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गुरुवार, 18 अगस्त 2016

"बेवकूफी का सौन्दर्य" - अनूप शुक्ल

              वैसे साहित्यकारिता धता बताने का ही काम है, मतलब हम जो हैं, जो नहीं हैं उसे अच्छी तरह कहने का काम है। व्यंग्यकार कौन कहाँ धता बता रहा है इसे बखूबी परख लेता है। अपने एक आदरणीय रिश्तेदार की बातों को परखने और साथ ही इनपर उनकी चुटकी लेने की आदत से मैं बचपन मे ही परिचित हो गया था। तभी से व्यंग्य को कुछ-कुछ समझने की मैं कोशिश करने लगा था हलांकि व्यंग्य के साहित्यशास्त्र का मैंने कोई अध्ययन नहीं किया और किसी व्यंग्य लेखन पर मेरी कोई टिप्पणी एक पाठक की हैसियत से ही हो सकती है, कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं। 
   
             हाँ, एक बात है, व्यंग्यकार साफ हृदय का होता है और धता बताने वालों को वह असानी से पहचान लेता है, इस बात को मैंने अपने उन रिश्तेदार को देख कर ही जाना था। उन्हें चीजों को बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार करते हुए देखा था। खैर..भूमिका पूरी हुई...

            मेरे एक फेसबुक मित्र श्री अनूप शुक्ल जी हैं, जिनसे फेसबुक पर ही सही मैं सौभाग्यवश उनसे जुड़ा हूँ और उनकी सारी पोस्टों को पढ़ता रहा हूँ। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर जुड़े रहने की प्रेरणा उन्हीं से ग्रहण करता हूँ। उनकी हाल ही में एक व्यंग्य रचना "बेवकूफी का सौन्दर्य" पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई है ; जिसे पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। हाँ, इसी व्यंग्य रचना पर एक पाठक की हैसियत से कुछ लिखना चाहता हूँ।
       
              "बेवकूफी का सौन्दर्य" को मैंने ठहकर ध्यान से पढ़ने की कोशिश की और पहली बार मैंने किसी व्यंग्य रचना को इतनी शिद्दत से पढ़ा बिलकुल इसकी भूमिका के लेखक श्री आलोक पुराणिक के कथनानुसार व्यंग्य के विद्यार्थी की तरह। वास्तव में इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैं परत दर परत व्यंग्य विधा से परिचित होता रहा और मुझे अहसास हुआ कि व्यंग्यकार प्रत्येक धता बताने वाली चीज को पहचान लेता है। मतलब यही कि साहित्य में व्यंग्य की शैली चीजों को उलट-पुलट कर देखने-समझने की विधा है। इस तथ्य का ज्ञान पुस्तक के व्यंग्य "बोरियत जो न कराए" पढ़कर हुआ। ऐसे में व्यंग्यकार की नजरों से कोई चीज छिपती नहीं। परिणामतः शुक्ल जी को कोई धता बता भी नहीं सकता और अगर आप ने इसकी तनिक भी गुस्ताखी की तो झट से इनके व्यंग्य का एक जोरदार डंडा पड़ चुका होता है। 
      
                 वास्तव में श्री शुक्ल जी दृष्टि प्रदान करने वाले तथा "महानता" के घोषित तत्वों को भी कुशलता से कठघरे में खड़ा कर देने वाले व्यंग्यकार हैं; मतलब वे विसंगतियों पर प्रहार ही नहीं करते बल्कि अपने व्यंग्य में राह भी दिखाते हैं, जैसे "अरे भाई। दिमाग को संसद में मत बदलो। जरा तमीज से पेश आओ।" इसीप्रकार "बुजुर्गों को अपने नाती-पोतों को खिलाने का शौक बहुत रहता है। इसी बहाने घर में टिके भी रहते हैं।" या "चुनाव भावुकता से नहीं लड़े जाते बच्चा।घोषणापत्र में भावुकता दिखेगी तो जनता समझेगी ये कवि लोग हैं। राजनेता नहीं हैं।...घोषणापत्र ललित निबंध सरीखा होना चाहिए जो पढ़ने में मनभावन होना चाहिए। भले ही उसका मतलब कुछ न निकले।" व्यंग्यकार यहाँ कुछ कहते हुए भी जान पड़ता है, जहाँ तमाम भावार्थों से संघनित ऐसी पंक्तियों के पिघलने पर व्यंग्य कई स्तरों पर बहता हुआ दिखाई देने लगता है, जहाँ विद्रूप व्यवस्था पर चोट तो होती ही है अन्तर्धारा के रूप में व्यंग्यकार की करुणा भी झलक उठती है। जैसे "बुजुर्गों" वाली बात मेँ या "फटाफट क्रिकेट में चीयरबालाओं की स्थिति" में आया यह व्यंग्य-कथन दृष्टव्य है "बहुत कम कपड़े पहनती है। इतने कम कि वे अगर खूबसूरत न हों और उनके पहने कपड़े गंदे हों तो देश की आम जनता सी लगी"।
                 
               अभी तक अन्य लेखकों के जो भी छिटपुट व्यंग्य पढ़ा वहाँ मुझे लगा कि व्यंग्यकार किसी विशेष "थीम" पर चलते हैं, जैसे किसी खास बात को सूत्र-रूप में पकड़कर उसी पर केंद्रित हो जाते हैं और यहाँ व्यंग्यकार का व्यंग्य-विषय तुरत-फुरत समझ में आ जाता है जो भरी सभा में किसी को चिढ़ाने जैसा ही होता है, जहाँ चिढ़नेवाला भी आसानी से प्रतिउत्तर देने हेतु तत्पर हो उठता है। लेकिन "बेवकूफी का सौन्दर्य" में आए व्यंग्य सुननेवाले को आत्ममंथन के लिए सोचने पर विवश करता है। यहाँ व्यंग्य किसी बात को सूत्र-रूप में पकड़कर चलता हुआ दिखाई नहीं देता और लट्ठमलट्ठ की बात भी नहीं होती बल्कि इनके व्यंग्य की आधारभूमि में फैलाव होता जाता है, जैसे टार्च की रोशनी में सलीके से और भी चीजें दिख जाती हैं। "आनलाइन कविता स्कूल" व्यंग्य से इस तथ्य को समझा जा सकता है। लेकिन कहीं-कहीं व्यंग्यकार आवश्यकता पड़ने पर सीधे व्यंग्य पर उतर आता है, जैसे, "आइए घाटा पूरा करे"। इसीप्रकार "जाम के व्यावहारिक उपयोग के बहाने" व्यंग्यकार किसी समस्या पर सरकारी-तंत्र और समस्या के प्रति हमारे दृष्टिकोण की पोल खोल देता है।
     
              वैसे व्यंग्य गुस्सा, हास्य और करुणा जैसे भाव को अन्तर्धारा के रूप में लेकर चलता है, लेकिन यहाँ हास्य जोकरों वाला नहीं होता बल्कि हँसी-हँसी में कुछ कह जाने वाला हास्य होता है, असल में यहाँ आया हास्य गुस्से को संतुलित करते दिखाई देता है जबकि करुणा जैसा भाव सुनने वाले को संजीदा कर जाता है। "बेवकूफी का सौन्दर्य" में ये सभी तत्व दिखाई देते हैं। व्यंग्यकार के गुस्से को मैंने "देश सेवा का ठेका" में "चल बे मेरे प्यारे देश। इस तरफ चल। उधर नहीं बे इधर। तेरी सेवा का ठेका हमें मिला है। तुझे हमारी मर्जी से चलना पड़ेगा। समझ गया न।" में बखूबी एहसास किया। इस कथन से मैं सिद्ध कर सकता हूँ कि श्री शुक्ल जी गुस्सा, हास्य और करुणा के संविलयन से उपजे क्षोभ से प्रेरित व्यंग्यकार हैं। वैसे "बायें थूकिये" से तो हँसी ही फूट पड़ती है, या "बेटा विमोचन में फंसा हूं। जैसे ही विमोचन हटा घर आता हूं।" यहाँ व्यंग्यकार गुदगुदाते हुए अपने विनोदी स्वभाव से भी परिचित कराता है।
       
               "बेवकूफी का सौन्दर्य" की व्यंग्य-रचनाओं में बहुत सुलझी हुई दृष्टि का इस्तेमाल किया गया है। "जनसेवा का जोखिम" पढ़ते हुए यह बात प्रमाणित होती है कि किसी बात के पक्ष में लिख देना भी आधुनिक युग में एक व्यंग्य-विधा है। इनकी सुलझी हुई इस व्यंग्य-शैली में प्रयुक्त भाषा का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि व्यंग्य में किसी बात की व्याख्या नहीं होती बल्कि व्यंग्य एक कथन है, जो अपने पाठक में व्यंग्य-कथनों के प्रति रुचि जगाती बात करते हुए चलती है। व्यंग्य की चोट के प्रभाव का एहसास उसकी भाषा में ही छिपा होता है। यहाँ व्यंग्य-लेखक इस भाषा में सिद्धहस्त है। हम जैसे व्यंग्य के नए पाठकों को भाषा ही व्यंग्य के चुटीलेपन का एहसास कराती है। जैसे, "अरे यार देओ चाहे जो कुछ लेकिन लिखो लैपटॉपै।" व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्यों में आम बोलचाल की भाषा को सहज-शैली में अपनाया है।
      
               इसप्रकार "बेवकूफी का सौन्दर्य" समग्र रूप से व्यंग्य का सौन्दर्य है, जिसमें व्यंग्य के सभी तत्व परिलक्षित होते हैं। व्यंग्य की खोज में भटक रहे किसी पाठक के लिए यह एक बेहतर किताब है। आज की इस व्यवस्थात्मक जटिलता में किसी व्यंग्य को समझने के लिए उस व्यवस्था को भी समझना बहुत जरूरी होता है जिस पर तंज कसा गया हो। "बेवकूफी का सौन्दर्य" कुछ ऐसे ही जटिल समस्याओं पर प्रहार करती है, जिसकी रोचकता पाठक की समझ पर निर्भर करती है। वैसे भी व्यंग्य जब धीरे-धीरे साहित्य बनने की ओर उन्मुख होता है तो उसमें मंचीय हास्य जैसी रोचकता खोजना व्यर्थ की कवायद है। अतः इस पुस्तक में सम्मिलित व्यंग्य की रोचकता इसके विषय-वस्तु की गंभीरता की समझ में निहित है, मतलब यहाँ आए व्यंग्यों की रोचकता इसके विषय-वस्तु की गंभीरता और पाठक में इसकी समझ के समानुपाती है।
       
                अंत में इस किताब का नाम "बेवकूफी का सौन्दर्य" है, जो व्यंग्य का अनेकांतवादी शास्त्र है, यहाँ व्यंग्य का लोकतंत्र है, जहाँ कोई भी बात किसी भी ढंग से कह देने की स्वतंत्रता है, इसलिए व्यंग्य-स्कूल के मुझ प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी को इतनी बातें कहने की हिम्मत हुई।
                                                                                              -विनय कुमार तिवारी

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