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शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

डर को ड्राइव करें


       नींद तो आज लगभग साढ़े चार बजे ही टूट चुकी थी, लेकिन मैं मानसिक प्रमाद में उलझा कतई बिस्तर नहीं छोड़ा...धीरे-धीरे छह बज गए थे...आखिर में बिस्तर छोड़ना ही था..! वैसे आजकल मैं अपने सुबह टहलने वाले कार्यक्रम को महत्व न देकर, आलस को महत्व देने लगा हूँ...तथा...जो जैसा चल रहा है उसे वैसे ही चलने देने में विश्वास करने की मेरी प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है...हो सकता है यह उम्र या समय के दौर का तकाजा हो..खैर। 

           ...बिस्तर छोड़ कर उठने पर शरीर में अकड़न की अनुभूति हुई..थोड़ा बहुत शरीर को वॉर्मअप करना ही था...तो कमरों में ही घूम-घूम कर टहलने लगा..! हाँ इस कमरे से उस कमरे और फिर इस कमरे तक कुछ चक्कर टाइप से..! इस चकरघिन्नी में कमरे और गलियारे में देखा..! तीन-चार मेंढक के बच्चे फुदक रहे थे..और..ये मेरे पैरों के धमक की आहट पाते ही आसन्न खतरे को भाँप फुदक कर दीवाल की ओर किनारे हो लेते..! करीब पंद्रह मिनट की चहलकदमी में, यह देखते हुए मैं उनसे बच-बचाकर पैर धरता रहा..हाँ, यहाँ मेरे आवास में यही स्थिति है..बरसात के दिनों से यही हो रहा है..एक बार तो भूल से दरवाजा खुला छोड़ दिया था, तो "असढ़िया साँप" या कहें "घोड़ा पछाड़" किचेन में घुसकर आराम फरमा रहा था..! खैर उसे निकल जाने दिया था...तब से दरवाजों को खुला नहीं छोड़ता..
          "लेकिन..बंद दरवाजे के नीचे से ये मेढक के बच्चे अन्दर चले आते होंगे..और..सुरक्षित रहते हुए इन्हें यहाँ कमरे में रोशनी के कारण कीट-पतंगे आसानी से मिल जाते होंगे" नन्हें मेंढ़कों को फुदकते देख मैंने यही सोचा..! ध्यान देने पर मैंने पाया कि..पैरों की धमक से आसन्न संकट भाँपकर इनका फुदककर किनारे हो जाना अपने तईं किसी डर के प्रति इनकी बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतिक्रिया है..! इधर मैंने भी पैरों से इनके कुचल जाने के अपने "डर" से मुक्त होने की सोची..!! और डर-डर कर फुदकते उन नन्हें मेढकों को बारी-बारी से अपनी मुट्ठी में कैद कर इन्हें ले जाकर झुरमुटों में छोड़ता रहा..
         ...इस दौरान मेरी मुट्ठी में कैद होते मेंढ़क, शायद स्वयं के निगले जाने की स्थिति में पाए जाने की सोच मारे डर के अपनी अन्तिम घड़ी गिने होंगे..लेकिन मुट्ठी से मुक्त होते ही झाड़ियों में स्वयं को सुरक्षित पाकर उछल-कूद करते हुए अपने इस भयानक डर से मुक्त होने की खुशी भी मनाए होंगे..!! वाकई! डर से मुक्त होना खुशी देने वाला ही होता है...एक बात है अगर ये मेंढक लेखक होते तो निश्चित ही किसी मँझे हुए लेखक की साहित्यिक भाषा में यही लिखते कि "डर, डरने से होता है" लेकिन ठहरे ये बेचारे मेंढक! आखिर ये घोड़े की तरह नाल थोड़ी न बँधा सकते हैं...!! 
       ...अभी पिछले दिनों मैंने पढ़ा कि कहीं किसी अधिकारी ने आत्महत्या कर ली..उस अधिकारी की फेसबुक प्रोफाइल को जब हमने खंगाला तो उसने 
"it's a must win situation.. no alternative except victory" 
          को अपनी टैगलाइन बना रखी थी..आप इन पंक्तियों पर ध्यान देंगे तो यही पाएँगे कि उसने अपने लिए "फुदकने" का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा था..!! मतलब उसे हर हाल में 'Victory' ही चाहिए..! फिर तो किसी 'हार' के अंदेशे का डर उसे आत्महत्या तक ले ही जाएगा..!!!
         खैर..सुबह "डर" से फुर्सत मिलने पर देखा पेड़ बन रहा आम का प्रफुल्लित पौधा गिरा हुआ था...यह कैसे गिरा?  दो बंदर के बच्चों को उछलते-कूदते देखकर अनुमान लगाया कि यह बंदरों की "खुराफात" के कारण गिरा है..अब किसी की खुराफात ही सहजवृत्ति हो तो फिर क्या किया जाए.. 
चलते_चलते
      देखिए! डर तो सभी जीवों की सहजवृत्ति होती है क्या मेंढक, क्या आदमी! बात डर को ड्राइव करने की महत्वपूर्ण है..और इससे भी बढ़कर यह कि आपका डर किस बात को लेकर है..! हाँ यही बातें किसी को मेंढक तो किसी को आदमी बनाती हैं...
सुबहचर्या 
(10.10.18)

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