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शुक्रवार, 20 मार्च 2020

'मरे' हुए 'विवेक' का कोरोना

          सुबह साढ़े पांच बजे नींद टूटी, लेकिन उस वक्त उठने का मन नहीं हुआ, मन जैसे प्रमादग्रस्त था। इस प्रकार मिनट दर मिनट गुजरते हुए सवा छह हो गए। कंबल झटक कर उठ खड़ा हुआ। फिर तय किया कि चलकर थोड़ा टहलकदमी किया जाए। आवास से बाहर निकला, लेकिन सड़क पर बढ़ती आवाजाही देखकर, उस पर जाने का मन नहीं हुआ। आवास के छोटे से कैम्पस से सड़क तक चहलकदमी करता रहा। एक चक्कर में सौ कदम होते हैं। खैर मन के कोने में थोड़ा पश्चाताप भी हुआ कि यदि और पहले टहलने निकल लेते तो सुबह के सौन्दर्य को ताक लेते! कभी-कभी सुबह इतनी खूबसूरत लगती है कि जैसे यह ठहर जाए। दरअसल सुबहें बिना लाग-लपेट की होती है और मन भी इस वातावरण में बिना लाग-लपेट के हो जाता है। ऐसे समय मन का सौन्दर्य भी निखर आता है और इसका आनंद ही कुछ और होता है, हाँ यही सुबह-ए-आनंद है! लेकिन सुबह ही क्यों, मन तो कभी भी बिना लाग-लपेट वाला हो सकता है।
          उस दिन घर की लाबी में बैठे हम पति-पत्नी आपस में कुछ बातें कर रहे थे, यही कोई दोपहर का वक्त था। अचानक बाहर से आता चिड़ियों की चहचहाहट का शोर सुनाई पड़ा। यह आवाज़ तेज हो रहा था। पत्नी किचेन में चली गई। वापस आकर रहस्यात्मक अंदाज में मुझे किचेन की खिड़की तक ले आईं और मुझे बाहर देखने के लिए इशारा किया। देखा! बाउंड्री वॉल के लोहे वाले ग्रिल पर गौरैयों का झुंड चीं-चीं करते हुए उड़-बैठ रहा था। दरअसल पत्नी ने खिड़की के ऊपर गौरैयों के लिए लकड़ी का एक घोंसला बनवा कर रखा है। गौरैयों को अपना चोंच उस घोंसले की ओर कर उन्हें चींचियाते देख मैंने पत्नी से कहा कि ये इस घोंसले पर कब्जे को लेकर आपस में झगड़ रही हैं। पत्नी अपनी इस सफलता पर प्रसन्न हो रहीं थीं कि उनका रखवाया यह घोंसला गौरैया चिड़ियों के काम आने वाला था। 
        हम दोनों कुछ क्षण तक इन गौरैयों के इस झगड़े को निहारते रहे। अचानक! पत्नी ने किचेन की खिड़की से घोंसले के ओर झाँका और मुझसे बोल पड़ी, "अरे! बात यह नहीं है, इस घोंसले पर बुलबुल बैठा है, यह भी शायद इस पर कब्ज़ा जमाने की ताक में है और गौरैयों को यह नागवर गुजरा है, इसीलिए इस बुलबुल को भगाने के लिए इकट्ठे होकर प्रयास कर रही हैं।"
       वाकई! यह सब देखकर मुझे भी आश्चर्य हुआ कि गौरैयों को यह ज्ञान है कि यह घोंसला उन्हीं के लिए है और बुलबुल इस पर अनधिकृत कब्ज़ा करना चाहता है! इसीलिए इसपर बुलबुल का बैठना इन्हें बर्दाश्त नहीं है। इधर बुलबुल ने भी गौरैयों के झगड़े से परेशान होकर वहाँ से उड़ने में ही अपनी भलाई समझा। इधर इस घटना में खोए हुए ही मैं चार हजार कदम मने तीन किलोमीटर चल चुका था। 
          इसके बाद चाय पीते समय पत्नी का फोन आया। उन्होंने भी अपने सुबह के टहलने की कहानी सुनाई। एक जगह कुछ क्यूट टाइप के पिल्ले खेल रहे थे, उनमें से एक छोटे पिल्ले को सहलाते हुए वे उससे खेलने लगीं, जिसकी उम्र ढाई-तीन महीने के बीच थी। एक काला बड़ा पिल्ला, जो पाँच-छह महीने का था, उन्हें उस छोटे पिल्ले को छूने से बार-बार रोक रहा था और उनके हाथ को पकड़ लेता कि इसे मत छुओ या मत पकड़ो ! और जब एक अन्य छोटा पिल्ला पत्नी को देख-देख भूंकने लगा तो उस काले बड़े पिल्ले ने उस छोटे पिल्ले पर गुर्राते हुए उसे भूंकने से रोकने की कोशिश की। जैसे वह उसे समझाना चाहा हो कि इनसे खतरा नहीं, इनपर मत भूंको!
       जरा सोचिए, पशु-पक्षियों के इस विवेकपूर्ण व्यवहार को हम केवल उनकी सहजवृत्ति कहकर उनके 'विवेक' को खारिज़ कर देते हैं। और इस 'सहजवृत्ति' को जड़वत व्यवहार मान उनकी संवेदना और पीड़ा को भी नजरंदाज कर देते हैं। इनके प्रति हमारे क्रूरतापूर्ण व्यवहार के पीछे यही भावना काम करती है। हाँ 'विवेक' केवल मनुष्यों की ही बपौती नहीं है, पशु-पक्षियों के साथ यह पूरी कायनात ही विवेकवान है, हम अपने 'विवेक' के अहंकार में इस तथ्य को विस्मृत किए रहते हैं।
       सच बात तो यह हमारे पास वह 'क्षण' ही नहीं है जिसमें प्रकृति में व्याप्त 'विवेक' को हम समझ सकें! दरअसल हम अपने 'मरे' हुए 'विवेक' के साथ जीते हैं। यह हमारा मरा हुआ 'विवेक' ही कोरोना बनकर हमें डराता है।
        आखिर, हमारा 'विवेक' क्यों 'मरा' हुआ होता है!! शायद इसलिए कि हम 'लाग' और 'लपेट' में जीते हैं।
(17.03.2020)

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