दोस्तों, सोचा...आज अपनी #सुबहचर्या लिखें। वैसे आजकल इधर सुबह-सुबह उठकर टहलने में न जाने क्यों मन आनाकानी करने लगता है। अकसर हम भी बिस्तर पर करवट बदलते हुए मन को विजयीभव का आशीर्वाद दे, चुपचाप पसरे रहते हैं। उठते तब हैं जब मन बकायदे उठने के लिए तन को झिंझोड़ता है।
खैर, मन की बात चली तो "उर्वशी" में पढ़ी ये पंक्तियाँ याद आने लगी -
"तन का क्या अपराध?
यंत्र वह तो
सुकुमार प्रकृति का,
सीमित उसकी शक्ति और सीमित
आवश्यकता है, यह तो मन ही है
निवास जिसमें समस्त
विपदों का ;
वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी
काल्पनिक क्षुधा से
हाँक -हाँक तन को उस जल को मलिन
बना देता है,
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस
स्वच्छ सलिल में
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार
खिलते हैं।"
तो, मित्रों बिस्तर पर पड़े अलसियाया हुआ मैं अपने तन को क्यों दोष दूँ ! तन तो इस प्रकृति की भाँति बड़ा निर्मल होता है, इसका अपराधी तो यह विषैला मन ही है -
"तन का काम अमृत, लेकिन
यह मन का
काम गरल है।"
गजब! भाई जी, इस तन का सोना या जगना इस मन के ही अधीन है...
"मन की लिप्सा के अधीन
उसको जगना
पड़ता है ;"
तो आज मन ने बिस्तर छोड़ने के लिए सुबह सवा छह बजे के बाद तन को झिंझोड़ा..मैं उठ बैठा..मुँह पर पानी के छींटे मारे, चप्पल पहनी और सड़क पर चहलकदमी करने निकल पड़ा..
सड़क पर चढ़ रहा था (असल में हमारे आवास से सड़क ऊँचाई पर है) तो बरबस एक लड़के पर हमारा ध्यान चला गया, जो तेजी से पैडल मारते हुए साइकिल को खैंचरते हुए भागा जा रहा था...शायद वह साइकिलिंग कर रहा हो...सड़क पर चलते हुए मुझे कोई खास बात नजर नहीं आई, बस यही लगा कि लोग अब अपनी दिनचर्या के लिए गतिमान होना शुरू हो गए हैं...
....टहलते-टहलते यूँ ही मैं काफी आगे निकल गया..देखा..एक मिनी सरोवर (?) में कमल खिलने को हैं..एक दोपहर को इधर से गुजर रहा था, तो खिले हुए ये कमल बहुत खूबसूरत लग रहे थे..असल में कमल सूरज की किरणों के साथ ही खिलना शुरू होते हैं...इस छोटे से सरोवर में, जो अतिक्रमण का शिकार था, ये बेचारे कमल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते प्रतीत हुए..
...कहते हैं कमल कींचड़ में खिलता है, ऐसा कहने वाले "कींचड़" को हेय मान कर ही कहते हैं..लेकिन क्या पत्थर में कुव्वत है कि वह कमल खिलाए..!! इसलिए मैं तो कहता हूँ, कींचड़ को उपेक्षित नजरों से न निहारें, क्योंकि कींचड़ में ही कमल खिल सकता है..!
....यहाँ से लौटते समय सड़क की खंतियों में भरे जल में खिली कुमुदिनियों पर निगाह गड़ गयी..कुमुदिनी का खिलना एकदम प्रात:बेला में ही होता है।
इन सब को देखते हुए मुझे ध्यान आया वर्षा-ॠतु बीतने के तुरंत बाद प्रकृति बड़ी मनोहारी हो जाती है.. हरियाली के साथ-साथ सरोवर भी पुष्पित हो उठते हैं..! दुनियादारी से ऊबे लोगों का वैरागी-मन ऐसे ही किसी सरोवर के किनारे प्राकृतिक अंचल में आश्रय खोजता है..आखिर, मुक्ति का मार्ग अन्ततः इस प्राकृतिक वातावरण में से ही होकर गुजरता है..
"जो भी अवसर निसर्ग के,
ईश्वर के भी
क्षण हैं ; धर्म साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं
चलती है"
हाँ भाई जो इस प्रकृति को नहीं समझते, वे ईश्वर को क्या समझेंगे। और जो प्रकृति को समझ लेता है उसके लिए मुक्ति की चाह व्यर्थ हो जाती है -
"पर, खोजें क्यों मुक्ति?
प्रकृति के हम
प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति,
तब तक हम भी
बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शान्त, आनंदमयी
धारा में।"
इस प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त धरती से...
"कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस
वसुधा से!"
इस प्रकार प्रकृति के इस टुकड़े को निहारते-निहारते कुछ क्षणों के लिए हम भी जोगी टाइप हो लिए थे।
चलते-चलते अचानक मैंने देखा सड़क की पटरी पर गंदगी के बीच प्लास्टिक का अपना एक छोटा तिरंगा पड़ा था..राष्ट्रीय झंडे के अपमान की सोच मैंने झटपट इसे उठा लिया। लेकिन..मन में थोड़ी सी ऊहापोह भी मची कि आखिर इस झंडे का क्या किया जाए..! इसे सड़क पर फेंक नहीं सकता था और घर लाने पर कूड़े के साथ फिर मिल जाने का भय था..अचानक, आजकल पूजा के बाद होने वाले मूर्ति-विसर्जन का ध्यान हो आया...बस, मैंने इस राष्ट्रीय प्रतीक तिरंगे को मरोड़ा, गोला बनाया और वहीं पास के नाले में फेंक दिया..मने मूर्ति की तरह उस तिरंगे झंडे को विसर्जित कर दिया..
वैसे एक बात है, सनातनधर्मी कभी मूर्ति स्थापना के हिमायती नहीं रहे हैं... हाँ..हम केवल प्रकृति को ही पूजते रहे...इसीलिए मुक्तिकामी लोग प्रकृति की ओर भागते रहे हैं...लेकिन, जैसे-जैसे हम मूर्ख होते गए वैसे-वैसे हमारी आस्था मात्र प्रतीकों तक सीमित होती गई !
खैर, लौट के बुद्धू घर को आया टाइप से, घर पहुँच अपनी चाय पीने की तलब मिटाने के उपक्रम में जुट गया..चाय बनायी और चाय सुड़कते हुए अखबार पर निगाह डाली....
"मुसलमानों के बिना हिंदुत्व भी नहीं बचेगा" यह कथन मन को भाया। एक बात है "हिंदुत्व" कोई धर्म नहीं है, भारतीय संविधान को मानना ही हिंदुत्व है। बल्कि हम कह सकते हैं भारतीय संविधान हिंदुत्व की व्याख्या है। खैर मैंने बहुत बात कर ली, बात थोड़ी लंबी हो गई ।
चलते_चलते
हम जिसे सबसे हेय समझ लेते हैं, उसमें भी असीम संभावनाएं छिपी होती हैं, उसके प्रस्फुटन से मुक्ति-मार्ग मिलता है।
(19.9.2018)
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