एक बात बताऊँ आपको, मेरे आवास के सामने एक लान है। गर्मियों में जब मैंने देखा यह बंजर जैसी सूखी पड़ी हुई है तो मैंने इस पर दूब रोपना शुरू कर दिया था। बाद में यही रोपा हुआ दूब हरियाली पकड़ता गया और लान का एक हिस्सा हरा-भरा हो गया। लेकिन इस लान का एक भाग अभी भी बंजर जैसा सूखा पड़ा था। मेरे द्वारा रोपा हुआ दूब अकसर यहाँ सूख जाता है। फिर एक दिन मैंने ध्यान दिया तो पाया कि यहाँ की मिट्टी ही खराब है और मैंने ठान लिया कि अब हम यहाँ की मिट्टी ही बदल डालेंगे। फिर क्या हुआ कि मैंने एक खुरपी खरीदवाई और जुट गया इस मिट्टी को बदलने के लिए। यहाँ की बंजर बजरी जैसी मिट्टी को खोदकर निकालता और पास ही से उपजाऊ मिट्टी लाकर खोदे हुए जगह में भर देता।
अकसर मिट्टी बदलने का काम मैं सुबह ही करता ताकि ऐसा करते कोई मुझे देख न ले। देखे जाने का भय मुझे इसलिए होता कि कोई मुझसे यह काम छीन न पाए। यह काम मैं बहुत सफाई से करता जा रहा था कि मन में इसी को लेकर एक कविता फूट पड़ी।
अब तो आप जानते ही हैं कि कविता क्या होती है। मेरे हिसाब से कविता भावनाओं में लिपटा शब्दों का फाहा होता है। फाहा किसे कहते हैं यह तो आप जानते ही हैं, अरे वही कोमल-कोमल रूई का एक नरम-नरम छोटा सा गोला। हाँ बचपन में जब कभी आँखों को चोट लग जाती तो माँ वगैरह इस रूई के फाहे को अपनी साँसों से गरम कर आँखों को सेंक दिया करती थी। धीरे-धीरे यह दर्द गायब हो जाता।
हाँ, कविता भी तो ऐसी ही होती है, नरम-नरम, कोमल-कोमल भावनाओं के फाहे जैसा! यह दुलारती है! पुचकारती है! सहलाती है! कभी-कभी हलके से थपकी दे हमें झकझोरते हुए जगाने का भी काम करती है! हाँ, कविता इसी तरह से हमारे अन्दर संवेदनाएँ जगाती है और फिर जैसे हमें चैन की नींद सुला भी देती है! बस सो जाना ही थोड़ा सा गड़बड़ लगता है! लेकिन चलिए कोई बात नहीं।
इस कविता को तो पढ़ ही सकते हैं -
धरती पर पसरा यह बंजर, देख
जाने क्यों जी धक् कर जाता है।
यह मन सूनापन फिर देख वहाँ,
कराह, सिहर-सिहर सा जाता है।
मन के अंतस का सिहरनपन,
वहाँ झट दूब उगाने लगता है।
पर मिट्टी का वह बंजरपन,
जहाँ दूब झुलस यह जाता है।
वहाँ झट दूब उगाने लगता है।
पर मिट्टी का वह बंजरपन,
जहाँ दूब झुलस यह जाता है।
सोचा, हाथों में ले खुरपी,
अब मिट्टी ही बदल देना है।
पनपे बिरवे और बीज यहाँ,
ऐसी मिट्टी वहाँ भर देना है।
अब मिट्टी ही बदल देना है।
पनपे बिरवे और बीज यहाँ,
ऐसी मिट्टी वहाँ भर देना है।
साँझ ढले, कह रोई मिट्टी,
मुझको क्यों कर बदला है।
पत्थर से भी बन निकली,
तू खाद हमें नहीं दे पाया है।
मुझको क्यों कर बदला है।
पत्थर से भी बन निकली,
तू खाद हमें नहीं दे पाया है।
खारापन लिए हृदय में, यह
मिट्टी सूखी आँखों फिर रोई है।
सोख लिया मेरा सब कुछ,
बंजर कह निर्दय तूने बदला है।
मिट्टी सूखी आँखों फिर रोई है।
सोख लिया मेरा सब कुछ,
बंजर कह निर्दय तूने बदला है।
क्या कर लेगा उपजाऊपन से,
तू अपने मन का ही करता है।
मिट्टी मैं तो सब बिरवे की, पर
सब अपनी-अपनी ही बोते हैं।
तू अपने मन का ही करता है।
मिट्टी मैं तो सब बिरवे की, पर
सब अपनी-अपनी ही बोते हैं।
मैं तो सब बिरवे की थी जननी,
मेरे उपजाऊपन का यह पैमाना है।
पर जंगल -जंगल यह बात चली,
तूने जंगलीपन कह इसे दुत्कारा है।
मेरे उपजाऊपन का यह पैमाना है।
पर जंगल -जंगल यह बात चली,
तूने जंगलीपन कह इसे दुत्कारा है।
जंगल-जंगल, पत्ते-पत्ते से ही,
यह मिट्टीपन बनता आया है।
पर क्रान्तिवीर बन कर तुमने,
यह कैसा उपजाऊपन लाया है?
यह मिट्टीपन बनता आया है।
पर क्रान्तिवीर बन कर तुमने,
यह कैसा उपजाऊपन लाया है?
बदलो! तुम मुझको बेशक बदलो,
बंजरपन तेरे मन की ही छाया है।
तेरे मन के इस खारेपन से, सोचो,
कोई उपजाऊ मिट्टी भी बच पाई है?
बंजरपन तेरे मन की ही छाया है।
तेरे मन के इस खारेपन से, सोचो,
कोई उपजाऊ मिट्टी भी बच पाई है?
मैं बन क्रान्तिवीर निस्तेज खड़ा,
अब खुरपी हाथों से छूट पड़ी है।
अपलक देख रहा इस धरती को,
बालक ने फिर से माँ को देखा है।
अब खुरपी हाथों से छूट पड़ी है।
अपलक देख रहा इस धरती को,
बालक ने फिर से माँ को देखा है।
-विनय
महोबा
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