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मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

भ्रम और अनुभूतियाँ (सुबहचर्या)

          आजकल व्यस्तताएँ कुछ ज्यादा हैं, दिनभर की मानसिक और शारीरिक थकान के कारण सुबहचर्या प्रभावित हो रही है। कई बार सुबह का टहलना स्थगित हो जाता है। लेकिन आज की सुबह अलसाए मन को चपत लगाते हुए बिस्तर छोड़ दिया था। टहलने निकले तो मन हुआ कि उस पहाड़ी पर चढ़े जिस पर महोबा का विकास भवन बना हुआ है। पहाड़ पर स्थित यह विकास-भवन दूर से किसी सरकारी भवन की अपेक्षा विशाल पर्यटक-गृह जैसा प्रतीत होता है। वैसे एक बात है विकास भवन को ऊँचाई पर नहीं होना चाहिए। क्या किया जाए, अभी तक इस देश के लिए विकास भी ऊँची चीज ही बनी हुई है। विकास-भवन के ऊँचाई पर होने का एक फायदा विकास कर्मियों को यही है कि यहाँ शिकायत-कर्मी  थोड़ा कम ही पहुँच पाते हैं। 

       तो सुबह लगभग साढ़े पाँच बज रहे होंगे टहलते-टहलते विकास-भवन वाली पहाड़ी पर चढ़ने लगे थे। वैसे तो इस पहाड़ी पर चढ़ते समय थोड़ा-बहुत तो दम फूलने ही लगता है, लेकिन आज बड़े मजे से तेज-तेज डग भरते हुए बिना दम फूले इस पहाड़ी पर मैं चढ़ गया था।पहाड़ी पर स्थित विकास भवन के चारों ओर कोलतार की सड़क बनी हुई है, फिर इसी पर चलते हुए विकास भवन का चक्कर लगाने लगा था। यहाँ शहर के लोग भी टहलने आ जाते हैं। खैर.. 

       टहलते हुए एक बातचीत मेरे कान में पड़ी। कोई कह रहा था, "अपने समाज के लोगों से कह दिया गया है कि यदि कोई वोट मांगने आए तो कह दिया जाए कि हमारे समाज ने तय कर लिया है कि हमें कहाँ वोट देना है..अब हम कुछ नहीं कर सकते..हमारा भी वोट वहीं जाएगा।" कान में पड़ी यह बात मन को कुरेद गई। इसी के साथ उस व्यक्ति की बात याद आ गई जिसकी कार में मैंने लिफ्ट लिया था। था तो वह गँवई ही, लेकिन काम धंधे के चक्कर में उसे दुनियादारी का बखूबी ज्ञान हो चला था। मुझसे बातचीत करते हुए उसने कहा था, "साहब जी, विधायकों और सांसदों को ही मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार होना चाहिए" उसकी इस बात पर मैंने कहा था, "यही चुनते हैं" फिर उसने अपने कहने का मतलब मुझे समझाया। 

          "नहीं सर जी, मेरा मतलब यह है कि पार्टी-शार्टी की व्यवस्था (राजनीतिक दल) खतम होनी चाहिए..लोग अपने दम पर चुनाव लड़ें..इनमें जो अच्छा हो, वह जीते...और फिर यही जीते हुए विधायक या सांसद मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का चुनाव करें.. ऐसी व्यवस्था में, ये मंत्री-संन्त्री जो चुनाव प्रचार के लिए निकलते हैं और इससे जनता का जो जी हलकान होता है, वह नहीं होगा..सब अपना-अपना ही प्रचार करेंगे..सरकार को भी कोई व्यवस्था नहीं करनी होगी तथा व्यर्थ का सरकारी ताम-झाम भी नहीं रहेगा और पैसा भी बचेगा..." 

       मुझे उस व्यक्ति की बात काफी-कुछ जमीं! एक आम आदमी दंद-फंद करता और उससे जूझता हुआ भी कुछ सोच सकता है! 

         इन्हीं बातों-खयालों में खोए हुए मैंने विकास भवन का दो चक्कर लगा लिया था। लौटने को हुआ तो एक क्षण के लिए विकास-भवन की इस पहाड़ी से ऊपर आसमान और पूरब दिशा में, क्षितिज को निहारा..दूर स्लेटी रंग की पहाड़ियों के ऊपर सूरज की हलकी-हलकी लालिमा विखरनी शुरू हो चुकी थी.. बहुत ही सुन्दर लगा..आनंदानुभूति सी हुई...! फिर नीचे महोबा शहर पर निगाह डाली...शहर की लाइटें यहाँ से सुन्दर नजारा पेश कर रहीं थी। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि भले ही तुम्हारी बनाई दुनियाँ निरुद्देश्य सी हो लेकिन मेरी चेतना की ये अनुभूतियाँ तो सच्ची ही हैं।

             टहलकर मैं वापस आ गया था। चाय बनाई, चाय पीते हुए अखबार पढ़ा। सम्पादकीय "वोट डालने निकले" पर ध्यान गया। फिर घर से बात की "श्रीमती जी ने कहा वोट डालने क्या जाएं! ये वोट लेने वाले केवल भ्रमित ही तो करते हैं" इस पर मैं कुछ नही कह पाया और मुझे भी लोकतंत्र से वितृष्णा की सी अनुभूति होने लगी थी। 

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