कभी-कभी लिखने का मन नहीं करता, लेकिन #दिनचर्या तो चलती ही रहती है, लिखने या न लिखने से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आज जैसे ही स्टेडियम में पहुँचे, टहलने वाला ग्रुप मिल गया। यह ग्रुप अपने समय का पक्का निकलता है। मतलब जिस दिन हम जल्दी पहुँच जाते हैं तो यह मेरे बाद पहुँचता और जिस दिन देर से पहुँचते हैं तो ग्रुप स्टेडियम में टहलता दिखाई देता है। कभी मन होता है कि "सर्जिकल स्ट्राइक" के अंदाज में स्टेडियम पहुँच, चक्कर लगा कर वापस चले आएँ और किसी को पता ही न चले! लेकिन अलसियाये मुझसे, ऐसा सर्जिकल स्ट्राइक हो ही नहीं पाता..! खैर...
तो, ग्रुप वाले आपस में बतिया रहे थे, रोज की तरह। मैंने भी उनकी बातों पर कान लगा दिया, यही सोचकर कि आप से भी शेयर करने के लिए शायद कोई मसाला मिल जाए..मैं अपने बेहद बचपन काल में, परिवार के बुजुर्गों से उनकी यात्रा का विवरण ऐसे ही सुनता था..जैसे अपनी दिनचर्या की चर्चा आप से करता हूँ। लेकिन प्लीज, मुझे बुजुर्ग मत समझिएगा, तब मोबाइल का जमाना नहीं था, नहीं तो कौन सुनाने वाला और कौन सुनने वाला..! आज सभी, मोबाइल पर ही अपनी-अपनी बात कह रहे हैं, मतलब सुनाने और सुनने का खेल आज के दौर में खतम हो चुका है।
आपस में बतियाते ग्रुप के कई जुमले सुनाई दिए, "सारा काम मोबाइल करेगा" मतलब इसी पर कहा-सुना के साथ अन्य टाइप के काम इसी से हो जाएगा। ग्रुप वालों के कुछ अन्य जुमले, "भगत को फोन लगाओ" "अब बिना ड्राइवर के ही गाड़ियाँ होंगी" "बिना दिल का आदमी होगा"। ...फिर, इन जुमलों के बाद जोरदार हँसी गूँजती। ये आवाजें मेरी तेज चालों के साथ दूर तक मेरा पीछा करती थी। मन ही मन सोचा, इसी तरह ये सारे लोग अपने आगे की दिनचर्या की तैयारी कर रहे होंगे।
लौट कर आवास पर आया। ध्यान दिया, आवासीय परिसर में खड़जे पर काफी दूब उग आई है, सो वहीं बैठकर दूब उखाड़ने लगा था। खड़जे पर खरपतवार जैसे फैले इस दूब को उखाड़ते ऐसा आभास हो रहा था जैसे, अपने मन के कोनों में उगे-पड़े किसी भी तरह के अहंकार को उखाड़ कर फेंक रहा होऊँ। वाकई! कभी-कभी ऐसे काम भी कर लेने चाहिए।
बाद में चाय-वाय बनाकर पिया। बाहर से एक हलकी सी "फट" की आवाज हुई, शायद हाकर ने अखबार फेंका था। लेकिन न जाने क्यों अखबार उठाने तुरन्त नहीं निकला। याद आता है, बहुत पहले यानी कि जब अपने किसी भविष्य की तलाश में रहा होऊँगा तब, ऐसे ही अखबार आने पर, भाग कर अखबार उठाता था या हाकर के आने की प्रतीक्षा किया करता लेकिन अब वैसा उत्साह नहीं दिखता। जैसे, दिल दिमाग सब कुछ समझ गया हो और यह रोजमर्रा की बात भर रह गई हो।
खैर, अब इतनी भी उदासीनता ठीक नहीं, अभी जीवन की गंध बाकी है। कुछ देर बाद, अखबार उठाने बाहर निकला। जैसे ही दरवाजा खोला, बरामदे में टँगे लकड़ी के बाक्सनुमा घोंसले में से झाँकती गौरैया फटाक से उड़ भागी..इस समय, इस कृत्रिम घोंसले में, वह अपने बच्चों को पाल रही है, उसके लिए यह सावधानी और डर जरूरी है। मतलब सावधानी और डर काम के ही होते हैं।
वैसे आदमी अब बहुत लापरवाह हो चुका है। ड्राइविंग जैसी सीट पर बैठे हुए आदमी का भी कोई भरोसा नहीं रह गया है, नहीं तो, "बिना ड्राइवर के गाड़ी" की बात न की जाती। आदमी के अलावा बाकी अन्य सब जीवों में डर और सावधानी जैसे गुण आज भी है, वैसे ये आदिम गुण ही हैं। आज का आदमी, अपने को "आदिम" नहीं समझता, वह अपने सारे काम "प्लांडवे" में करने लगा है। लेकिन, इस आदमी का, आज का कोई भी काम बिना "आदिम" हुए नहीं चलता। सो, यह आदमी "आदिम" भी "प्लांन्डवे" में ही होता है। और "प्लांन्डवे" में होने के लिए इस आदमी को, "बिना दिल का" भी होना पड़ता है। यह इस पर भी काम हुआ जा रहा है। विज्ञान का जोर है, यह विज्ञान, बिना दिल का आदमी पैदा तो कर ही लेगा या कर भी रहा है । वैसे भी, दिल का भी कोई भरोसा नहीं है, कब आपके साथ "सर्जिकल स्ट्राइक" कर बैठे, और आप "अनप्लांन्ड" हो जाएं।
हाँ, आज दिल और दिमाग की ज्यादा जरूरत भी नहीं रह गई है, बस "भगत" बनने की जरूरत है। किसी को "भगत" कह देने वाले अपना सीना न फुलाएँ, "भगत" का मतलब यहाँ किसी राजनीतिक टाइप के "भगत" से नहीं है। अगर ऐसा मानें तो, "अपने-अपने खेमे" में सभी लोग "भगत" ही कहे जाएंगे। क्योंकि "भगत" होने की खिल्ली उड़ाने वालों को, इसी "सर्जिकल स्ट्राइक" पर "अपने खेमे वालों" को सावधान करते बखूबी सुना-पढ़ा है। इसीलिए कोई कभी भी, किसी "खेमेबाज" को आत्मविश्वास भरे लहजे में कह सकता है कि, "भगत को फोन लगाओ"। एक जरूरी बात और कहना है, ये "भगत" और "खेमेबाज" लोग बात बेबात में भी खूब "सर्जिकल स्ट्राइक" करते रहते हैं। भारतीय सेना को भी इन्हीं से, बेहतर तरीके से "सर्जिकल स्ट्राइक" करते रहने का गुर सीख लेना चाहिए, फिर कभी कोई सबूत नहीं माँग पाएगा और सेना का प्रशिक्षण आदि का खर्च भी बच सकेगा। इससे, फौरी तौर पर सेना को आर्थिक और सामरिक दोनों लाभ होगा।
अब आज का अखबार पढ़ना शुरू किए। दैनिक जागरण में बीच के पन्ने पर किसी "नेता" का किसी "नेता" के लिए कहा गया कथन हेडिंग "नफरत की बेल उगा रहे फला" छपा था। इसे पढ़ते हुए लगा, यहाँ "कथनकार नेता" समय की नब्ज पहचाने बिना ही अपना कथन झोंक रहे हैं, उनके लिए यह ठीक नहीं। कहीं जनता ने "सर्जिकल स्ट्राइक" को ही नफरत फैलाना मान लेगी तो "कथनकार" की नेतागीरी के परखच्चे उड़ सकते हैं! अरे भाई, कथनकार जी! समय और अवसर के कथनानुसार ही "कथन" तलाशा करिए तभी आपकी जय होगी।
हिन्दुस्तान में सम्पादकीय पेंज पर "न सरहद हो न सियासत" पढ़ा तो लगा, ये "सर्जिकल स्ट्राइक" सरहद और सियासत के ही कारण होते हैं, कलाकारों के कारण नहीं।
हाँ, अभी भी दिमाग पर टीवी समाचार चैनलों की तरह सर्जिकल स्ट्राइक का भूत चढ़ा हुआ है, सोच रहे हैं, धीरे-धीरे इसे उतारा जाए।
#चलते_चलते -
डर और सावधानी रक्षा कवच का काम करते हैं। जिसमें नई बात यह कि, ये हमें किसी अप्रत्याशित "सर्जिकल स्ट्राइक" से भी बचाते हैं।
-- Vinay
#दिनचर्या 22/6.10.2016
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