अपने लिए सुबह की चाय मैं स्वयं बनाता हूँ। आज भी मैंने अपने लिए चाय बनाई और दूध गरम करने के लिए भगोना चूल्हे पर रख दिया था। किचन का एक दरवाजा लान की ओर भी खुलता है जो अकसर बन्द ही रहता है या यूँ कहिए इसे खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। हाँ, चूल्हे पर रखे दूध में अभी उबाल नहीं आया था, तभी न जाने मैंने क्या सोचकर लान की ओर खुलने वाले दरवाजे को खोल दिया। दरवाजा खुलते ही एक ताजे हवा के झोंके का मुझे एहसास हुआ। फिर मुझे क्षितिज से थोड़ा ऊपर पेड़ों के बीच से झाँकते हुए ये सूर्यदेव मुझे दिखाई पड़ गए। इस दृश्य को देखते ही मैं एक बेहद खूबसूरत अहसास से भर गया और कुदरत की इस खूबसूरती से आप सब को भी रूबरू कराने के लिए हाथ में लिए हुए मोबाइल में इस दृश्य को कैद कर लिया। तभी मुझे दूध में उबाल का अहसास हुआ और मैं फिर से किचन में वापस आ गया।
वैसे तो खाना भी मैं स्वयं ही बना सकता हूँ, लेकिन यह खाना-वाना बनाना सब पढ़ाई के दिनों में होता था। अब खाना स्वयं बनाना नहीं हो पाता। एकाध बार इस बारे में सोचा भी लेकिन कुछ काम के दबाव से तो कुछ अब खाना स्वयं बनाना अच्छा न लगने के कारण ऐसा नहीं कर पाता। एकाध बार तो खाना बनाए ही नहीं और ऐसे ही सो गए थे। लेकिन नौकरी ऐसी मिली है कि खाना बनाने वाला कोई न कोई मिल ही जाता है। यहाँ जो मेरा खाना बनाता है वह भी है तो एक सरकारी कर्मी ही लेकिन सरकारी अभिलेखों के अनुसार खाना बनाना उसका काम नहीं है। अपने कामों से बचे समय में ही वह सुबह-शाम मेरे लिए भोजन तैयार कर देता है।
उस समय मैं नया-नया ही इस जगह आया था। तब किसी ने मुझसे इसकी सिफारिश भी की थी कि यह सीधा है और आपका खाना भी यही बना दिया करेगा। वैसे यह मेरे से पहले वाले किसी साहब का भी खाना बनाता था। लेकिन वे साहब न जाने क्यों इससे नाराज हो गए थे। बाद में इसने उनका खाना बनाना छोड़ दिया था। उन्होंने गुस्से में इस बेचारे को सस्पेंड भी कर दिया था, किसी तरह से फिर बहाल हुआ था। एक दिन मेरे यह पूँछने पर कि वे साहब तुमसे नाराज क्यों थे तो इसने बताया कि वे साहब अकसर शराब पीते और मीट बनाने के लिए कहते थे लेकिन जब वह ऐसा न कर पाता तो वे उससे नाराज हो जाते। इन्हीं कारणों से इसने उनका खाना बनाना छोड़ दिया था। इसने मुझसे यह भी बताया कि वह भी पूरी तरह से शाकाहारी ही है। यह सुन मुझे अच्छा भी लगा था।
एक दिन इसने मुझसे कहा कि साहब, जब तक आप यहाँ रहेंगे तब तक मैं ही आपका खाना बनाता रहूँगा। उस समय मैं चुप लगा गया था कारण उन दिनों मैं भी इससे नाराज था। और नाराजगी का कारण यही था कि खाना बनाने जैसा काम यह बहुत हड़बड़ी में करता था। और फटाफट जैसे-तैसे इस काम को निपटाकर बस घर भागने के ही फिराक में रहता था। इसके इस जल्दबाजी का परिणाम खाना बनाने के तरीके और इसके स्वाद पर भी पड़ता था। बल्कि इस सम्बन्ध में समझाने पर भी इसका मेरी बातों पर ध्यान नहीं जाता और तब मुझे इसके इस आदत पर झल्लाहट सी हो जाती। उन दिनों मैं यही सोच रहा था कि कोई कायदे का खाना बनाने वाला मिले तो इसके स्थान पर उसे ही खाना बनाने के लिए कह दूँ।
इन्हीं दिनों मेरी श्रीमती जी भी कुछ दिनों के लिए आई हुई थीं। एक दिन वे भी इसके इस लापरवाही पूर्ण तरीके पर झल्ला उठी थी और तीन-चार दिनों तक उन्होंने स्वयं खाना बनाया था। उनके जाने के कुछ दिन बाद ही मैं इसकी इस लापरवाही भरी आदत के कारण मन ही मन काफी गुस्से में था कि बस अब इसे खाना बनाने से मना ही कर देना होगा और मैंने यह बात जब श्रीमती जी से फोन पर कहा तो उन्होंने मुझसे बताया कि इसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं शायद उन्हीं के कारण वह अपने घर जल्दी भाग जाता होगा। श्रीमती जी उसके घर भी हो आई थी शायद इसके बच्चों की बातें इसीलिए उन्होंने कही थी। इसके बाद मैंने अपने निर्णय को कुछ दिनों के लिए टाल दिया था।
एक दिन की बात है जब वह किचन में था तो एक नन्हीं सी बच्ची की आवाजें वहाँ से आती हुई मैंने सुनी। इसके थोड़ी देर बाद वह मेरे पास आया और बोला, "साहब अभी थोड़ी देर में मैं आता हूँ.." बहुत संकोच और जैसे डरते-डरते उसने मुझसे कहा था। उसे शायद मेरी नाराजगी का एहसास हो चुका था। उस समय मैंने उससे पूँछा था, "क्यों " तो उसने बताया कि उसे बेटी को स्कूल छोड़ने जाना है। फिर उसने अपनी बेटी को बुलाया और बेटी को हाथ जोड़कर मुझसे प्रणाम करने के लिए कहा। मैंने उस बच्ची की नन्हीं हथेलियों को झट से पकड़ते हुए कहा, "अरे नहीं-नहीं" फिर मैंने बच्ची को स्कूल छोड़ आने की सहर्ष सहमति दे दिया। वास्तव में उस प्यारी बच्ची को अपने पापा से खूब बातें करते हुए देख मुझे बहुत ही अच्छा लगा था और उन दोनों को साथ-साथ जाते देख मैं यही सोच रहा था कि यह बच्ची अपने पापा से किस हद तक जुड़ी है कि पापा को भी इसे छोड़ना मुश्किल होता होगा।
खैर, अब मैं उसकी लापरवाहियों पर थोड़ा कम नाराज होने लगा था। मैंने उससे एक दिन कहा भी था कि तुम सुबह और शाम आराम से आया करो क्योंकि सुबह वाली चाय तो मैं स्वयं बना लिया करूंगा और शाम का खाना भी हल्का-फुल्का ही बनना होता है।
फिर एक दिन ऐसे ही उसके साथ उसका तीन साल का छोटा बेटा भी साथ आया था। वह अभी स्कूल नहीं जाता है। उसने अपने बेटे को मुझसे मिलवाया। बहुत छोटा! लगा जैसे यह भी अपने पापा की राह देखता होगा। मैंने भी फर्श पर ही घुटनों के बल बैठ उसके कंधे पर हाथ रख उससे बातें करने की कोशिश की थी, और मैं समझ गया कि इसका पापा भी अपने इन बच्चों को देखे बिना बेचैन हो उठता होगा। अब जैसे-तैसे हड़बड़ाहट में खाना बना कर अपने घर भागने की उसकी यह अधीरता मेरे समझ में आ चुकी थी। फिर मैंने इससे कहा था कि कभी मुझे देर हो जाने पर तुम खाना बनाकर ढक के चले जाया करना और मैं आने पर निकाल कर खा लिया करूंगा।
इन्हीं दिनों मेरा अपना ध्यान मेरे अपने इस निवास के बाथरूम की ओर चला गया था जहाँ जैसे-तैसे कर कठिन परिस्थितियों में भी गौरैया ने अपना घोसला बना रखा है और मैंने अकसर गौरयों के जोडों को वहाँ मँडराते हुए देखा है। और यही नहीं यहाँ तक भी देखा है कि यदि जोड़े का एक पक्षी घोसले में होता है तो दूसरा वहीं बैठा दिखाई दे जाता है, जैसे अपने परिवार की रखवाली की चिन्ता इसे भी सताए जा रही हो।
पक्षी तो पक्षी लेकिन वह मेरा खाना बनाने वाला तो मानव है फिर उसके बच्चे भी तो छोटे-छोटे और प्यारे-प्यारे से हैं! आखिर उसका अपने घर भागना तो बनता ही है। अब मैं उसके घर भागने की इस आदत पर ध्यान नहीं देता बस मुस्करा भर देता हूँ।
क्षितिज से ऊपर उठे और पेड़ों के बीच से निहारते सूरज देव ऐसे प्रतीत हुए मानो वे भी पृथ्वी रूपी हमारे इस घोसले पर अपने आशिर्वाद रूपी प्रकाश की किरणों को अपनी मंगलकामना के साथ बिना किसी लाग-लपेट के विखेर रहे हैं!
इस दृश्य को देखकर मेरा भी हृदय सबके प्रति मंगलकामना से भर गया और बिना किसी लाग-लपेट के आप सब की मंगलकामना के साथ आज का यह पोस्ट आप सब को ही समर्पित है। आप सबका दिन मंगलमय हो..! -विनय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें