आज थोड़ी फुर्तबाजी में थे। इसलिए पाँच बजे नींद खुलते ही पाँच-दस पर स्टेडियम की ओर निकल लिए। उठने और निकलने में यह फुर्तबाजी इसलिए थी कि, आज गाँधी जी की जयन्ती है और सुबह आठ बजे कार्यालय जाकर उनके फोटू पर माल्यार्पण करना था। चूँकि, हम सरकारी नौकरी में हैं, इसलिए प्रत्येक वर्ष माल्यार्पण का अवसर मिल ही जाता है।
एक बात है! वैसे तो, है यह आपके कान में सुनाने लायक...लेकिन, यहाँ लिखे दे रहे हैं, आप सुनिए मत, पढ़ लीजिए, वह कि, गाँधी के फोटू को माला पहनाते लाज आती है..! हाँ, उनका माल्यार्पण करते हमें शर्म आती है, इसीलिए मुझे गांधी के सामने हाथ जोड़ना ज्यादा मुफीद लगता है। क्योंकि, यह सोचकर हाथ जोड़ लेते हैं कि, "गाँधी बाबा, तुम ऐइसई दूर रहो, फोटू में ही रहो, वहाँ आप हमें बहुत ठीक लगते हो...इसी दूरी में तो आपसे प्रेम पनपता है। गाँधी! तुम दिखाने की नहीं छिपाने की चीज हो।"
आवासीय परिसर से निकलते हुए डीजे की जबर्दस्त आवाज कानों में गुंजायमान हो रही थी। वैसे, रातभर यह डीजे बजता रहा होगा..निश्चित रूप से आसपास वाले ठीक से सो नहीं पाए होंगे। शायद, नवदुर्गा के पांडाल में ही यह डीजे बज रहा होगा। एक दिन अखबार में पढ़े थे कि दुर्गा पंडालों में डीजे बजाने की अनुमति नहीं रहेगी। लेकिन, अब इस पर क्या कहें, यह धर्म का मामला है, किसी धर्म के मामले में टाँग अड़ाना उचित नहीं होता यही सोचकर यहाँ नियमों के पालन को उचित नहीं माना गया होगा।
हम स्टेडियम पहुँचे। हमारे साथ ही रोज टहलने वाला ग्रुप भी पहुँच गया था। मैंने उन्हें आपस में बतियाते सुना, "आज रात में बिजली का खम्भा टूट गया, और रात में बिजली नहीं आई.." यह सुनते ही मुझे, उनकी पीड़ा की अनुभूति हुई। वाकई, एक तो सड़कें गली जैसी हैं और ऊपर से बिजली के खंभे ऐसे गड़े होते हैं कि डिवाइडर न होते हुए भी डिवाइडर का आभास देते हैं...फिर तो इन खम्भों को टूटना ही होता है! सुना, किसी ट्रैक्टर ने खम्भे को धकिया दिया था। इसीलिए तो, लोग साठ साल का रोना रोते हैं, हम ढंग से बिजली के तार भी अभी तक नहीं फैला पाए हैं।
चक्कर लगाते, एक सज्जन के बगल से निकलते समय मोबाइल पर उनके बतियाने की आवाज सुनी, वह किसी से कह रहे थे, "यहीं स्टेडियम में टहल रहे हैं" उनके बात करने का अंदाज बता रहा था कि वह अपनी घरवाली से ही बात कर रहे होंगे। खैर..स्टेडियम का, स्वयं के द्वारा निर्धारित चक्कर पूरा कर हम लौट आए।
आज सुबह-सुबह रामकिशोर आ गए, कभी-कभी रामकिशोर सुबह आकर मेरी चाय बना देते हैं, खासकर जब सुबह कहीं जल्दी निकलना होता है। रामकिशोर का कुत्ता बड़ा प्यारा है, वह भी अकसर सुबह उसी के साथ आता है और मेरे किचेन, कमरे सब जगह घूम लेता है, लेकिन आज वह गेट के बाहर ही रह गया था। मैंने जब गेट खुलवाया तो वह अपनी पूँछ हिलाते धड़ाके से अन्दर घुस गया। रामकिशोर को इधर-उधर ढूँढ़ते हुए अन्त में किचेन में खोज निकाला। मैं अपने कमरे में आराम फरमा रहा था, रामकिशोर को खोज वह महाशय निश्चिंत होकर वहीं मेरे कमरे में आकर आराम फरमाने लगे। जैसे, उसे सब बातें पता हो, और चाय बनने के बाद रामकिशोर के साथ भी निकल भी लिए। मैं, अब कुत्तों को ज्यादा समझदार मानने लगा हूँ।
चूँकि, आज गाँधी जी पर माल्यार्पण वगैरह करना था, चाय-वाय पीकर नहाने की तैयारी करने लगा। बाथरूम में देखा, बहुत दिनों से शौचालय की सफाई नहीं हुई थी। ध्यान आया, आज गाँधी जयन्ती पर कुछ भासन-वासन भी देना पड़ सकता है, और इधर देश के प्रधानमंत्री भी अपने बहुआयामी स्वच्छता-कार्यक्रम के क्रियान्वयन में जुटे हैं, सो मैं ही क्यों पीछे रहूँ, तो भाषण देते समय मेरे भी करनी और कथनी में कोई अन्तर न रह जाए, आज ही शौचालय साफ करने की ठान ली। अब मेरे कथनी में भी दम रहे, और स्वच्छता अभियान पर एक जोरदार भाषण दे सकूँ; हार्पिक्स तथा ब्रश लेकर अपने इस स्वच्छता महाभियान में हम भी जुट गए। खैर..भाषण देने की नौबत तो आई लेकिन स्वच्छता अभियान दिमाग से निकल गया, आखिर, एक ही चीज को दुहराना भी तो अब हमें अच्छा नहीं लगता..!
हाँ, गाँधी जी की फोटू को मैंने कई बार निहारा, गाँधी जी ग्राम-स्वराज की बात करते थे। वाकई, गाँधी जी का यह सपना आज ग्रामों में साकार हो रहा है। चारों ओर स्वराज ही स्वराज है! मजाल है कि हम इस ग्राम-स्वराज में कोई दखलंदाजी कर सकें? बहुत सशक्त हो चुकी है ग्राम-स्वराज की यह अवधारणा! अब सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति को कहीं ऊपर जाने की आवश्यकता नहीं.. ग्राम-स्वराज के रहनुमा द्वारा इनकी समस्याओं का वहीं गाँव में ही चुटकी बजाते निस्तारण कर दिया जाता है। अगर गाँव के ये निचले पायदान के दलिद्रनारायण, भूल से ऊपर अपनी बात पहुँचाने पहुँच भी गए तो ग्राम-स्वराज के ऐसे-ऐसे रहनुमा हैं कि तब ये, इन दलिद्रनारायणों को त्वरित-न्याय देने में, तनिक भी देर और संकोच न करते हुए ग्राम-स्वराज का उत्तम उदाहरण भी तत्काल प्रस्तुत कर देते हैं।
वैसे, दलिद्रनारायण की सेवा में ही गांधीगीरी भी सफलीभूत होता है। नहीं तो आप ही विचारिए! बिना दलिद्रनारायण के कैसे होगी गाँधीगीरी..? जब तक दलिद्रनारायण रहेंगे तब तक गाँधीगीरी रहेगी.. मैं तो कहता हूँ, गाँधीगीरी और दलिद्रनारायण दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है! हाँ, दलिद्रनारायण गाँधीगीरी की बदौलत ही जिन्दा है तो गाँधीगीरी भी दलिद्रनारायण की सेवा के बदौलत ही चलती है।
भाई लोग, मैं तो मानता हूँ, जन्मदिवस मनाना भी एक बिजनेस है, चाहे वह अपना जन्मदिवस हो या दूसरे का या फिर किसी महात्मा का ही क्यों न हो! आखिर, जीने को मजा लूटना ऐसे ही नहीं माना जाता..और कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनके स्वर्गवासी होने पर हमारी दुकानदारी चलती रहे इसलिए हम उनका जन्मदिन मनाते हैं। हाँ, किसी का जन्मदिन से सेवा भावना की याद आती है ; जैसे यदि हम गाँधी जी को भूलते हैं तो सेवा-भावना भी भूलते हैं और इस भावना में ही तो मेवा है। ऐसे में मेवा मिलता रहे हम गाँधीगीरी करते रहे.. सब का काम चलता रहे। गाँधी, नोट और वोट सब जगह काम आते हैं।
हाँ, एक बात है, दलिद्रों को भी "दलित" जैसे शब्द से सीख लेते हुए "दलिद्रनारायण" सम्बोधन पर अब आपत्ति दर्ज करानी चाहिए। इस शब्द में भेदभाव जैसा भाव छिपा होता है..एकदम छुआछूत जैसा! क्या मजाक है! भला आज तक "दलिद्र" से कभी "नारायण" जुड़ पाए हैं? अब तक दलिद्रों को, अपने नारायणों का खेल समझ में आ जाना चाहिए था, जो नहीं आया। खैर, मैं यही सोचता रहा और सभा विसर्जित हो चुकी थी। अन्त में, साबिर ने दो गाँधी भजन गाया, जिसे गुनगुनाते हुए मैं उठ गया था -
"वैष्णव जन तेणे कहिए, जे पीर पड़ाई जाणे रे" और
"ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान"
--Vinay
#दिनचर्या 21/2.9.16
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