर और इस स्थान की देखभाल
करता है...तभी हमसे पहले से वहाँ उपस्थित दो व्यक्तियों में से एक ने बताया कि “इधर
तो कई वर्षों से तो बारिश ही नहीं हो रही है अन्यथा यह स्थान काफी रमणीक और
हरा-भरा रहता है..पहले यहाँ ऊपर भी कभी पानी नहीं सूखता था और पत्थरों से पानी
झरता रहता था लेकिन अब नीचे से पानी लाना पड़ता है...यहाँ के पेड़ पौधे और झाड़ियों
से लोग लकड़ी भी तोड़कर ले जाते है..सूखी लकड़ी तो ठीक है लेकिन हरी टहनियों को भी
तोड़ ले जाते हैं, मना करो तो अफसरों से शिकायत करते हैं, और अफसर बोलते हैं कि
नाहक ही मना करते हो...हाँ वे भी गरीब ही हैं गैस पर कहाँ खाना बना पायेंगे? यही
सोचकर लकडियाँ तोड़ने से अब हम भी मना नहीं करते...” मैंने उस व्यक्ति से उसका नाम
भी पूँछा, तो उसने अपना सरनेम ‘यादव’ बताया जो प्रतिदिन इस स्थान की देखभाल करने
के लिए दो बार यहाँ आता है..
आगे उस व्यक्ति ने कहा, “पहले
यहाँ तेंदुए भी रहते थे...लेकिन महोबा जिला हो जाने के और यहीं पास में नीचे पुलिस
लाइन बन जाने के बाद फिर कभी तेंदुएं दिखाई नहीं दिए..”...इसके आगे देवपाल ने मेरा
ज्ञानवर्धन किया- “सर, पुलिस लाइन से आती बंदूकों की आवाजों के कारण तेंदुओं ने इस
स्थान को छोड़ दिया..”, “हाँ पुलिस लाइन में चाँदमारी तो होता ही है” मैंने सोचा|
इसी के साथ एक विषय पर और चर्चा हुई वह यह कि महोबा जिला बन जाने से भू-माफियाओं
को बहुत लाभ हो रहा है..मैंने पूँछा, “वह कैसे?” तो मेरा ज्ञानवर्धन हुआ कि यहाँ
माफिया किस्म के लोग औने-पौने दामों में जमीन का कोई टुकड़ा खरीद लेते है, और फिर
आसपास की भूमि को, यदि वह सरकारी हुई तो उस पर कब्ज़ा जमा लेते हैं, अन्यथा गरीबों
की यदि जमीन होगी तो उन्हें अपनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर कर देते हैं, फिर अपनी
जमीन छोड़ शेष अन्य कब्जाए भाग पर प्लाटिंग करते हुए उसे ऊंचे दामों पर बेचते रहते
हैं...इसमें उनका करोड़ों का वारा-न्यारा होता रहता है..खैर, “इस चर्चा पर ज्यादा
‘बोल्डनेस’ दिखाने की जरुरत नहीं” मैंने सोचा|
हाँ, इसप्रकार कुछ समय बिताने के बाद हम वापस
लौट पड़े..लौटते हुए मैंने देखा एक लड़का पेड़ों से लकडियाँ तो तोड़ रहा था..एकबार मन
हुआ कि उससे कह दें देखो हरी टहनियों को मत तोडना लेकिन फिर नहीं कहा...कुछ आगे
जाने पर एक महिला भी लकडियाँ तोड़ती दिखी..वहीँ से मेरी निगाह नीचे महोबा नगर पर
पड़ीं ऊपर से जैसे पूरे महोबा नगर की झलक मिल रही थी...देखते हुए मैंने कहा, “महोबा
नगर पहाड़ों के बीच में जैसे किसी घाटी में बसा हुआ दिखाई पड़ रहा है” इसे सुनकर
रामकिशोर ने कहा, “यहाँ से महोबा हरिद्वार जैसा दिखाई देता है” हम बात करते-करते
नीचे उतर आए थे|
जब मैं अपने आवास पहुँचा तो पत्नी से उस स्थान
की चर्चा की (फोन पर) तो वे नाराज होते हुए बोलीं “अच्छा..! जब हम थे तो काम का
बहाना बना हमें वहाँ नहीं ले गए..और अकेले में घूम रहे हो..” वैसे मैं यह सफाई
देता रहा कि “उस स्थान के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी..और ‘शिव-तांडव’ तो
मैं दिखा ही चूका हूँ..” लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी और बोल उठी, “तभी सब
कहते हैं कि आप अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कुछ भी कहे..मैं ही क्यों न
कहूँ..” फिर फोन से हमारी वार्ता टूट चुकी थी...
“अरे! मैं वैचारिक रूप से इतना कट्टर तो नहीं कि
श्रीमती जी ऐसा कहें,,?” मैं फोन पर पत्नी से टूटी वार्ता के बाद मन ही मन यही सोच
रहा था कि मेरा ध्यान “जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक सामान है तो फिर विभिन्न
धर्मों के बीच विवाद की जड़ कहाँ से आई?” चला गया..हाँ इस पोस्ट का उद्देश्य इसी पर
लिखना था लेकिन इस पोस्ट को व्यर्थ के दूसरे विषय ‘पहाड़ भ्रमण’ की चर्चा में लम्बा-चौड़ा
कर दिया, पता नहीं आप पढेंगे भी या नहीं...? खैर..
हाँ, “धर्मों के बीच विवाद की जड़” के बारे में
सोचते हुए मेरा ध्यान विश्व के सभी धर्मों यथा- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई जैन,
बौद्ध आदि पर गया साथ ही इनसे निकले अन्य उपधर्मों पर भी मैंने विचार करते हुए
“धर्मों के बीच विवाद की जड़” तलाशने लगा..अचानक मुझे इसका उत्तर मिल गया..फिर इस
विवाद की जड़ तलाश लेने की ख़ुशी में मैंने अपनी पीठ थपथपाई !
इन धर्मों के बीच विवाद की जड़ भी कोई ख़ास नहीं
है...बस लोग अपने-अपने धर्म को तरह-तरह के “रैपर” में पेश करते हैं और यह धर्मों
का “रैपर” ही इनमें आपसी विवाद का कारण है...हाँ, इस “धर्मों के रैपर” की इस खोज
के साथ ही मेरा ध्यान हाल ही में महाराष्ट्र मे एक शनिदेव मंदिर में महिलाओं के
प्रवेश को लेकर छिड़े विवाद पर चला गया...न्यायालय के हस्तक्षेप से पाँच सौ वर्षों
की परम्परा को एक झटके में बदल दिया गया और महिलाओं को भी शनिदेव के दर्शन की
अनुमति दे दी गई..!! है न आश्चर्य की बात..!!! मतलब हिन्दू धर्म का ‘रैपर’ हमें
अन्य धर्मों की अपेक्षा सबसे अधिक “इकोफ्रेंडली” दिखाई दिया..मतलब हिन्दू धर्म का
“रैपर” पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करता बल्कि यह पर्यावरण के अनुकूल मने
“इकोफ्रेंडली” होता है..हाँ, हिन्दू धर्म का “रैपर” कागज के ‘ठोंगे” जैसा ही होता
है पर्यावरण में घुल-मिल जानेवाला...जैसे ‘गोरखगिरी’ पर्वत की वह गुफा, और पत्थर
में भी चेतना तलाशती आकार विहीन वह मूर्ति..! मतलब हिन्दू धार्मिक भावनाएँ अदृश्य
सी पर्यावरण में घुल जीवन ही तलाशती हैं, जीवन को क्षति नहीं पहुंचाती...मैं इस
“रैपर” पर बलि-बलि जाऊँ..!!!
हाँ, दुनियाँ के कुछ धर्मो के रैपर एकदम से
“इकोफ्रेंडली” नहीं होते..ऐसे धर्मों के ‘रैपर’ निरंतर पर्यावरण को क्षति पहुँचाने
का काम करते है, जैसे “पोलिथीन का रैपर” होता है सैकड़ों सालों तक पर्यावरण में
पड़े-पड़े ये “रैपर” पर्यावरण को ही क्षति पहुँचाते रहते हैं...यह “प्लास्टिक जैसा
रैपर” जहाँ पड़ा होता है वहाँ जीवन पनपने की संम्भावना को क्षीण करता रहता
है...लेकिन पता नहीं क्यों ऐसे धर्मों के लोग अपने धर्म के “पर्यावरणीय-हानिकारक
रैपर” की खूबसूरती में ही उलझे रहते हैं...? तो भाई ये “रैपर” ही विवाद की जड़ होते
हैं...प्लास्टिक के रैपरों पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है...
आइए..! कानून न सही, हम स्वयं
धर्मों के “प्लास्टिक के रैपरों” पर प्रतिबन्ध लगाएँ...धर्मों के “इकोफ्रेंडली
रैपर” ही इनके बीच के सारे विवादों को ख़तम करेंगे|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें