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शनिवार, 21 नवंबर 2015

विचारकों से नहीं विचारधारा से लड़िए...

         बात उन दिनों की है जब हम इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई कर रहे थे...एक पंडित जी के मकान में किराये के एक कमरे में रहा करते थे...पंडित जी के तीन पुत्र थे...उनके बड़े पुत्र थोड़ा आलसी किस्म के थे जैसे-तैसे करके बी.ए. पास हुए थे...पंडित जी का दूसरा पुत्र थोड़ा कम दिमाग का माना जाता था...उसे पढ़ाई-लिखाई से भी कोई मतलब नहीं था और उससे केवल घरेलू कार्य ही कराया जाता...और जब घरवालों को उससे कोई काम कराना होता तो उसे खूब भईया बाबू का संबोधन मिलता लेकिन काम निकल जाने पर छोटी-छोटी बातों पर उसकी दुर्दशा तय रहती..फिर तो उसे ‘पग्गल’ की उपाधि मिल जाती थी| पंडित जी के तीसरे पुत्र को भी पढने-लिखने में कोई विशेष रूचि नहीं थी वह भी दूसरे पुत्र से छोटा होने के बाद भी उस पर कभी-कभी रोब झाड़ दिया करता...पंडित जी गाहे-बगाहे अपने परिवार की इस दशा पर फट से पड़ते और इस सब का गुस्सा अपने उस बेचारे दूसरे पुत्र पर ही निकाल देते|
        
       पंडित जी परिवार के साथ अपने इस दो मंजिले मकान के निचले तल पर रहते थे और ऊपरी मंजिल को किसी नौकरी-पेशा वाले परिवार को ही किराए पर देते थे...इसके अलावा ऊपर नीचे मिलाकर तीन अन्य अलग-अलग कमरों को पढ़ाई करने वाले हम जैसे छात्रों को किराए पर दे दिया करते थे... ऐसे ही निचले तल के एक कमरे का किरायेदार मैं भी था...कुल मिलाकर पंडित जी का यह मकान उनके निवास के साथ-साथ उनके आय का भी एकमात्र साधन था क्योंकि किसी कारणवश विभाग बंद हो जाने से उनकी नौकरी जा चुकी थी|
        
       पंडित जी के इस मकान के निचले तल के बाहरी हिस्से में एक शौचालय बना था..इसी शौचालय का प्रयोग हम किरायेदार छात्र और पंडित जी का परिवार करता था| अकसर जब दस-बारह दिनों के बाद उस शौचालय की सीट बहुत गन्दी हो जाती तो उसके सफाई का दायित्व पंडित जी का वही दूसरे नंबर का पुत्र ‘पग्गल’ निभाता जैसे पंडित जी ने शौचालय सफाई कार्य का दायित्व इसे ही सौंप रखा हो|
         
       एक बार दस-बारह दिन से अधिक व्यतीत हो जाने के बाद भी इस शौचालय-सीट की सफाई नहीं हुई तब यह बेहद गंदी हो चुकी थी| उसी समय एक दिन मैंने कमरे से बाहर आती पंडित जी की आवाज सुनी...वह अपने उस दूसरे पुत्र से शौचालय की सफाई कर देने की चिरौरी कर रहे थे..फिर उसे पग्गल..पग्गल की चिरपरिचित उपाधि से नवाजती उनकी आवाज मुझे सुनाई दी...शायद उस दिन वह इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ होगा और संभव था कि उस दिन उसके मन के किसी कोंने में स्वाभिमान जाग उठा हो..! इसके बाद मैंने उसकी पिटाई होने की आवाजें भी सुनी थी|
          
        दूसरे दिन भी शौचालय-सीट को वैसे ही गंदा देख हम किरायेदार छात्र आपस में शौचालय की इस गन्दगी की चर्चा करते हुए आपस में यह कहते हुए हँसे जा रहे थे कि “पग्गल बेचारे का भी स्वाभिमान जाग उठा है...वह हड़ताल पर है..अब तो आगे समस्या होगी..|” फिर अवसर देखकर कि किसी को मेरे इस काम का पता न चले मैंने स्वयं उस शौचालय-शीट को साफ़ किया तथा साथियों के पूँछने पर हँसते हुए इसे “पग्गल की हड़ताल वापसी” बताया था| खैर...
         
        यहाँ इस घटना की चर्चा के पीछे स्वयं के बखान या आत्मश्लाघा का भाव नहीं छिपा है...बल्कि ‘ब्राह्मणवाद’ का नाम लेकर शोषक और शोषितों का वर्ग निर्धारित करते हुए तदनुसार इन वर्गों में जातियों को फिट कर ‘ब्राह्मणवाद’ को उत्तरदायी ठहरा देना फिर इसे गालियों से नवाजना, हाँ आजकल यही शगल दिखाई दे रहा है...इसी को देखकर छात्र जीवन की वह पुरानी घटना याद हो आई...ब्राह्मण उपनाम होने के कारण यहाँ यह भी स्पष्ट करना पड़ रहा है कि ‘ब्राह्मणवाद’ पर गाली से उपजी किसी पीड़ा के कारण यह सब नहीं लिखा जा रहा ...
           
        हम मानते हैं की ‘ब्राह्मणवाद’ का अस्तित्व था और अब भी है...भारतीय समाज को इससे बहुत बड़ी क्षति भी पहुंची है...लेकिन इस ‘ब्राह्मणवाद’ को किसी जाति से सम्बद्ध कर इस बुराई से लड़ना लड़ाई के उद्देश्यों से दूर जाने जैसा ही होगा| हम समझ सकते हैं कि “ब्राह्मणवाद” एक विचारधारा है..और...विचारधारा किसी जाति की बंधक नहीं होती...हम जाति में उलझकर किसी विचारधारा को नहीं मार सकते...एक ही परिवार में भी यह ‘ब्राह्मणवाद’ जीवित रहता है...पंडित जी के परिवार में उनका दूसरा पुत्र अपने ही परिवार में ‘ब्राह्मणवाद’ का शिकार था...वह अपने परिवार में ही वर्णाश्रम जैसी बुराइयों का शिकार था| यहाँ तक कि मुझे भी इस बात को अपने मित्रों के समक्ष स्वीकार करने का साहस नहीं हुआ कि मैंने स्वयं शौचालय की गंदी शीट को साफ़ किया बल्कि इसके लिए पंडित जी के उसी दूसरे पुत्र ‘पग्गल’ की ओर इशारा कर दिया था...इस स्थिति के लिए क्या यहाँ कोई जाति उत्तरदायी थी..? यह तो एक ही परिवार और एक ही जाति के बीच का मामला था..!
        
        वास्तव में आजकल हमारे देश में एक नए तरह का चलन दिखाई दे रहा है...सामाजिक सुधार को भी हम राजनीतिक तरीके से हाँसिल करना चाहते हैं| यहाँ किसी की यह बात सही प्रतीत होती है कि स्वतंत्रता के पश्चात अब वैसे सामजिक सुधार वाले आन्दोलन दिखाई नहीं पड़ते जैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले थे| जबकि आज राजनीति का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना और सत्ता का उद्देश्य सत्ता को बनाए रखना हो गया है, ऐसे में इस राजनीतिक प्रक्रिया से  ‘ब्राह्मणवाद’ सरीखी विचारधारा नहीं मर रही है तथा इस ‘ब्राह्मणवाद’ को गाली देने की राजनीति का उद्देश्य इस ‘विचारधारा’ के प्रति भय पैदा करना न होकर केवल ‘विचारकों’ के प्रति भय पैदा करना हो गया है| कुछ इसी तरह के राजनीतिक उद्देश्यों के कारण आज सम्प्रदायवाद से उपजे आतंकवाद के विरुद्ध हमारी लड़ाई भी ऐसी ही हो चली है, हम किसी विचारधारा पर प्रहार न कर मात्र विचारकों पर ही प्रहार करने तक सीमित हो चुके हैं| ऐसी स्थिति में हमारी यह लड़ाई ईमानदार नहीं है..
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