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शनिवार, 19 सितंबर 2015

हरारत...

          पिछले दिनों शरीर में कुछ हरारत सी महसूस हुई थी...मैंने अपने से ही कुछ यूँ ही ‘वायरल फीवर’ के लिए सामान्यतः प्रचलित दवाएँ जैसे पैरासीटामाल, एंटीबायोटिक आदि ले लिया था...बुखार तो जैसे नियंत्रण में था...लेकिन कुछ शुभेच्छुओं की सलाह पर जिला-चिकित्सालय चला गया था...सी.एम.एस. महोदय ने देखते ही आसन ग्रहण कराया...आने का कारण पूँछने पर मैंने उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया...उन्होंने एक रुपये की पर्ची बनवाने के लिए मेरे अटेंडेंट को भेज दिया....इस बीच सी.एम्.एस. महोदय अपने काम में उलझे रहे...निश्चित रूप से वे भी एक डॉक्टर थे...लेकिन उन्हें कार्यालीय फाइलों और रिपोर्टों में ऐसे उलझे देख वे मुझे डॉक्टर कम किसी कार्यालय के बाबू अधिक लग रहे थे...यहाँ उन बेचारे में कमी नहीं थी...असल बात यह कि स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाएँ देने वाली सरकारी संस्थाओं को हम केवल एक कार्यालय बना कर छोड़ दिए हैं...डॉक्टर यदि जिले की स्वास्थ्य सम्बन्धी रिपोर्टों को बनाने एवं इसके प्रशासन में ही उलझा रहता है तो वहीँ शिक्षक भी पढ़ाई के कामों में कम बल्कि इतर कामों में अधिक उलझा रहता है....
         
         अचानक सी.एम.एस. महोदय मेरी ओर देखते हुए बोले... ‘इस समय डा. गुप्ता जी मरीजों को देख रहे होंगे आप उन्हीं को दिखा दें...’ इसी बीच पर्ची बनवाकर मेरा अटेंडेंट आ गया था... “हाँ...सर...गुप्ता जी बैठे हैं....वो मरीजों को बहुत अच्छे से देखते हैं..” मेरे बड़े बाबू ने भी उसी समय मुझसे यह कहा...फिर हम पर्ची लेकर डा. गुप्ता के कमरे की ओर बढ़े...एक गैलरी पार करते हुए मैंने वहाँ जबरदस्त भीड़ देखी... “देखिए सर..ये सारे लोग डा. गुप्ता को दिखाने के लिए आए हुए हैं..यही तो यहाँ के ऐसे डॉक्टर हैं जो पूरे मन और ध्यान से रोगियों को देखते हैं...इसीलिए इनको दिखाने के लिए रोगियों की भीड़ लगी रहती है...”
          
        किसी तरह भीड़ के बीच से निकलते हुए..अब हम डा. गुप्ता के कक्ष में थे...हमारा परिचय हुआ..डा. साहब ने वहीँ एक खाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया...मैं भी इत्मीनान से वहाँ बैठ गया...डा. गुप्ता बारी-बारी से मरीजों को देखते जा रहे थे...उन्हें देख मैं सोचने लगा यदि यह डा. अपना कोई नर्सिंग होम खोल ले या फिर प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू कर दे तो इनपर पैसों की बरसात होने लगे...लेकिन यहाँ वेतन के रूप में क्या पाते होंगे...? खैर...तभी मेरा ध्यान उनके चेहरे की ओर गया...हाँ रोगियों को देखते हुए डा. गुप्ता के चेहरे पर एक अद्भुत गरिमामय संतोष का भाव दिखाई पड़ा...
        
        इसी तरह कुछ रोगियों को देखने के बाद वे मेरी भी नब्ज टटोलने लगे...फिर मेरा बी.पी. लिए..८४-१३८...इसके बाद ब्लड टेस्ट लिखते हुए बोले “वैसे तो कोई ख़ास बात नहीं है..ये दवाएँ ले लीजिए...और यह टेस्ट करा लीजिए....”
        
        अब मैं इस जिला चिकित्सालय के पैथालोजी सेक्सन में आ गया था...यहाँ मैंने देखा रोगियों का नाम एक रजिस्टर पर लिखा जा रहा था और फिर उनका सेंम्पल लेते हुए जाँच की कार्यवाही चलती जा रही थी...मुझे यहाँ की पूरी प्रक्रिया व्यवस्थित लगी..स्वास्थ्यकर्मी बेचारे मुस्तैदी से अपना काम करते जा रहे थे...मेरे साथ भी प्रक्रिया का पालन किया गया...मुझे बताया गया कि हीमोग्लोबिन १३% है और मलेरिया की रिपोर्ट डेढ़ घंटे बाद प्राप्त होने की बात कही गयी...बाद में रिपोर्ट में मलेरिया की पुष्टि नहीं हुयी...
      
         इधर अस्पताल से आने के बाद मैं अपने कार्य निपटाता रहा...उसी दिन रात में मुझे जबदस्त उल्टी हुई लगा जैसे आंत बाहर आ जायेगी...रात में बहुत कमजोरी का अहसास हुआ...फिर मैंने काम से अवकाश ले लिया...घर आ गया था....
       
         एक बात है जब आप ऐसी स्थितियों से गुजरते हैं तो मनःस्थित जीवन के प्रति थोड़ी सी उदासीनता वाली हो जाती है...मैंने उस दिन श्रीमती जी से कुछ ऐसा ही भाव व्यक्त किया था.. “आखिर क्या मतलब है इस जीवन का..?”
         
         श्रीमती जी ने कहा था, “मतलब...? समझो तो सब कुछ मतलब ही है...! इस आकाश को देखो..कोई है धरती जैसा...? इस धरती के जीवों..पक्षियों..को देखो...यह सब देखने को कहाँ मिलेगा...सब-कुछ कितना अद्भुत है..!! यह सब देखते रहना भी जीवन का मतलब होता है...और यदि किसी में ज्यादा उत्साह हो तो ईश्वर की इस रचना में और चार-चाँद लगा दे...!! कोई यूँ ही किसी के काम आ जाए बिना अर्थ के तो यह भी जीवन का मतलब होता है...”
            
          श्रीमती जी ने जैसे ही अपनी बात पूरी की...मुझे रोगियों का इलाज करते हुए डा. गुप्ता के चेहरे पर का वह अद्भुत गरिमामय संतोष वाला भाव दिखाई दे गया...
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        इस जिला चिकित्सालय का चक्कर लगाने के बाद मैंने अनुभव किया कि हमारी सरकारी संस्थाए वास्तव में अपना काम करती हैं...अच्छे व्यक्तियों से इन संस्थाओं में और चार-चाँद लग जाता है...केवल आवश्यकता है तो इनकी क्षमताओं में वृद्धि करने तथा अच्छे लोगों की पहचान कर उन्हें उत्तरदायित्व सौंपने का...!

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