हाँ वह बालक ही तो
था उसकी उम्र यही कोई दस-बारह वर्ष के बीच रही होगी| मेरे पड़ोसन के यहाँ वह नौकर
के रूप में काम करने आया था| सारे घर के काम तो वह बहुत सलीके से करता था लेकिन
पड़ोसन ने बताया कि उस लड़के का यहाँ शहर में उसके घर मन नहीं लगता था| उस बच्चे के
पिता ने घर की आर्थिक तंगी के चलते ही उसे एक घरेलू नौकर के रूप में शहर में भेजा
था लेकिन उसे यह नहीं पता था कि वह यहाँ एक घरेलू नौकर के रूप में काम करने आया
है| उस बच्चे के घरेलू काम करने के बदले मासिक ढाई हजार रूपया उसके पिता के हाथों
में दे दिया जाता था, ऐसा पड़ोसन ने बताया था|
मेरी पड़ोसन ने बताया कि वह लड़का अकसर
अपने घर और गाँव को लेकर परेशान हो उठता और कहता, “मैं यदि अपने गाँव होता तो
तालाब में नहाने जाता; दिन भर तालाब में डूबा रहता...मछली मारता..पेड़ पर चढ़ आम
तोड़ता..गंजी खोदता...लेकिन यहाँ क्या है..यहाँ कुछ भी नहीं है?” पड़ोसन बता रही थी
कि अकसर वह इन्हीं बातों को दुहराता रहता था| एक दिन जब वह बच्चा बहुत परेशान हो
उठा तो पड़ोसन ने अपना मोबाइल बच्चे को देकर अपने पिता से बात कर लेने के लिए कहा|
बच्चे ने मोबाइल पकड़ते ही अपने पिता से कहना शुरू किया, “अरे बापू..! यहाँ आऊ हमको
तुरन्त लियाव जाव...यहाँ न तालाब है..न गंजी के खेत हैं...न आम के पेड़ हैं...यहाँ
कुछ नहीं है, हमारा मन नहीं लगता हमें लियाई जाव..|” पड़ोसन ने बताया यह बात करते समय
उस बच्चे की आँखों में आंसू भी छलक पड़े थे| फिर उस बच्चे का पिता एक दिन शहर आया
और उसे वापस गाँव लिवाकर चला गया| मेरी पड़ोसन बता रही थी कि यदि वह लड़का घर पर
रुकता तो हम उसके महीने के पैसे और बढ़ा देती क्योंकि वह घर के कामों को बहुत
होशियारी और लगन के साथ करता था|
मैं सोचती हूँ...उस बच्चे का
बचपना..कितना अल्हड़..रहा होगा..! एकदम निच्छल..निर्मल..! उस बच्चे को उसका पिता तो
वापस लेकर चला गया, लेकिन न जाने ऐसे कितने बच्चे अपनी इस अल्हड़ता और निर्मलता को
जीवन की इन कठोर चट्टानों के बीच खो देते होंगे...असमय उनके अन्दर की असीम
प्रतिभाएँ मर जाती होंगी...न जाने हम क्या कर रहे हैं...बालश्रम के कानून का
ढिढोरा हम अवश्य पीटते हैं..लेकिन समाज या सरकार के स्तर पर हम ऐसे बच्चों के लिए
क्या कर पाते हैं..?
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