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शनिवार, 19 सितंबर 2015

खूँटियों पर टंगते शब्द

         रंगीन रोशनियों से नहाया हुआ मंच बहुत सुन्दर ढंग से सजाया गया था..! इस मंच पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे...लेकिन...आज कवि-सम्मेलन की बारी थी...वैसे यह कथन कहावत के रूप में प्रचलित है..“संतन को कहा सीकरी सो काम” मतलव कवि होना भी एक प्रकार की संतई है...और...यह चमक-दमक भरा मंच उसके लिए बेमानी है...लेकिन...अब दुनियादारी का ज़माना है और इस जमाने में दुनियादार तो होना ही पड़ता है...तभी श्रोता होंगे, मंच होगा और कविता होगी...नहीं तो सब सूना...! फिर तो कविता भी नहीं उपजेगी...इसीलिए कवि को भी इस ‘सीकरी’ से काम है...

          हाँ तो मंच सजा हुआ था..बारी-बारी से कवि आते जा रहे थे और मंचासीन हो रहे थे...अब सभी कवि अपने-अपने आसन पर विराज चुके थे....परिचय के साथ उनके स्वागत की बारी थी...स्वागती महोदय मंच पर हो रही उद्घोषणा के साथ बारी-बारी से एक-एक कर कवियों का माल्यार्पण करना आरम्भ किया..स्वागती महोदय के हाथ में एक माला दिया जाता और वे इसे एक कवि के गले में डाल देते...ऐसा करते-करते चार कवियों को पार करते हुए वे पाँचवी कवयित्री महोदया के पास पहुँचे...दोनों हाथों से माला पकड़े वे अभ्यास-गत मूड में आ चुके थे और इस माला लिए हाथ को कवयित्री जी के गले की ओर इसे अर्पण करने हेतु आगे बढ़ा दिए...! लेकिन कवयित्री जी सकुचा गई उन्होंने अन्य कवियों की भाँति इसे गले में पहनने के लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया....तब तक श्रोताओं की ओर से हँसी फूट पड़ी थी...स्वागती महोदय को अपनी गलती का अहसास हुआ और फिर उन्होंने इस माले को पुष्प-गुच्छ में परिणत कर कवयित्री महोदया के हाथों में अर्पण कर दिया...बस..!!
        
          यहाँ तीन बातें मुझे कचोट गई...पहला - कवयित्री महोदया का एक पुरुष(व्यक्ति नहीं) के हाथ से गले में माला पहनने से सकुचाना, दूसरा- श्रोताओं का हँसना और तीसरा- स्वागती महोदय का एक स्त्री(व्यक्ति नहीं) को माला पहनाने की भूल का अहसास करना...! अब मैं सोचने लगा इन कवियों में कविता कैसे उपजती होगी...? यह भेदग्रस्त मन कैसे कवितामय होता होगा...? लाइटें रंगीन होकर जल-बुझ रही थी...मंच पर जैसे दुनियादारी तारी थी....हाँ तो मंच की इस रंगीनियत में व्यक्ति ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के रूप में अलग-अलग दिखाई दे रहा था...और उन्हें देखने के पैमाने अपने तरीके से काम कर रहे थे...इस विभाजन को कवि-मन या कहें साहित्यिक-मन भी दूर नहीं कर पाया...श्रोता तो बेचारे थे...! वे तो हँसना ही चाहते थे...एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के लिए स्वागत की माला ‘वरमाला’ भी बन जाती है; यह मजाक हमें हँसा देता है....मतलब इन कवियों ने भी अनजाने में ही बता दिया कि एक स्त्री व्यक्ति नहीं होती..वह होती है तो स्त्री ही..! फिर हम चाहें कितने बौद्धिक हों..साहित्यिक हों...हमारे लिए एक माला स्त्री के लिए सदैव ‘वरमाला’ ही होती है...!!
         
        क्या करें इनमें इन बेचारों की गलती नहीं है...दोष श्रोताओं का ही है वे हँस क्यों पड़े...? लेकिन हो सकता है यह ‘सकुचाना’ और ‘भूल का अहसास’ से उपजी हँसी हो....या फिर इस बौद्धिक या साहित्यिक दुनियाँ का ‘सकुचाना’ और ‘भूल का अहसास’ श्रोता-सापेक्ष हो...खैर...
          
         जो भी हो...लेकिन एक बात तय है अब जब हम बहुत बौद्धिक या भावुक होते हैं तो हमारे शब्द खूँटी पर टंगते चले जाते हैं...क्योंकि इसका हमें कीमत वसूलना होता है...या दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि हम अपने शब्दों को खूँटी पर टांग-टांग कर साहित्यिक सर्जक भी बन जाते हैं....और श्रोताओं की ताली हमें प्रभावित कर जाती है...इस व्यापर में तब उनकी हँसी उत्साहवर्धक होती है...फिर तो हम शब्दों को खूँटी पर टांगते साहित्य सृजन करते चले जाते हैं...मतलब शब्दों को हम ओढ़ते नहीं...अपने से चिपकाते नहीं...शायद यही एक साहित्यकार की विधा है...यह दुनियादारी का ही कमाल है...! यदि ये शब्द हमसे चिपके रह गए तो फिर हो चुकी दुनियादारी..! ये चमक-दमक भरी दुनियादारी ही इन शब्दों को मूल्य प्रदान करते हैं...इसके लिए इन शब्दों को खूँटी पर टाँगना पड़ता है...

         हाँ यहाँ एक बात है...शब्दों का खूँटी पर जो टांगना है न...! वह सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ से भिन्न है...यहाँ तो जब शब्द खूंटियों पर टंग जाते हैं तो साहित्य-सृजन हो उठता है...! और वहाँ खूँटियों पर टंगने की पीड़ा से साहित्य सृजन होता है....लेकिन शब्दों का खूंटियों पर टंगना विभाजनकारी होता है...नहीं तो व्यक्ति, व्यक्ति ही होता और वह स्त्री-पुरुष में विभाजित न होता...!! यह विभाजन बलात्कारी होता है...बाँट देता है...चीजों को अपने जबड़े में फंसाना चाहता है...केवल खेलना जानता है...वह भी खूँटी पर टांग कर...या फिर ताली की चाह लिए विनयावनत सा पैरों पर भी गिर पड़ता है...! शायद चमकीली सी इस दुनियादारी का यही विभाजनकारी खेल है जहाँ साहित्य अब खूंटियों पर टंगे शब्दों से उपजता है....!!

         अरे हाँ..! मैं भी तो ऐसा ही हूँ...आप के कान में धीरे से बताता हूँ...मैं भी तो हँस दिया था...! मैं भी...!! अपने लिखे इन शब्दों को फेसबुक की इस खूँटी पर टांग दे रहा हूँ...यदि ये शब्द मुझसे चिपके रहेंगे तो ये बेचारे ‘गरीब के जोरू’ बन जाएंगे...हाँ इन्हें साहित्यिक जामा जो पहनाना है..!!             

         

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